‘उगता भारत’ का संपादकीय : भारत की अपेक्षाओं पर खरा उतरती है मोदी सरकार की शिक्षा नीति ?
केंद्र की मोदी सरकार ने अपनी नई शिक्षा नीति लागू कर दी है । इस शिक्षा नीति पर अनेकों शिक्षाशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों, विद्वानों और मनीषियों ने अपने-अपने ढंग से लिखा है । अनेकों विद्वानों ने इसके समर्थन में लिखा है तो कुछ ने इसकी आलोचना की है ।वास्तव में किसी भी देश की शिक्षा नीति उसके भविष्य का दर्पण होती है । सरकार अपनी शिक्षा नीति को लागू कर अपने देश का भविष्य सुनिश्चित करती है और अपने उस दर्शन को शिक्षा नीति के दर्पण के माध्यम से जनमानस के हृदय में स्थापित करने का प्रयास करती है ,जिसके माध्यम से वह सक्षम व समर्थ राष्ट्र का और चरित्रवान, मेधासंपन्न युवा का निर्माण करना चाहती है।
भारत की प्राचीन वैदिक शिक्षा प्रणाली को नष्ट कर जब इसी काम को 1835 में लॉर्ड मैकाले ने किया था तो निश्चित रूप से उसका उद्देश्य यह नहीं था कि वह एक सक्षम, समर्थ भारत का और चरित्रवान तथा मेधासंपन्न भारतीय युवाओं का निर्माण करना चाहता है। इसके विपरीत उसकी सोच थी कि वह भारत के भविष्य को उजाड़ दे और यहां के युवाओं को चरित्र भ्रष्ट कर विदेशी शासकों का सेवक बना दे। यही कारण रहा कि लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति भारत को उजाड़ते हुए आगे बढ़ी और तेजी से उसने क्लर्क अर्थात अंग्रेजभक्त युवा बनाने आरंभ किये। 1937 में अपनी ‘वर्धा शिक्षा योजना’ के माध्यम से कांग्रेस ने लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति को परिवर्तित करने का प्रयास किया , परंतु वह इस शिक्षा नीति में कोई आमूलचूल परिवर्तन नहीं कर पाई। यदि लार्ड मैकाले की शिक्षा नीति भारतद्वेषी थी तो कांग्रेस की शिक्षा नीति भी न्यूनाधिक वैसी ही रही ।कांग्रेस ने यद्यपि इस शिक्षा नीति को बदलने का निर्णय लिया, परंतु उसने अपनी शिक्षा नीति में मुस्लिम तुष्टीकरण को स्थान देकर भारत की मौलिक सांस्कृतिक चेतना को नष्ट करने का प्रयास किया। कहने का अभिप्राय है कि जिन लोगों ने अपने शासनकाल में भारत और भारतीयता का विनाश करने का ठेका ले लिया था, उनको भी शिक्षा पाठ्यक्रम में उदार शासकों के रूप में स्थापित करने का कांग्रेस ने प्रयास किया और अपने उन महापुरुषों को शिक्षा नीति के पाठ्यक्रम में स्थान नहीं दिया जिन्होंने देश के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था ।
