चरित्र निर्माण में दण्ड की अहम भूमिका
प्रो. लल्लन प्रसाद
कहा जाता है कि प्रजातंत्र में जैसे लोग होते हैं, वैसा ही उन्हें राजा मिलता है। परंतु यह बात आंशिक रूप से ही सही है। भारतीय राजनीतिशास्त्रकारों के अनुसार चाहे राजतंत्र हो या प्रजातंत्र, जैसा राजा होता है,
वैसी ही प्रजा होती है। यही कारण है कि सभी भारतीय राजनीतिशास्त्री इस बात पर एकमत हैं कि राजा को चरित्रवान और इंद्रियजयी होना चाहिए। चरित्र निर्माण को ही वे राष्ट्र निर्माण मानते हैं।
कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार राज्य चार खम्भों पर स्थिर रहता है – धर्म, व्यवहार, चरित्र एवं राजाज्ञा। ये चारों स्तम्भ राजा और प्रजा दोनों के रक्षक हैं। राजा को धर्मप्रवर्तक माना गया है, उसके उन्नतिशील होने पर ही प्रजा उन्नतिशील होती है। धर्मपूर्वक शासन करना ही राजा जोकि आज के भारतीय गणतन्त्र में प्रधानमंत्री है, का निजी धर्म कहा गया है, वही उसे स्वर्ग ले जाता है। प्रजा का सुख उसकी प्राथमिकता होनी चाहिये न कि अपना स्वार्थ। प्रजा के सुख में ही उसका सुख निहित है। कौटिल्य लिखते हैं – प्रजा सुखे सुखं राज:। प्रजा के सुख में ही राजा का सुख है। जो राजा प्रजा को दु:ख देता है, उसकी रक्षा नहीं करता, वह कभी सुखी नहीं हो सकता। राजा का व्यवहार प्रजा देखती है और उसका अनुसरण करती है। इसलिये राजा को उद्योगशील होना चाहिये। व्यवहार सम्बन्धी तथा राज्य सम्बन्धी कार्यों को उचित रीति से करना चाहिये। राजा यदि उद्योगशील नहीं हुआ और न्यायकर्ता नहीं हुआ तो जो कुछ उसे प्राप्त हुआ है और जो प्राप्त होने वाला है, उन दोनों का ही नाश हो जाता है। कौटिल्य कहते हैं कि राजा का चरित्र अनुकरणीय होना चाहिये। इसलिए उसे अपने इंद्रियों को वश में रखना चाहिये। काम, क्रोध, मद, मोह और लोभ के वशीभूत न होकर उन पर नियन्त्रण रखते हुए प्रजा हित में शासन चलाना चाहिये। इन्द्रियजयी राजा ही विजयी होता है, राज्यस्य मूलम् इन्द्रिय जय:। राजा के चरित्र के जो गुण कौटिल्य ने सुझाये है, उनमें प्रमुख हैं – अच्छे कुल में उत्पन्न, सद्बुद्धि, बलवान, धार्मिक, सत्यवादी, तत्त्वज्ञाता कृतज्ञ, उच्चादर्शयुक्त, उत्साही, दृढ़निश्चयी आदि। इसके अतिरिक्त शास्त्रों के अनुसार आचरण, संयम और तर्क वितर्क द्वारा सच्चाई तक पहुंचने की भी क्षमता उसमें होनी चाहिये। धर्म, अर्थ और काम, इन तीनों में से किसी एक का अधिक सेवन करने से राजा को बचना चाहिये। परस्त्रीगमन यानी पत्नी के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों से अवैध संबंध रखना, परधन यानी अनीति से मिलने वाला दूसरे का धन और हिंसा राजा के लिये वर्जित माना गया है। इतने सारे गुण एक व्यक्ति में हों, यह सम्भव नहीं लगता। किन्तु विशाल साम्राज्य बनाने की परिकल्पना जिसमें हो, उसमें अधिक से अधिक गुणों का समन्वय आवश्यक है। ऐसे अतुल बल तथा वैभव से युक्त शासक के सामने राष्ट्रद्रोही लोग सिर उठाने की हिम्मत नहीं कर सकते।
दंड और कल्याणकारी राज्य
कौटिल्य के मत के अनुसार आवश्यकता पडऩे पर राजा निरंकुश भी हो सकता है, किन्तु सभी परिस्थितियों में लोक कल्याण ही उसका मुख्य उद्देश्य होना चाहिये। यानी उसकी निरंकुशता भी प्रजा के हित में होनी चाहिए, उसके अथवा उसके परिवार स्वहित में नहीं। राजाज्ञा न्यायपूर्ण एवं कल्याणकारी होनी चाहिये। राजाज्ञा का पालन प्रजा का धर्म है, इसका उल्लंघन दण्डनीय है। शासन चलाने के लिए दण्ड की व्यवस्था की अनिवार्यता को जितनी सूक्ष्मता से कौटिल्य ने प्रस्तुत किया है, उतना अन्य किसी और ने नहीं। अर्थशास्त्र में तीन तरह के दण्ड का विधान है – अर्थदण्ड, शरीर दण्ड और कारागार दण्ड। जैसा अपराध हो वैसा और उतना ही दण्ड न कम न ज्यादा। अपराध की परिस्थितियों पर ध्यान रखकर दण्ड दिया जाय। आज शरीर दण्ड लागू नहीं है। केवल अर्थदण्ड और कारागार का दण्ड ही दिया जाता है। परंतु कौटिल्य शरीर दण्ड को भी आवश्यक मानते हैं। कौटिल्य ने कानून के आगे सबको बराबर मानने का सिद्धान्त भी प्रतिपादित किया है। कौटिल्य यह सुनिश्चित करते हैं कि राजा का बेटा भी अपराध करे तो उसे भी वही दण्ड दिया जाय जो आम प्रजा को दिया जाता है।
राजा के आमात्यों और मन्त्रियों के चरित्र भी सन्देह से परे होने चाहिये। आमात्यों की नियुक्ति विद्या, बुद्धि, साहस, गुण, दोष, देश, काल और पात्रता का विचार करके ही करना चाहिये। मंत्रियों की नियुक्ति से पूर्व राजा को उनके बारे में पूरी जानकारी ले लेनी चाहिये जिनमें प्रमुख है उनकी योग्यता, सत्यवादिता, आर्थिक स्थिति, बुद्धि, स्मृति, चतुराई, वाक्पटुता, प्रतिभा, व्यवहार में पवित्रता, स्वामीभक्ति आदि। गुप्त उपायों द्वारा भी अमात्यों ओर मन्त्रियों के आचरण की परीक्षा का प्रावधान अर्थशास्त्र में है। किन्तु कौटिल्य सावधान करते हैं कि परीक्षा का माध्यम राजा स्वयं और रानी को कभी न बनाये। बाह्य माध्यमों और गुप्तचरों द्वारा ही मंत्रियों के चरित्र की परीक्षा की जाये। सरकारी आधिकारियों और कर्मचारियों के अचरण पर राज्य की निगरानी का विशद वर्णन अर्थशास्त्र में है। अधिकारी जिन कारणों से सरकारी धन की वृद्धि में हानिकर हो सकते है, उनमें प्रमुख है, अज्ञान, आलस्य, प्रमाद, काम, क्रोध, दर्प और लोभ। ये सब धनोत्पादन में विघ्न डालने वाले दोष माने गये हैं। अर्थशास्त्र में ऐसे चालीस प्रकार के उपायों का विवरण गया है जिनके द्वारा अधिकारी राजद्रव्य का दुरुपयोग और अपहरण कर सकते हैं। इन्हें हम आज की भाषा में भ्रष्टाचार के प्रकार कह सकते हैं। इन उपायों में, एक मद में प्राप्त रकम दूसरे में दिखा देना, राजकर को रिश्चत लेकर छोड़ देना, प्राप्त धन को अधूरा लिखना, एक से धन लेकर दूसरे के खाते में डाल देना, थोड़ा देकर बहुत लिख देना, राज्य की बहुमूल्य वस्तु को कम मूल्य का दिखा देना, बाजार में वस्तुओं की कीमत बढ़वा देना, स्वीकृत धन में से कुछ स्वयं रख लेना, कुटिल उपायों से अतिरिक्त धन वसूल करना आदि सम्मिलित है।
अधिकारियों द्वारा सरकारी धन के दुरुपयोग और गबन की कौटिल्य ने सुन्दर मनोवैज्ञानिक व्याख्या की है। जैसे जीभ में रखे हुए शहद या विष का स्वाद लिये बिना रहा नहीं जा सकता, उसी प्रकार अर्थाधिकार कार्यों पर नियुक्त अधिकारी अर्थ का थोड़ा भी स्वाद न ले, यह असंभव है।
कौटिल्य कहते हैं कि इसलिये राजा को चाहिये कि अपने अधिकारियों पर बराबर नजर रखे। इसके लिये गुप्तचरों की व्यवस्था भी करे। जो अधिकारी ईमानदारी से अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हैं, उनको प्रोत्साहित और पुरस्कृत करना चाहिये। किन्तु जिनका आचरण इसके विपरीत पाया जाए उनके लिये अर्थशास्त्र में कड़े दण्ड का विधान है।
प्रमाद एवं आलस्य के कारण नियमित आय में कमी दिखाने वाले अधिकारी को अपराध के अनुसार दुगना, तिगुना तक दण्ड दिया जाने का विधान अर्थशास्त्र में है। जो अधिकारी राज्य की नियमित आय से दुगुनी आय दिखाता है, वह प्रजा को पीडि़त करके ऐसा करता है। यह भी दण्डनीय है। यदि वह कर में प्राप्त अधिक धन को राजकोष में जमा न कर स्वयं खा जाता है तो उसके लिए कठोर दण्ड का प्रावधान है। जो अधिकारी यथानिमित्त निर्धारित धन राशि को खर्च न करके बचा देता है, वह मजदूरों का पेट काटता है। कार्य हानि के मूल्य और मजदूरी के हरण के आधार पर उसे दण्डित किया जाना चाहिये। सभी अधिकारियों के लिये यह आवश्यक होना चाहिये कि वे अपने कार्यों और तत्सम्बन्धी आय का सही विवरण राज्य को दें। सरकारी अधिकारी जो राज्य धन का अपहरण करता पकड़ा जाय उसकी सारी सम्पति छीनने और पदव्युक्त करने का प्रावधान अर्थशास्त्र में है। सच्चरित्र
अध्यक्षों को सम्मानपूर्वक उच्च पद पर रखने के लिए कहा गया है:
न भक्षयन्ति त्वर्थान न्यायता वर्धयन्ति च। नित्याधिकारा: कार्यास्ते राज्ञ: प्रिय हिते रता:।।
राष्ट्र की उन्नति के लिए जैसे शासनाध्यक्ष, मन्त्रिपरिषद, अधिकारियों और कर्मचारियों का चरित्रवान होना अनिवार्य है, वैसे ही प्रजाजनों का चरित्रवान होना भी आवश्यक माना गया है। समाज के सभी वर्गों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे सत्यनिष्ठा से अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करें। सही दाम पर सही चीज देना, सामान के गुणवत्ता की खरीददार को सही जानकारी देना, माप तौल ठीक से करना, मिलावट न करना, आपस में मिलकर चीजों के दाम न बढ़ाने, सामान दबाकर न रखना यानी कालाबाजारी न करना आदि व्यापारी के अच्छे चरित्र के द्योतक हैं। जो व्यापारी इसके विरुद्ध आचरण करते हैं, उनके लिये अर्थशास्त्र में दण्ड का विधान है। जो व्यापारी अधिक वजन के तराजू बाट से माल खरीदकर हलके तौल से बेचें, उसको दुगुना दण्ड दिया जाय जो 24 पण होगा।
व्यापारी यदि गिनकर बेची जाने वाली चीजों में आठवां हिस्सा चुरा ले तो उस पर 96 पण का जुर्माना लगा दिया जाय। जो व्यवसायी लोहा, मणि, चमड़ा, सूत, ऊन, से बने घटिया माल को बढिय़ा कह कर बेचता है, उसपर वस्तु की कीमत का आठ गुना जुरमाना लगाया जाय। बनावटी वस्तु को असली कहकर, अच्छा माल दिखाकर रद्दी माल की पेटी देने वाले को 54 पण दण्ड दिया जाना चाहिये। कारीगर आर्डर के अनुसार माल न बनाकर घटिया माल बनाए अथवा दुगनी मजदूरी ले, उसे भी दण्डित किया जाय। जो व्यापारी आपस में गठबन्धन कर किसी वस्तु को बेचने से रोकें या निर्धारित से अधिक मूल्य पर बेचें, उनपर एक एक हजार पण जुर्माना वसूल किया जाय। इसे ही आज कालाबाजारी कहते हैं। कारीगरों, शिल्पियों, सेवाकर्मियों के अच्छे चरित्र के द्योतक हैं – समय पर माल/सेवा उपलब्ध कराना, जानबूझकर काम न बिगाडऩा, अधिक छीजन न निकालना, काम के अनुसार मजदूरी लेना, चोरी न करना, झूठ न बोलना आदि। इसके विपरीति आचरण करने वालों के लिये दण्ड की व्यवस्था है। दण्ड की इस व्यवस्था को अर्थशास्त्र में कंटकशोधन की संज्ञा दी गई है। भ्रष्टाचार के इन कार्यों से प्रजा को जो कष्ट होता है यानी कांटा चुभता है, उसका निवारण सरकार को करना चाहिये। इसके लिये ही दण्ड की व्यवस्था है। कंटकशोधन यानी भ्रष्टाचारियों को दण्डित करने का काम सरकार द्वारा नियुक्त प्रदेष्टा आज की भाषा में कमिश्नर या मन्त्री करें। भ्रष्टाचार के विभिन्न प्रकरणों में चाणक्य निम्नानुसार दंड की व्यवस्था करते हैं।
