इसलाम और जीव दया-1
गतांक से आगे…
उक्त पशु की कुरबानी होगी, यह तो एक वास्तविकता है, लेकिन उसे जिन रास्तों से गुजरना पड़ता है उसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। एक ट्रक में कितने बकरे, भेड़ अथवा गऊ वंश ले जाए जा सकते हैं, उनके लिए सरकार ने नियम बनाए हैं। लेकिन यदि आप किसी ट्रक को देखें तो इन जानवरों को जिस ढंग से ठूंस ठूंसकर भरा जाता है, उसकी कोई कल्पना भी नही कर सकता। जो जानवर नीचे गिर जाते हैं, उनका अपने साथ जा रहे अन्य जानवरों से कुचल जाना स्वाभाविक है। उन्हें रास्ते में ठीक से न तो खाने को दिया जाता है और न ही पीने को पानी। मुंबई जैसे महानगरों में जब उनको लेकर जाते हैं तो देवनार बूचड़खाने के शेड में पर्याप्त स्थान नही होता। इसलिए यहां भी उन्हें खाना पीना तो बहुत दूर, सांस लेने के लिए हवा मिलना भी कठिन होता है। उनमें कितने बीमार पड़ जाते हैं, यह तो केवल पशु चिकित्सक और उसका मालिक ही जानता है। पशु लाने वालों को पग पग पर रिश्वत देनी पड़ती है। यदि ऐसा न करें तो उनके माल का बिकना कठिन हो जाए। शरीअत के आदेशानुसार कुरबानी के जानवर का हर अंग सलामत होना चाहिए और वह बिलकुल स्वस्थ होना चाहिए। सैकड़ों मील दूर से आए ये जानवर कितने स्वस्थ होंगे, इसका अनुमान करना बहुत कठिन नही है। गऊ वंश, जिसे ट्रक के साथ साथ पैदल लेकर आते हैं, वे थक जाते हैं। कभी कभी तो गिर जाने से घायल हो जाते हैं, लेकिन इन मूक पशुओं की ओर किसी का ध्यान नही जाता। रास्ते में उनके खाने पीने की व्यवस्था इतनी बदतर हो जाती है कि उन्हें देखकर ही दया आने लगती है। रास्ते में कितने पशु मर जाते हैं, क्या इसकी जानकारी भारत सरकार ने कभी एकत्रित की है? पशु चिकित्सक इसके लिए कितने उत्तरदायी हैं, यह भी एक विचारणीय प्रश्न है। घोड़े के खुर पर नाल लगाने के लिए पशु प्रेमी आवाज बुलंद करते हैं, लेकिन नाक में डाली गयी रस्सी से जिस प्रकार गाय, बैल, भैंस, पाड़े और ऊंट घसीटे जाते हैं, उन पर कभी किसी ने दया दिखाई है?
बकरा ईद के पशु मेले में इन पशुओं के बेचे जाने और ऊंचे दाम वसूल करने के भी अनेक तरीके हैं। इनमें बकरे बेचने के मामले में तो ऐसे किस्से सुनने को मिलते हैं कि लोग दंग रह जाते हैं। मुंबई में राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र से बड़ी संख्या में बकरे आते हैं। इनमें जोधपुर डिवीजन सबसे आगे है। मध्य प्रदेश में ग्वालियर डिवीजन और उत्तर प्रदेश में मुरादाबाद, संभल, मेरठ का माल बड़े पैमाने पर आता है। पश्चिमी बिहार का माल मुंबई पहुंचता है, जबकि पूर्वी बिहार वाले अपने माल के साथ कलकत्ता पहुंचते हैं। गऊ वंश बड़े पैमाने पर बंगाल में लाया जाता है। बकरा ईद के अवसर पर औसतन साढ़े सात हजार करोड़ का व्यापार अकेला मुंबई करता है। हरियाणा और पंजाब तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश का माल दिल्ली के बूचड़खानों में पहुंचता है। कुरबानी के बाद इन पशुओं के चमड़े को मदरसे और अनाथालयों में दे दिया जाता है। इन खालों की आय से अनेक मदरसे चलते हैं। बकरा ईद से पहले मुसलिम में इन पशुओं की खाल की मांग करने वाली सार्वजनिक बकरा ईद आने से पूर्व ही अपने बैनर लगा देती है। पाकिस्तान में इन खालों की आय होने वाली घोटाले के समाचार हमेशा पढ़ने को मिलते हैं। हलाल जानवरों की खाल से बनी वस्तुएं उनके जूते और अन्य वस्तुओं के उपयोग के इसलाम में जायज ठहराया गया है, लेकिन पैगंबर साहब ने जंगली जानवरों का उपयोग करने के लिए जमीन पर बिछाकर बैठने के लिए भी इनकार करते थे। यानी उनके आदेश में अहिंसा मर्यादित रूप में ही सही, वह प्रदर्शित तो अवश्य होती है। जंगली जानवरों को उनकी सुंदर खाल और उनके अन्य अवयवों के लिए जिस प्रकार से मारा जाता है, इसलाम उसकी तीव्र भर्त्सना करता है। बकरा ईद के अवसर पर काटे गये बकरों की खाल से बच्चों की शिक्षा हो, कितना विवेकपूर्ण है, यह आत्ममंथन करने की आवश्यकता है।
क्रमश: