भारतीय ज्ञान—परंपरा में शिक्षा शब्द और उस का व्यापक अर्थ पांच हजार वर्षों से स्थापित है
शंकर शरण
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)
सरकार के एक सब से महत्वपूर्ण मंत्रालय द्वारा अपना बिगड़ा नाम कोरोना काल में सुधारने में एक तुक है। कोरोना ने पूरी दुनिया को याद दिलाया कि अर्थव्यवस्था से बड़ी चीज जीवन और प्रकृति के नियम है। यह बुनियादी सत्या खो गया है। मानव अर्थव्यवस्था का संसाधन बना डाला गया। फलत: शिक्षा का मूल अर्थ बिगड़ कर नौकरी—दोड़ में शामिल होने का प्रमाण—पत्र पाना बन गया।
अत: उस कुरूप नाम मानव संसाधन को बदल कर पुन: शिक्षा करने के लिए शिक्षा मंत्री श्री रमेश पोखरियाल निशंक धन्यवाद के पात्र है स्वयं लेखक होने के कारण वे इस सांकेतिक परिवर्तन की गंभीरता समझते है। पश्चिम में नाम सामान्य चीज है, किन्तु भारतीय परंपरा में नामकरण एक महत्वपूर्ण संस्कार होता है। समझा जाता है कि नाम से नामित के भविष्य और भूमिका का संबंध है। इसलिए, अब स्वभाविक आशा है कि शिक्षा के नाम के साथ इस के भाव की भी वापसी हो। यदि इस दिशा में दो—चार कदम भी उठाए जा सके, तो यह मोदी सरकार का सब से दूरगामी देश हितकारी काम होगा!
यद्यपि यह इस पर निर्भर करेगा कि यह परिवर्तन किस भावना में किया गया है? बहुतों को जानकर आश्चर्य होगा कि स्वतंत्र भारत में शिक्षा नी बनी सब से पहली डॉ. राधाकृष्णन समिति (1984) ने अपनी ठोस अनुशंसा में धर्म के अध्ययन को उच शिक्षा में महत्वपूर्ण स्थान दिया था। उस की रूप—रेखा तक दी थी। शिक्षा के उद्देश्य पर अपनी चार प्रमुख अनुशंसाओं में एक छात्रों का आध्यात्मिक विकास भी जोड़ा था। तब वह सब कहां खो गया? यह एक गंभीर प्रश्न है, जो यहां तमाम शिक्षा आयोगों, समितियों की दुखद कहानी कहता है।
उस प्रश्न का उत्तर यही हो सकता है समिति की अनुशंसाओं को लागू करने वाले गंभीर या योग्य नहीं थे। उन्होंने उन बिन्दुओं का महत्व नहीं समझा। सो अच्छी—अच्छी अनुशंसाएं कागजों में धरी रह गई। यह पिछली राजीव गांधी की शिक्षा नीति (1986) के साथ भी देख सकते हैं। उस में राष्ट्रीय कैडेट कोर (एन.सी.सी.) तथा मूल्यों की शिक्षा स्कूली शिक्षा का अंग था। किन्तु जब पाठ्यचर्या के दस्तावेज बने, तो इसका उल्लेख तक गायब हो गया! लागू करना तो दूर रहा।
यह दु:खद कहानी 1948 से चल रही है। सच्चे ज्ञानी (यदि वे शिक्षा समिति में हुए, क्योंकि समितियों में वैसे लोगों को रखना भी क्रमश: बंद हो गया ) मूल्यवान अनुशंसाए देते रहे। लेकिन उन्हें लागू करने वाले मनमर्जी करते रहे। फिर, 1970 के दशक से तो वामपंथी एक्टिविस्टों ने शैक्षिक नीति—अनुपालन तंत्र में अपना अड्डा जमा लिया। तब से शिक्षा काफी कुछ उन की राजनीति का औजार भर बनती चली गयी।
इसीलिए, प्रश्न है कि क्या नाम के साथ शिक्षा के अर्थ की भी घर— वापसी होगी? उत्तर इस पर है कि हमारे कर्णधार इस के प्रति कितने गंभीर हैं। जैसा हम ने ऊपर देखा, किसी नीति की सफलता दस्तावेज में लिखे शब्दों पर नहीं, बल्कि मुख्यत: इस पर निर्भर होती है कि उस का निरूपण किस भावना में किया गया है? यदि भावना सच्ची है तो रास्ते मिल जाएंगे। न केवल शिक्षा का अर्थ पुन: स्थापित होगा, बल्कि भारतीय भाषाओं में शिक्षा का उत्तम प्रबंध हो सकेगा, जो इस शिक्षा नीति की सबसे महत्वपूर्ण संभावना है।
भारतीय अर्थ में शिक्षा पश्चिम के एजुकेश्न से भिन्न है। पश्चिम में यह शब्द ही 16वीं शताब्दी में बना। जहां इस का अर्थ है, सीखकर कोई जानकारी या हुनर प्राप्त करना, तर्क क्षमता प्राप्त करना, जीवन के लिए बौद्धिक रूप से तैयार होना, आदि। किन्तु भारतीय ज्ञान—परंपरा में शिक्षा शब्द और उस का व्यापक अर्थ पांच हजार वर्षों से स्थापित है। इसलिए भी आश्चर्य है कि इतनी मूल्यवान धारणा यहां हालिया दशकों में त्याज्य मान ली गई। अर्थव्यवस्था के लिए संसाधन अधिक महत्वपूर्ण हो गए। फलत: दूसरों के विचार रट लेने, अपने मस्तिष्क में भर लेने कुछ सर्टिफिकेट पा लेने और अफसर, इंजीरियर, बन सकने की ओर बढऩे का उपाय भर कर के हमारे बचे मानव संसाधन बनते रहे है। लेकिन
