महिलाओं की स्वतंत्रता , उचित या अनुचित
बजरंग मुनि
(लेखक राजनीतिक चिंतक हैं।)
समाज में शराफत और धूर्तता के बीच हमेशा ही टकराव रहा है। शरीफ लोगो की औसत संख्या अट्ठानवें प्रतिशत और अपराधी धूर्तो की दो प्रतिषत के आस पास होती है। ये दो प्रतिशत लोग स्वयं को सुरक्षित बनाये रखने के लिए वर्ग निर्माण का सहारा करते है। यह वर्ग निर्माण ऐसे तत्वों को छिपने के भी अवसर प्रदान करता है और अट्ठानवें प्रतिशत लोगो को कई वर्गाे में बांटकर उनमे आपसी वर्ग संधर्ष कराने के भी अवसर पैदा करता है। अपराधियों की यह चालाकी हजारों वर्षों से चली आ रही है और आज तो और भी तीव्र गाति से बढ़ रही है भले ही उसका स्वरूप कुछ बदल गया हो।
समाज के प्राकृतिक स्वरूप में महिलाओं की आबादी लगभग पचास प्रतिशत मानी जाती है। समाज विस्तार के लिए महिला और पुरुष की जीवन सहभागिता अनिवार्य होती है जिसे परिवार कहते हैं। इस प्रकार व्यक्ति और समाज के बीच परिवार एक अनिवार्य कड़ी के रूप में हैं जिसे व्यवस्था से बाहर करना संभव नही। व्यवस्था के तीन अंग होते हुए भी यह आवश्यक है कि तीनों का अपना-अपना अस्तित्व भी बना रहे और तीनों का सामूहिक अस्तित्व भी। यही एक जटिल कार्य है जिसे व्यवस्था कहते है और वह व्यवस्था तोड़कर वर्ग निर्माण करने का अपराधियों का प्रयत्न हमेशा जारी रहता है।
महिलाओं की शारीरिक संरचना और पारिवारिक पृष्ठभूमि के आधार पर स्वाभाविक कार्य विभाजन में व्यवस्था में पुरुष की भूमिका मुखिया की रही है। धूर्तो ने इस मुखिया की भूमिका को मालिक की भूमिका मे बदलकर महिलाओं को एक गुलाम वर्ग के रूप में स्थापित किया। महिलाओं के समान अधिकारों में कटौती की गई। कार्य विभाजन में भी कही भी महिलाओं के साथ असमानता नहीं थी लेकिन अधिकार विभाजन में पुरुष ने भेदभाव शुरू कर दिया। परिवार मे सम्पत्ति का विभाजन इस प्रकार किया गया कि उसमे से महिलाओं को बिल्कुल बाहर कर दिया जावे। सबसे सरल और और स्वाभाविक सम्पत्ति विभाजन परिवार के प्रत्येक सदस्य का सम्पत्ति में समान अधिकार होता। किन्तु उसे बहुत जटिल बनाकर पुरुषों ने अपना एकाधिकार बनाने का प्रयत्न किया। इस्लामिक समाज व्यवस्था ने तो इससे भी आगे बढकर महिलाओं की गवाही को ही पुरुषों से आधे महत्व की मान लिया और रही सही कसर तलाक के एक पक्षीय पुरुष अधिकार ने पूरी कर दी। पुरुषों ने अधिकार विभाजन मे अपने को एक वर्ग के रूप में स्थापित करने का पूरा प्रयत्न किया।
इसके धातक परिणाम होने ही थे। पुरुष और महिला दो वर्ग के रूप में स्थापित होने लगे। दोनो के बीच शोषक और शोषित की पहचान बनने लगी। महिलाओं मंे हीन भाव और पुरुषांे मे उच्च भाव बढा। ऐसे समय मंे समाज के शुभचिन्तकों ने महिला पुरुष समानता की आवाज उठाई जो स्वाभाविक भी थी और उचित भी। इस समान अधिकार के लिए समाज में सोच भी बढनी शुरू हुई थी। स्वामी दयानन्द, महात्मा गांधी आदि ने पुरुषों की सोच बदलने का प्रयास किया जिसके अच्छे परिणाम आने शुरू हुए। अपराधी तत्वों को चिन्ता हुई। उन्होंने समाज अधिकार के लिए सामाजिक प्रयत्नों में सहयोग के विपरीत महिलाओं को विशेष अधिकार दिलाने का आंदोलन शुरू किया। महिलाओं को संगठित किया जाने लगा। महिलाओं को पुरुषों के विरूद्ध वर्ग के रूप में जागरूक किया जाने लगा। महिला जागृति आंदोलनों से महिलाओं पर पुरूषों का अत्याचार कम हुआ। किन्तु समाज व्यवस्था भी कमजोर हुई और परिवार व्यवस्था भी। सबसे बड़ा खतरा यह पैदा हुआ कि समाज व्यवस्था में राजनीतिक व्यवस्था का हस्तक्षेप बढ़ने लगा और बढ़ते-बढ़ते उसने एक समस्या का रूप ले लिया।
राजनैतिक कानूनी हस्तक्षेप के आधार पर महिलाओं को विशेष अधिकार दिये जाने लगे। दहेज, बाल विवाह पारिवारिक हिंसा, महिला उत्पीड़न आदि के नाम पर नये-नये कानून लगे। महिला सशक्तीकरण के नाम पर उन्हें वर्ग के रूप में विशेष अधिकार दिये जाने लगे। दहेज या बलात्कार जैसे मामलों में उसकी गवाही को विशेष महत्व दिया जाने लगा। धूर्त महिलाए ऐसे विशेष अधिकारों का दुरुपयोग करने लगी और धीरे-धीरे धूर्त पुरुष भी ऐसी महिलाओं कों आगे करके शरीफ परिवारों के विरूद्ध अत्यचार करने लगे। दहेज के नाम पर अनेक परिवारों को मामूली प्रकरणों में गंभीर यातनाएं भोगनी पडी। मैं ऐसे अनेक प्रकरण व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ। मेरे घर के पड़ोस के एक आत्महत्या के प्रकरण को दहेज के साथ जोड़ने के झूठे प्रयास के मुकदमें का निर्णय करने वाले न्यायाधीश ने स्वयं ही अफसोस व्यक्त करते हुए मुझे बताया कि पूरा प्रयास करने के बाद भी वह उक्त प्रकरण में सजा नहीं दे सका इसका उसे मलाल है। अन्यथा वह तो महिला उत्पीड़न के प्रकरण छोड़ता ही नहीं। मैने अपने क्षेत्रा के आस पास सर्वे करके पाया कि धूर्त लोगों को झूठे दहेज प्रकरणों का सहारा लेना बहुत सुविधाजनक समाधान लगने लगा है।
प्रारम्भ से ही मेरा यह विचार है कि महिलाओं को एक वर्ग के रूप में स्थापित करना या मजबूत करना अनावश्यक और घातक है। मैने हमेशा ही महिला आरक्षण को इस आधार पर एक षड़यंत्रा माना कि इससे रोजगार या राजनीति का कुछ सक्षम परिवारों के बीच केन्द्रीयकरण होगा अर्थात यदि एक सौ रोजगारों में पहले साठ परिवारों के लोग शामिल थे तो अब महिला आरक्षित रोजगार व्यवस्था में वह संख्या तैंतालीस परिवारों तक सिमट जायेगी। यही हाल राजनीति का भी होने वाला है। यही कारण है कि सक्षम तथा बुद्धिजीवी इस प्रकार के आरक्षण की मांग करने में आगे हैं। लेकिन श्रम प्रधान रोजगार के लिए ऐसी कोई मांग नहीं उठ रही है। गरीबी या श्रम प्रधान रोजगार के विरूद्ध राजनीतिक शक्ति या सरकारी नौकरियों की छीना-झपटी में महिला आरक्षण के नाम पर अपने परिवार के लिए कुछ अधिक बटोर लेने का नाम ही महिला सशक्तिकरण हो गया है।
मैं मानता हूँ कि हजारों वर्षों की समाज व्यवस्था में महिलाओं के पक्ष में संशोधनों की आवश्यकता है। इन संशोधनों के लिए महिला समानता के सामाजिक प्रयत्नों के साथ साथ कुछ कानूनी प्रयत्न भी आवश्यक हेै। इनमें से एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव जिससे कि मैं सहमत भी हूं वह है महिलाओं को पारिवारिक सम्पत्ति में समान अधिकार मिलना चाहिए। किन्तु न तो कभी इसकी मांग उठी और न कभी इसे लागू किया गया। मैं महिला सशक्तिकरण के लिए कानूनों द्वारा विशेष अधिकार दिये जाने को घातक मानता हूँ।
समाज व्यवस्था की कमजोरियों ने समाज में सामाजिक अन्याय पैदा किया है यह सच है। किन्तु सामाजिक कमजोरियों के जितने दुष्परिणाम हजारों वषों के बाद दिखे हैं उससे अधिक दुष्परिणाम कानूनी व्यवस्था में पचास वर्ष में ही दिखने लगेंगे। कानूनी व्यवस्था सामाजिक व्यवस्था की सहायक तो हो सकती है किन्तु इसे विकल्प बनाने का प्रयास घातक होगा। साम्यवादी और पुँजीवादी विदेशी संस्कृतियां भारत की परिवार व्यवस्था पर लगातार आक्रमण कर रही है। महिलाओं को वर्ग के रूप में स्थापित करना उनके लिए बहुत सुविधाजनक है और इस कार्य के लिए सामाजिक व्यवस्था के स्थान पर कानूनी व्यवस्था की स्थापना उनके लिए बहुत आसान मार्ग। सबसे अधिक कष्ट कारक स्थिति तो यह है कि इन विदेशी परिवार तोड़क विचारों ने भारतीय सामाजिक संस्थाओं में भी अपने धन या अन्य प्रलोभनों के द्वारा घुसपैठ बना ली है। ये सामाजिक संस्थाएं भी समाज की सामाजिक कमियों को दूर करने की अपेक्षा इसके लिए कानूनी हस्तक्षेप आ आह्वान करती है। ये संस्थाएं समाज को अधिक गुमराह कर रही हैं।
मै इस लेख के द्वारा समाज को सतर्क करना चहता हूँ कि समाज व्यवस्था की अपेक्षा राजनैतिक व्यवस्था कम टिकाउ होगी और अधिक घातक भी यदि समाज व्यवस्था में विकृतियां हजारों वषोें में आई हैं तो राजनैतिक व्यवस्था दस-बीस वषों में ही विकृत हो जाएगीं। राजनीति से जुडे लोग बहुत तेज गति से सामाजिक व्यवस्था पर नियंत्राण करने की लूट में लगे हुए है। ये सामाजिक व्यवस्था को सामाजिक न्याय की दिशा मे कितना बढ़ा सकेगें यह तो निश्चित पता नही किन्तुु समाज व्यवस्था परिवार व्यवस्था को इतना क्षत-विक्षत कर देंगे कि हम लम्बे समय तक उसके दुष्परिणाम भोगते रहेगें। इसलिए समाज को इस संबंध में सावधानी पूर्वक कदम उठाना चाहिए।