सफलता चाहें तो साथ न रखें

एक ही किस्म के लोगों को

– डॉ. दीपक आचार्य

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किसी भी कार्य की योजना बनाने से लेकर इनके क्रियान्वयन की पूर्णता तक की पूरी प्रक्रिया में जिन लोगों की भागीदारी होती है उनकी मनोवृत्तियाँ, स्वभाव, आदतों और कार्य करने की क्षमताओं का प्रभाव कार्य की गुणवत्ता से लेकर प्रभावोत्पादकता और उपयोगिता सभी पर पड़ता है।

इसलिए हर प्रकार के कर्म का सूत्रपात करने से पूर्व इसके क्रियान्वयन में शामिल किए जाने वाले लोगों के औचित्य, दक्षताओं और व्यक्तित्व का पूरा-पूरा आकलन पहले ही कर लिया जाना जरूरी है। रचनात्मक कर्म कोई से हों, सारे अच्छे होते हैं लेकिन इनकी पूर्णता के लिए इसमें भागीदार होने वाले लोग ही मूलाधार होते हैं क्योंकि जो लोग इन कामों में जुटते हैं उन्हीं से कार्यपूर्णता को आधार मिलता है।

इसलिए कार्य सिद्धि के लिए कार्य करने वाले लोगों की दक्षताओं, व्यवहार तथा मौलिकताओं के साथ ही इनकी आदतों और प्रवृत्तियों आदि को ध्यान में रखा जाना चाहिए। कई बार किसी भी एक काम में विविधताओं और अन्यतम दिशा-दृष्टि एवं सोच वाले लोग शामिल होने पर कार्य के बंधे-बंधाये ढर्रे से कुछ हटकर ऎसा काम होता है जिससे समाज को कुछ न कुछ नवीनता देखने को मिलती है जो बहुधा समुदाय के हित में हुआ करती है।

लेकिन इसके लिए सबसे पहली शर्त यही है कि ऎसे लोग सकारात्मक सोच से भरे हों अन्यथा काम बिगाड़ देंगे। दूसरी अवस्था में एक ही किस्म के लोग एक ही काम में लगा दिए जाने पर भी काम बिगड़ता है, यदि ये भी सकारात्मक दृष्टिकोण वाले न हों।

मूल बात यही है कि जिन लोगों को काम सौंपा जाए, उन पर कार्यपूर्णता का पूरा भरोसा हो।  कई बार एक ही प्रकार के काम में एक ही मनोवृत्ति के लोग एक साथ लगा दिए जाने से इन लोगों का स्वभाव, मनोवृत्ति और आदतें सब कुछ मिल कर इनकी गतिविधियों का मार्गान्तरण कर दिया करती हैं और ऎसे में किसी कार्य के गुणवत्तापूर्ण होने की बात तो दूर है, कार्यपूर्णता ही संदिग्ध हो जाती है।  जैसे बातूनी किस्म के लोग जहाँ कहीं होंगे, उनका पूरा ध्यान फालतू की चर्चाओं, चर्चाओं का जवाब पाने और इनकी प्रतिक्रियाओं तक ही केन्दि्रत होकर रह जाता है और ऎसे में होता यह है कि काम वैसे ही पड़ा रहता है और इनका पूरा समय बतरस में, तर्क-वितर्क तथा नाकारा बहसों में जाया होने लगता है।

हमारे आस-पास ऎसे खूब सारे लोग हैं जिन्हें ज्यादा बोलने, विद्वत्ता दर्शाने, बिना वजह चर्चाओं में दखल देने और हर विषय पर उपदेश या भाषण झाड़ने की आदत होती है। ये लोग जाने किस मिट्टी के बने होते हैं कि घण्टों बोलते रहने के बावजूद थकते नहीं बल्कि जितना ज्यादा बोलते चले जाएंगे, उतनी ज्यादा जीवनीशक्ति का इनमें संचार होता चला जाएगा।

कुल समुदाय में कुछ प्रतिशत लोग हर जगह ऎसे होते ही हैं जो हर विषय पर अपना अधिकार जताते हैं, इनसे किसी भी विषय पर चर्चा या बकवास करा लो, राजी हो जाएंगे और बकते ही रहेंगे। कुछ लोग तो बोलने के लिए ही पैदा हुए लगते हैं जाने कि ये जड़ होते तो किसी जगह भौंपू की शक्ल में नज़र आते। ऎसे लोगों को कोई काम सौंपने का मतलब है कार्यपूर्णता के प्रति गांभीर्य का अभाव।

इसी प्रकार हर काम में नुख्स निकालने वाले लोग भी हमारे यहाँ खूब तादाद में हैं। इन्हें हर काम में पोस्टमार्टम की ऎसी आदत होती है कि कैसा भी अच्छा कर्म हो, इनी पैनी दृष्टि और खुराफाती सोच कुछ न कुछ गलती ढूँढ़ ही लेती है।

बिना पुरुषार्थ के सब कुछ खा जाने और पा जाने वाले, विकृत मानसिकता वाले, उन्मादी, क्रोधी, असन्तुष्ट, उद्विग्न, नकारात्मक छवि व बुरी आदतों वाले, टाईमपास व भगोड़े तथा विघ्नसंतोषी स्वभाव वाले लोगों को एक ही स्थान पर जमा नहीं करें बल्कि उन्हें अलग-अलग काम पर लगाएं तथा इनके साथ सकारात्मक लोगों की संख्या ज्यादा रखें ताकि किसी भी कर्मयोग को आशातीत सफलता प्राप्त हो सके।

आज का कर्मयोग अच्छे और समर्पित लोगों की ही कद्र करता है लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि एक बार नकारात्मक छवि बना देने वालों या कामचोरों, निकम्मों का कोई उपयोग ही नहीं करें। समाज में नालायकों, कामचोरों और हरामखोरों को आनंद पाने के लिए खुला न छोड़ रखें बल्कि उन्हें किसी न किसी काम धंधे मेें लगाये रखें ताकि खाली दिमाग शैतान का बंगला न बन सके।

हो यह गया है कि काम करने वाले लोगों पर बोझ बढ़ता जा रहा है और वह काम भी उन लोगों का जो कि काम से जी चुराते हुए मुफ्त का आनंद ले रहे हैं। सब कुछ दक्षता होते हुए भी निकम्मी छवि बनाकर मस्ती मार रहे इन लोगों को हम बहुधा नालायक मानकर छोड़ दिया करते हैं, और ये लोग भी यह अच्छी तरह समझ चुके होते हैं कि निकम्मे, ढीठ और कामबिगाडू होने में ही मस्ती है, इसलिए ये अपने आपको नालायक, नासमझ और ढीले साबित करते हुए उन लोगों के लिए सरदर्द बने हुए रहते हैं जो ईमानदारी व निष्ठा से काम करने की आदत पाले हुए हैं।

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