वाणी जो चुभै तीर सी,
हृदय को जला देय।
धर्मानुरागी को चाहिए,
संयम न खो देय ।। 329।।
वाणी से पहचान हो,
अधम है अथवा महान।
योग्यता की परख हो,
परख्यो जा खानदान ।। 330।।
वाणी में कांटे रमे,
बंधयो अधरों पै काल।
लक्षण सारे अनिष्टï के,
ज्यों मकड़ी का जाल ।। 331।।
ईश्वर की जो विभूतियां,
करते रहो संभाल।
दुरूपयोग कभी मत करो,
छीन लेय तत्काल ।। 332।।
विभूतियां देना-जैसे धन दौलत, शौहरत, रूप, यौवन, ज्ञान-विज्ञान, भक्ति सभी औदार्य गुण इत्यादि।
बदलै तुखम तासीर को,
एक सौबत का संग।
वसन लसै वैसा ही,
जैसा चढ़ जाए रंग ।। 333।।
वसन-वस्त्र, लसै-दिखाई देना
भाग्य भरोसे जो रहे,
सो कायर कहलाय।
पुरूषार्थ संकल्प से,
एक दिन शिखर पै जाए।। 334।।
ज्ञानवान को चाहिए,
स्वयं करे विषय-त्याग।
मन में रहे प्रफुल्लता,
सांई से अनुराग।। 335।।
किए हुए उपकार को,
जो नही करे स्वीकार।
कृतघ्न और कुटिल है,
अधमों में होय शुमार ।। 336।।
बुरे साधनों से मनुष्य,
हो जावै धनवान।
किंतु कुलीनों के संग में,
पाता नही सम्मान ।। 337।।
वांछा करते हैं सभी,
बहुज्ञानी देव लोग।
महाकुलों में जन्म हो,
कुछ ऐसा बनै योग ।। 338।।
पाप कर्म करते नही,
त्यागे नही कभी धर्म।
महाकुलों की विशेषता,
नित करते सत्कर्म ।। 339।।
निदिंत करे विवाह जो,
और मर्यादा का ह्रास।
ऐसे कुल हों नीच कुल,
कोई बिठाए ना पास ।। 340।।
व्रत की जो रक्षा करे,
बेशक वित्त से क्षीण।
ऐसे नर संसार में,
कहलाते हैं कुलीन ।। 341।।
दैवी नावं स्वरित्रामनागसमस्रवन्तीमा रूहेमा स्वस्तये। ऋग्वेद 10/63/10
ऋग्वेद का ऋषि हे मनुष्य, तुझे सावधान करता हुआ कहता है-यह शरीर दैवी नौका है, जिससे दिव्यलोक में पहुंचा जा सकता है। इतना ही नही इस शरीर को वेद ने दैवी वीणा भी कहा है। इसलिए इससे ऐसी स्वर लहरियां निकलनी चाहिए जिनसे आपका यश ध्वनित हो अपयश नहीं। क्रमश: