आप कौवे को भी भारत पर (हिन्दुओं पर) हमलावरों के बुरे असर के उदाहरण की तरह देख सकते हैं। हिन्दुओं के लिए जो भी अच्छा होता है उसे हमलावर खराब घोषित करना जरूरी मानते हैं। हिन्दुओं की अच्छी चीज़ों का मजाक उड़ाया ही जाएगा। कागभुशुंडी जैसे हिन्दुओं में सम्मानित होते हैं, कौवे का बोलना अतिथियों के आने का सूचक होता है या उन्हें श्राद्ध में पितरों का हिस्सा खिलाते हैं तो उनका अपमान जरूरी था। वो रैवेन को अपशकुन बताने लगे। भूत-पिशाचों का वाहक बताकर आपको उस से डराने लगे।
कौवा सर्वभक्षी होता है, पर्यावरण का संतुलन बनाए रखने के लिए उसका होना अच्छा है, लेकिन शहरों से कब गायब होने लगा आपको पता चला क्या? बिलकुल यही अमावस्या में भी दिखेगा। अमावस्या को अमा + वस्या इसलिए कहा जाता है क्योंकि इस दिन सूर्य और चंद्रमा एक ही नक्षत्र में साथ साथ आते हैं। हिन्दुओं के लिए ज्योतिष के हिसाब से ये महत्वपूर्ण तिथि होगी। वो फ़ौरन अमावस्या को फिल्मों, साहित्य के जरिये, अपशकुन का सूचक बताने लगे। आपने अमावस्या को अपशकुन मान भी लिया। ये बिलकुल नहीं सोचा कि अगर अमावस्या बुरी तिथि होती तो हिन्दुओं के सबसे महत्वपूर्ण पर्वों में से एक दीपावली, अमावस्या को ही क्यों मनाई जाती है? ये भी नहीं सोचा कि बुरी तिथि होती तो पुराने बही-खाते इसी दिन कैसे शुरू किये जाते?
थोड़ी और मेहनत करनी हो तो दिमिस्की इस्पात या डेमस्कस स्टील के बारे में सोचिये। ये वो इस्पात होता था जो भारत में ही बनता था। अंग्रेजों के भारत को कब्जाने से पहले इस्पात बनने-बनाने का उनके पास कोई जिक्र नहीं आता। तुलनात्मक रूप से एक विजय स्तम्भ जिसमें जंग नहीं लगती वो तो क़ुतुब मीनार के बगल में ही खड़ा है। भारत से आयातित इस लोहे की तलवारों से जब इसाई और मुहम्मडेन अपना क्रूसेड-जिहाद कर चुके तो उनका ध्यान भारत पर गया। इस्लामिक हमलों के दौर में हथियार बदल चुके थे। वो जब तोपों पर पहुँच गए तो आप तलवारों पर ही अटके थे। वो सीधा राजा पर आत्मघाती हमला करते तो आप नैतिकता के हाथी पर चढ़ कर आसान शिकार बनने पर तुले थे।
अभी भी जब लड़ाई थर्ड जनरेशन वॉर से फोर्थ जनरेशन पर पहुँच गई है तो आप पुराने दौर के हथियार इस्तेमाल करने पर अड़े हैं। वो आपके धर्म ग्रंथों तक का अपनी अपनी भाषाओँ में अनुवाद करवाकर तैयार हैं। आपकी कहानियों पर फ़िल्में बनाकर वो आपसे ही पैसे भी लेते जा रहे हैं। आप हैं कि आपसे एक समूह तक नहीं बनता! जो बना भी है वो तो सेकुलरों से भी ज्यादा गंगा-जामुनी की वकालत करता है। सूचना क्रांति के युग में सूचनाओं के जरिये हमले अब साफ़ साफ़ नजर भी आने लगे हैं, लेकिन नवाब साहब को कोई जूता पहनाये तब तो वो हमलावरों से बचकर भागें! कोई जूता पहनाने वाला है ही नहीं, इसलिए खुद जूते पहनकर या खाली पांव तो नवाब साहब भाग कर आत्मरक्षा भी नहीं कर सकते।
कैंब्रिज एनालिटिका जैसे संस्थान देख लिए, वो कितना खर्च करती है वो भी देख लिया। कठुवा मामले पर वो विश्व भर में आपको आपके सही होने पर भी शर्मिंदा करते हैं। फिर दुसरे मामले में वो खुली बेशर्मी से कहते हैं कि 10-11 साल की बच्ची बदचलन है, वो छत पर घूमती थी, मोबाइल लिए रहती थी। उसकी शादी उसके बलात्कारी से करवा देने की वकालत करने में इस्लामिक जेहादियों को कोई शर्म नहीं आई। नैतिकता के ऊँचे सिंहासन पर आपको आरूढ़ रहना है। जो संगठन हिन्दुओं के हित के लिए सीधा आक्रामक नहीं होते आपको उनका समर्थन भी जारी रखना है। इन्टरनेट से जानकारी ढूंढना सीखने में आपको नानी याद आती है। जानकारी साझा करना भी है ये आपको बताना पड़ता है। डिग्री लेने के बाद किताबें छूने में आपको पाप लग जाता है। किताबें बाँट देने में तो चार पैसे खर्च हो जाते सो आपने किया ही नहीं।
एक मित्र जो अक्सर फ़ोन करते हैं, वो आजकल फ़ोन करते ही किसी ना किसी बात पर कहते हैं “ना हो पायेगा” ! हमें भी लक्षण ठीक नहीं लगते, ना हो पा रहा भइये !!
✍🏻आनन्द कुमार