जो शिल्पी ठीक समय पर काम पर हाजिर न हों, उनका चौथाई वेतन काट लिया जाय और उस पर दो गुना जुर्माना किया जाय। यदि कारीगर जानबूझकर काम बिगाड़े ले उस पर वेतन का दुगुना जुर्माना लगाया जाय। जुलाहा यदि अधिक छीजन जिसे आज की भाषा में वेस्टेज कहते हैं, निकाले तो उस पर छीजन का दोगुना जुर्माना लगाया जाय। इस सिद्धांत को प्रिंटिंग उद्योग पर लागू किया जा सकता है, जिसमें वेस्टेज के रूप में कागज निकलता है। जितने नाप का कपड़ा बुनने को दिया जाय, उतना न बुने तो कम बुनाई का दो गुना जुर्माना वसूल किया जाय। धोबी असावधानी से धोये और कपड़ा फट जाये तो उसे दण्ड रूप में छह पण देना पड़े, समय से कपड़े धोकर वापस न करने पर भी वह दण्ड का भागी होता है।
सुनार यदि सोने चांदी के गहने चोरों से खरीदे तो उस पर 49 दण्ड का जुर्माना लगाया जाय। यदि वह गहने बनाने में एक माषा सोना चुरा ले तो उससे दो सौ पण जुर्माना वसूल किया जाय। सिक्कों का पारखी खरे नग को खोटा या खोटे पण यानी सिक्के को खरा बताए तो उसपर बारह पण का जुर्माना लगाया जाय। वैद्य द्वारा चिकित्सा में सावधानी बरतना आवश्यक माना गया है। यदि उसकी गलती से मरीज का कोई अंग कट जाता है या उसकी मृत्यु हो जाती है तो वह यथोचित दण्ड का भागी होता है। आज अस्पताल पहले से ही लिखवा कर ले लेते हैं कि उनकी चिकित्सा की वे कोई गारंटी नहीं लेते और यदि शल्यचिकित्सा के दौरान रोगी मर जाए, तो इसका जिम्मेदार वह स्वयं होगा। चाणक्य ने इसमें भी चिकित्सक की जिम्मेदारी निश्चित की है। इस प्रकार हम पाते हैं कि चाणक्य की व्यवस्थाएं अधिक लोकहितकारी रही हैं। कण्टक शोधन की यह व्यवस्था व्यापारियों, शिल्पियों कारीगरों, सेवा कर्मियों के शोषण से प्रजा की रक्षा के लिये लिया गया था।
सामान्य व्यवहार और दण्ड
दैनंदिन के जीवन में लोग अभद्र, अनैतिक और अरुचिकर व्यवहार न करें, इसके लिए भी अर्थशास्त्र में व्यवस्था की गयी है। किसी को अनावश्यक छूना, पीटना या हाथ उठना और चोट पहुंचाना, दंडपारूष्य यानी दण्डनीय माना गया है। किसी पर कीचड़ राख और धूल डालना, अपने से बड़े या छोटे के साथ दुव्र्यवहार करना, दूसरों की स्त्री से छेड़छाड़ करना, जबरदस्ती किसी को पकडऩा, कालिख पोतना घसीटना, कांटा चुभाना, लोहा, लकड़ी, पत्थर आदि से हमला करना आदि व्यवहार अपराध की श्रेणी में माने गये हैं और उनके लिए दण्ड निधारित किये गये हैं।
उल्लेखनीय है कि आज भी इनमें से अनेक घटनाएं दण्डनीय हैं, परंतु अनेक व्यवहार अदण्डनीय हैं। यह कौटिल्य की सूक्ष्म दृष्टि को प्रकट करता है। कौटिल्य के अनुसार अपकारी यानी गलत व्यवहार करने वाले व्यक्ति को कभी भी अदण्डित नहीं छोडऩा चाहिए। इस प्रकार की दण्ड व्यवस्था से ही समाज का चरित्र निर्माण होता है और इससे एक दृढ़ राष्ट्र का निर्माण होता है।