फलस्वरूप उसकी शिक्षा नीति तुष्टीकरण की भेंट चढ़ गई और ‘गंगा जमुनी संस्कृति’ के निर्माण के लिए एक ऐसे दिशाहीन भारत के निर्माण में लगती हुई दिखाई दी जो अपने अतीत को अंधकार युग समझ कर भुला देने के लिए आतुर दिखाई देता था। इसके पश्चात राजीव गांधी ने अपने शासनकाल में फिर शिक्षा नीति में कुछ परिवर्तन करने का निर्णय लिया, परंतु वह भी लार्ड मैकाले और कांग्रेस की परंपरागत शिक्षा नीति से अलग जाकर कुछ भी ऐसा नहीं कर पाए जिससे भारतीयता को प्रोत्साहन मिलता और चरित्रवान मेधा संपन्न युवाओं का निर्माण कर भारत आगे बढ़ता। उन्होंने आधुनिकता के नाम पर पश्चिम के भौतिकवादी चिंतन को परोसने का काम किया और अपनी शिक्षा नीति के माध्यम से देश के युवाओं को चरित्र भ्रष्ट बनाने के लिए यूरोप की शिक्षा प्रणाली को भारत के लिए आदर्श समझा । फलस्वरूप राजीव गांधी की शिक्षा नीति के माध्यम से भारत तेजी से पश्चिम की उस आधुनिकता की ओर बढ़ा जो विद्यालयों में दारु पीने वाले ,अश्लील हरकत करने वाले और सिगरेट में मादक द्रव्य रखकर नशा करने वाले युवाओं को प्रोत्साहित करती थी। आज हम उसी दिशाहीन, पथभ्रष्ट और चरित्रभृष्ट युवाओं को सड़कों पर देखते हैं।
ऐसे में नरेंद्र मोदी सरकार से अपेक्षा थी कि वह भारत मैं व्यष्टि से समष्टि तक के चिंतन को स्पष्ट करने वाली शिक्षा नीति को लागू करती । जी हां, एक ऐसी शिक्षा नीति जो मानव निर्माण से लेकर राष्ट्र निर्माण तक की योजना पर स्पष्ट खाका प्रस्तुत करती । क्योंकि शिक्षा के माध्यम से ही मानव का निर्माण होता है , समाज का निर्माण होता है ,राष्ट्र का निर्माण होता है । इसी के माध्यम से वैश्विक शांति के लिए ऐसे योद्धा तैयार किए जाते हैं जो संसार में नैतिकता, न्याय, धर्म और नीति की बात कर सारे संसार को शांति का मार्ग दिखाने वाले होते हैं। नरेंद्र मोदी सरकार के द्वारा प्रस्तुत की गई शिक्षा नीति के समीक्षक समाजशास्त्री और शिक्षाशास्त्रियों से हम यह पूछना चाहेंगे कि वह ऐसे कौन से तत्व इस शिक्षा नीति में देखते हैं जिसके माध्यम से वैदिक शिक्षा प्रणाली का वह आदर्श स्पष्ट होता हुआ दिखाई देता हो जिसके माध्यम से मानव निर्माण से लेकर राष्ट्र निर्माण तक की स्पष्ट योजना दिखाई देती हो ? क्या कहीं कोई ऐसा प्रावधान इस शिक्षा नीति में है जिससे यह स्पष्ट होता हो कि वैदिक चिंतन को प्रस्तुत कर मानव को राष्ट्रोपयोगी ही नहीं बल्कि विश्व के लिए भी उपयोगी बनाने का काम किया जाएगा ? उपनिषदों का वह सूक्ष्म संदेश इसमें कहां दिखाई देता है जो मानव को इहलौकिक और पारलौकिक उन्नति का मार्ग दिखाता है ? स्मृतियों का वह चिन्तन इसमें कहां दिखाई देता है जो मनुष्य को पूर्ण पुरुष बनाने के लिए एक संकल्पना प्रस्तुत करता है ? रामायण का वह आदर्श इस शिक्षा नीति में कहां दिखाई देता है जो मनुष्य को मर्यादित आचरण करने की कदम – कदम पर शिक्षा देता है ? महाभारत का वह आदर्श इसमें कहां दिखाई देता है जो मानव को धर्म भ्रष्ट होने से रोकने का चिंतन प्रस्तुत करता है ? गीता का वह अमर संदेश इसमें कहां दिखाई देता है जो मनुष्य को कर्म पर अधिकार करने की शिक्षा देकर यह साफ करता है कि फ़ल पर तेरा अधिकार नहीं है, इसलिए कर्मशील बन ?