भारतीय अर्थ में यह सब शिक्षा नहीं है। शिक्षा है मनुष्य की अंतनिंहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना।
स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा का उद्देश्य बताया था कि जो बचों में चरित्र—शक्ति का विकास, भूत—दया का भाव, और सिंह का साहस पैदा करे। अर्थात् उस में मौजूद तत्वम् असि की भावना जागृत करे। इस प्रकार, मनुष्य के लिए विद्या, बल, धन, यश,और पुण्य यह सब अभीष्ट है। इस के संतुलन की अवहेलना करने से व्यक्ति और मानवजाति भ्रष्ट हो जाती है। इसीलिए भारतीय परंपरा में आशीर्वचनों में प्रसन्न रहे, चिरंजीवी होओ जैसी बातें कही जाती है। न कि धनी बानो, आदि। रोजगार, आदि अन्य कर्म मनुष्य की प्रसन्नता से नीचे है, ऊपर नहीं।
कुछ लोग इस बातों के आदर्शवादी समझ कर रोजगार को सर्वोपरि मानते है। वे भूल जाते है कि रोजगार मानव के साथ सदैव रहा है। सभी ज्ञानी और शिक्षाविद इस की आवश्यकता और स्थान से सुपरिचित थे। मनुष्य के लिए रोजगार महत्वपूर्ण है; किन्तु दूसरे स्थान पर। जीवन—बसर तो पशु—पक्षी भी करते है, बिना कोई स्कूल गए। तब मनुष्य होने की विशेषता क्या हुई! वह विशेष तत्व न भूलना ही शिक्षा है। जानकारी से अधिक एकाग्रता, विचार—शक्ति महत्वपूर्ण है।
व्यवहार में भी, स्कूल कॉलेज, आदि से निकलने के बाद जीवन में डिग्रियों से अधिक योग्यता, चरित्र, और हुनर काम आता है। कोई कैसे खड़ा होता, बोलता, सुनता, व्यवहार करता, सोचता—विचारता है तथा विभिन्न,स्थितियों का सामना करता है— यही शिक्षित—अशिक्षित का अंतर है। यूरोप में भी बेल—एजुकेटेड उसे कहते हैं जिस ने महान साहित्य का अध्ययन किया हो। जो प्लेटो, शेक्सपीयर, गेटे, टॉल्सटॉय, आदि को कुछ निकट से जानता हो।
वह अर्थ भी कम से कम हम अपनी शिक्षा में वापस ला सकें, तो नई पीढियों का महान उपकार होगा। वे वाल्मीकि, वेद व्यास, पातंजलि,कालिदास, शंकराचार्य, टैगोर, श्री अरविन्द, निराला, अज्ञेय, जैसी अनन्य विभूतियों में कुछ से स्वयं परिचित हों। उस से देश का भी भला होगा। इस अर्थ में भी नई शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं को माध्यम बनाने की महत्ता बनती है। उस के अभाव में ही हमारे युवा उस महान ज्ञान—परंपरा से ही कट गए है, जो आज भी विश्व में भारत की सब से बड़ी पहचान है। कम लोग जानते है कि पश्चिम को निर्यात होने वाली भारतीय पुस्तकों में सब से बड़ा हिस्सा उन क्लासिक ज्ञान—ग्रंथों का है जो संस्कृत व भारतीय भाषाओं में है। उन का मूल्य पश्चिमी जानकार समझते हैं, जबकि हम स्वयं उसकी उपेक्षा करते रहे हैं! ऐसा इसलिए भी संभव हुआ क्योंकि भारतीय भाषाओं को शिक्षा—माध्यम से हटा दिया गया।
फलत: भारतीय बचे न केवल अपने महान साहित्य, बल्कि अपनी संस्कृति से ही से कटते चले गए। यह धीरे—धीरे भारत के ही लुप्त हो जाने का मार्ग है, सावधान! बचों की भाषा छीनने, उन की शिक्षा गिराने, उन्हें अर्थव्यवस्था का संसाधन बनाने, आदि का दुष्परिणाम हमें समझ सकना चाहिए। इस दृष्टि से भी, भारतीय भाषाओं को पुन: स्थान देने का विचार अत्यंत महत्वपूर्ण है।
आरंभिक कदम के रूप में अपने भाषा—साहित्य से बचों को स्वेछा से जोड़ा जा सके, तो यही बहुत बड़ी बात होगी। उन्हें अपनी भाषा अछी तरह आए। शुद्ध, सुन्दर, साहित्यिक। यह उस भाषा का महान साहित्य पढऩे की रुचि पैदा करने से स्वत: हो जाएगा। साथ ही, संस्कृत पढऩे—समझने की कुछ योग्यता। यह सब किसी बाध्यता से कराने की जरूरत नहीं। केवल प्रेरित,प्रोत्साहित करके करना उचित होगा। भारतीय ज्ञान—परंपरा के सर्वोत्तम साहित्य सुंदर रूपों में सुलभ हों। उस से बचों को जोड़ दिया जाए। इस के बाद नई पीढ़ी के प्रतिभावान आगे का मार्ग स्वयं ढूंढ निकालेगे; हमारा कर्तव्य है, उन्हें शिक्षा की नींव, उन की भाषा उन्हें दे देना। आगे वे गंतव्य स्वयं पाने में समर्थ होंगे, यह हमें विश्वास करना चाहिए।
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