इस शिक्षा नीति में दर्शन शास्त्रों का कोई संकेत तक नहीं है । भारत के ऊर्जावान बने रहने के लिए गायत्री मंत्र की उस साधना का अमर संदेश भी नहीं है जो मनुष्य को तेजस्वी, ओजस्वी बनाकर ईश्वर के तेजस्वरूप का ध्यान कराते हुए इसे ऊर्जावान बनाती है। मनुष्य निर्माण से अछूती इस नई शिक्षा नीति से हम कैसे एक सहनशील, समरस समाज की संकल्पना कर सकते हैं और कैसे एक तेजस्वी और ओजस्वी राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं ?- इस पर भी शिक्षाशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों को अपना चिंतन प्रस्तुत करना चाहिए । जिस भौतिकवादी चकाचौंध से चुंधियाया हुआ यूरोप और पश्चिम के सभी देश इस समय हताशा और निराशा के कगार पर खड़े हैं , उसने यह स्पष्ट कर दिया है कि मनुष्य निरी भौतिकवादी उन्नति से उन्नत नहीं हो सकता ,उसके लिए अध्यात्म का वह रस भी आवश्यक है जिसे पीकर भारत के ऋषि अनुसंधान और आत्मिक उन्नति के आनंद रस में मुग्ध रहते थे।
भारत की सांस्कृतिक चेतना मनुष्य को ‘आत्मदीपो भव:’का संदेश देती थी और न केवल संदेश देती थी बल्कि हर एक व्यक्ति को स्वत:स्फूर्त आत्म चेतना का एक ऐसा केंद्र बना देती थी जिसे किसी बाहरी सहारे की आवश्यकता नहीं होती थी । वर्ण व्यवस्था के माध्यम से लोग अपने परंपरागत रोजगार को अपने आप सीख लेते थे और देश व समाज के लिए उत्कृष्ट से उत्कृष्ट उत्पादन देने का प्रयास करते थे व्यक्तिगत जीवन में ईमानदार रहकर अपने व्यापारिक क्षेत्र में वह पूर्ण स्वाधीनता का अनुभव करते थे। समाज के लिए जो कुछ भी प्रदान करते थे उसे अपना परम कर्तव्य या धर्म समझकर करते थे। अपनी अंत:प्रेरणा और अंतश्चेतना से लोग स्वत: स्फूर्त ऊर्जावान रहते थे और वास्तविक स्वतंत्रता का आनंद लेते थे। हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली ऐसे स्वत: स्फूर्त मानव समाज का निर्माण करने में असफल रही है । यह शिक्षा नीति नौकर पैदा करती है और आजीवन उसे किसी न किसी की गुलामी करने के लिए प्रेरित करती है । अपने इस चिंतन को यह शिक्षा नीति ‘रोजगार के अवसर’ के रूप में एक आकर्षक पैकिंग में प्रस्तुत करती है। जिससे लोग इसके प्रति आकर्षित होते हैं। परंतु वास्तव में यह स्वतंत्रता का हनन करने वाली है। क्योंकि यह लोगों को नैतिक और आत्मिक रूप से उन्नत बनाकर उन्हें ईमानदारी से स्वरोजगार की ओर प्रेरित नहीं करती , बल्कि किसी सरकार का , किसी व्यवस्था का ,किसी तंत्र का या किसी सेठ साहूकार का नौकर बनाने के लिए प्रेरित करती है । जिससे सारे समाज में अशांति ,व्याकुलता, हताशा और निराशा फैलती है । पश्चिम ने इस प्रकार के चिंतन से उस अवस्था को प्राप्त कर लिया है जहां जाकर वह हताश और निराश हो चुका है। भारत बहुत अधिक सीमा तक वहां तक पहुंच चुका है। यद्यपि इसके उपरांत भी भारत का देहात आज भी हताशा निराशा की स्थिति से बचा हुआ है । क्योंकि वह भारत की शिक्षा नीति से अभी तक भी पूर्णतया प्रभावित नहीं हो पाया है। जितना भारत इस विनाशकारी शिक्षा नीति के माध्यम से प्रभावित हो गया है, उतना ही भारत हताशा व निराशा और रोगों की चपेट में आ चुका है। दुख के साथ कहना पड़ता है कि इस भयावह स्थिति से बचने का कोई स्पष्ट खाका वर्तमान शिक्षा नीति स्पष्ट नहीं करती है।
वर्तमान में केंद्र में ‘राम भक्तों’ की सरकार है। क्या ‘राम भक्तों’ की सरकार की इस शिक्षा नीति में ऐसा कोई एक भी सूत्र है जो आज भी राम का निर्माण कर सके या किसी माँ को कौशल्या बनने का रास्ता दिखा सके ? जी हां ,वही कौशल्या जिसको जब यह पता चला कि अब वह गर्भवती है तो वह राजमहल को त्यागकर वनों में जाकर केवल इसलिए रहने लगी थी कि वह एक ऐसे सात्विक वृत्ति के पुत्र को जन्म देना चाहती थी जो राजसिक और तामसिक वृत्तियों से पूर्णतया दूर हो। माता कौशल्या के इस त्याग ,तप व साधना से ही राम वह राम बने जो अपने राजतिलक होने के समाचार से बहुत अधिक प्रफुल्लित नहीं हुए और वन जाने के समाचार से बहुत अधिक दुखी नहीं हुए । ऐसे समरस, शांत, सौम्य राम का निर्माण करने वाली शिक्षा ही भारत की आत्मा की चेतना को जगाने वाली हो सकती है । हमें ‘रामभक्तों’ से ऐसी ही शिक्षा नीति के निर्माण की अपेक्षा थी। वास्तव में भारत में राम के चित्र की इतनी आवश्यकता नहीं है, जितने राम के चरित्र को स्थापित करने की आवश्यकता है। यह तभी संभव है जब भारत में स्पष्ट रूप में वैदिक शिक्षा नीति को लागू किया जाता और संस्कारित समाज के निर्माण के लिए सरकार संकल्पित हुई दिखाई देती। इसके लिए वैदिक शिक्षा बोर्ड की मांग बाबा रामदेव जी की ओर से की गई थी ,परंतु केंद्र की मोदी सरकार ने उस मांग का समर्थन नहीं किया और तुष्टीकरण के कांग्रेसी संस्कार को ओढ़ते हुए भारत में अपनी शिक्षा नीति के माध्यम से फिर वही करने का प्रयास किया है जिससे भारत की आत्मा का हनन करने वाली ‘गंगा जमुनी संस्कृति’ को प्रोत्साहन मिले और भारत की ‘सामासिक सांस्कृतिक चेतना’ का विनाश हो।
आज का युवा जिस प्रकार मांसाहारी होता जा रहा है , उसे रोकने का कोई प्रबंध इस शिक्षा नीति में नहीं है। गौमाता कहकर हिंदू जिस गाय को पूजता है, उसी हिंदू का बेटा या बेटी वर्तमान शिक्षा प्रणाली में पढ़ लिखकर जब विद्यालयों से बाहर आता है तो वह गौ मांस को मजे के साथ खाता हुआ दिखाई देता है । यह सत्य है कि आज हिंदू भी बड़ी संख्या में गौ मांस खाने लगा है । जिसके कारण गौ वंश का विनाश होता जा रहा है। इस दिशा में कुछ ऐसा ठोस और सकारात्मक करने की आवश्यकता थी जिससे गोवंश का सम्वर्धन होना सुनिश्चित होता । ग्रेटर नोएडा के एक शैक्षणिक संस्थान से एमबीए कर रहे मेरे बेटे ने मुझे बताया कि उसकी क्लास में ऐसे तीन ही बच्चे हैं जो दारु ,सिगरेट नहीं पीते हैं और मांस भी नहीं खाते हैं। ‘फ्रेंचकट दाढ़ी’ रख कर विद्वता का रौब झाड़ने वाले समाजशास्त्री और शिक्षाशास्त्री ऐसी कौन सी योजना रखते हैं जिससे वह भारत के बिगड़ते चरित्र और पथभ्रष्ट होते युवा को रोक सकें ? अपने लेखों के माध्यम से उन्हें यह स्पष्ट करना ही चाहिए था और मोदी सरकार पर यह दबाव बनाना चाहिए था कि वह चरित्र निर्माण को प्राथमिकता देने वाली शिक्षा नीति को लागू करे। जिससे एक ईमानदार भारत के ईमानदार समाज का निर्माण हो सके और चरित्रशील युवाओं के माध्यम से समाज में शांति सुव्यवस्था स्थापित हो सके।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत