डॉ. आनन्द वर्धन
(लेखक म्यूजियम एसोशिएशन ऑफ इंडिया के सचिव हैं।)
दुनिया की सभी सभ्यताओं और संस्कृतियों में धार्मिक प्रतीकों का व्यापक प्रयोग किया गया है। परंतु हमारे मंदिर केवल प्रतीक होने तक सीमित नहीं हैं। यदि हम वेदों की ऋषि-प्रज्ञा को मंदिर स्थापत्य की परंपरा से जोड़कर देखें तो उसमें उस समस्त वैज्ञानिकता का सन्निधान हुआ है जिसे हजारों वर्षों की संस्कृति साधना से भारतवर्ष ने प्राप्त किया है। मंदिर केवल और केवल एक संरचना भर नहीं हैं। कुछ लोग इन्हें उपासना स्थल मानते हैं तो कुछ लोग इन्हें सांस्कृतिक स्थल मानते हैं। ये दोनों बातें अपनी परिप्रेक्ष्य में सच हैं लेकिन इस संरचना की भावात्मक, वैज्ञानिक और दार्शनिक अवधारणा का अनुसंधान किए जाने की आवश्यकता है।
मंदिर की परिकल्पना तक आने से पहले वेदों की उस संकल्पनाओं को देखते हैं जिन्हें मंदिर स्थापत्य ने मूर्त स्वरूप प्रदान किया। सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि वेदों ने विचारमूर्ति व मंत्रामूर्ति को जन्म दिया है और कालांतर की स्थापत्य और कला ने उन वैदिक अवधारणाओं को बिंबमूर्ति में परिणत किया है। वेदों में वे सूत्रा हैं जिनसे मिलती जुलती उपस्थिति मंदिरों में दिखती है। जो ऋषियों के लिए अनुभूतिजन्य था, उस ज्ञान को साकार रूप देना ही मंदिर स्थापत्य का मूल आधार है। वेदों के ब्रह्मांडीय विज्ञान यानी कि कॉस्मोलॉजी का मूर्त स्वरूप मंदिर स्थापत्य में दिखता है।
वेदों का एक सूत्रा है कि यथा पिंडे, तथा ब्रह्मांडे। इसके अनुसार देखा जाए तो मंदिर भी अपने आप में एक लघु ब्रह्मांड है। ब्रह्मांड में जो कुछ भी है, वही मंदिर में चित्रित है, उसमें अंकित है। वेदों का एक महत्वपूर्ण सूक्त है हिरण्यगर्भ सूक्त। मंदिर हिरण्यगर्भ सूक्त को ही साकार करते हैं। इस सूक्त में वर्णन किया गया है कि सृष्टि के आदि में कुछ भी नहीं था, उस अविज्ञात घोर तमस् से हिरण्यगर्भ पैदा हुआ (इसे ही आधुनिक विज्ञान में बिगबैंग सिद्धांत कहते हैं), तो ऊर्जा के इस प्रारंभिक स्रोत से ही ब्रह्मस्वरूप का जन्म होता है जो बाद में तीन विश्व का निर्माण करता है। ये तीन विश्व हैं हमारा संसार, दूसरा अंतरिक्ष और तीसरा स्वर्गिक स्थान। इसे ही गायत्राी मंत्रा में भूः, भुवः और स्वः कहते हैं। इसके बाद कहा गया है कि स्वः से आगे महः, उससे आगे जनः और तपः और सत्य लोक की स्थिति है। यानी पार्थिव से लेकर चित्त तक और चित्त से लेकर विशुद्ध सत्य तक सप्तलोकी विश्व का निर्माण हुआ है। वेदों की इसी अवधारणा को ही मंदिर का संपूर्ण स्थापत्य अभिव्यक्त करता है।
भारतीय वैदिक दर्शन के अनुसार सृष्टि के पांच मूलभूत तत्व हैं, उनमें सबसे पहले आकाश का जन्म हुआ। आकाश से वायु का जन्म हुआ। वायु से अग्नि तत्व, अग्नि से जल और जल से पृथिवी तत्व की रचना हुई। इस पंचभूतात्मक अवधारणा को भी हमारे मंदिरों में दिखाने की कोशिश की गई है। इन पांचों तत्वों की हमारे मंदिरों में उपस्थिति सुनिश्चित की गई है।
इसी प्रकार वैदिक संकल्पना में विराट पुरुष की अवधारणा आती है। मंदिर का सीधा संबंध विराट पुरुष से है। एक मंदिर में इसी विराट पुरुष को रूपायित करता है। मंदिर स्वयं में एक विराट पुरुष है। इसलिए जिस प्रकार एक पुरुष के शरीर में जंघा, तलजंघा, कटि, नाभि, स्कंध, मुख आदि होते हैं, उसी प्रकार मंदिर का भी अपना तलजंघा है, जंघा है, कटि है, नाभि है, स्कंध है, मस्तक भी है। पुरुष का अर्थ है जो एक किले में सो रहा हो। सोने का मतलब है ऊर्जा का प्रारंभिक स्रोत का जड़त्व या अक्रियता की अवस्था में होना। वेद कहते हैं कि पुरूष अक्रिय है, परंतु उसके बिना कोई भी सक्रियता संभव नहीं है। इसका अर्थ है कि पुरुष स्वयं आत्मतत्व ही है। पंचतत्व प्रकृति हैं और पुरुष आत्मतत्व है। इनके मेल से ही यह संपूर्ण सृष्टि बनी है। इन्हीं दोनों की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति मंदिर हैं।
मंदिर में पंचतत्वों की उपस्थिति को हम कैसे पहचानें? वैशेषिक दर्शन के अनुसार आकाश का गुण है शब्द। आकाश के कारण ही ध्वनि का गमन संभव होता है। इसलिए ध्वनि को धारण करना ही आकाश तत्व का परिचायक है। मंदिर में हम तीन प्रकार की ध्वनियां सुनते हैं। मंत्राध्वनि, शंखध्वनि और घंटध्वनि। तीनों की अपनी-अपनी महत्ता है। इन तीनों ध्वनियों की उपस्थिति ही मंदिर में आकाश तत्व की उपस्थिति बतलाती है। भारत के शैव दर्शन में दो प्रकार के आकाशों की चर्चा पाई जाती है। एक है बर्हिआकाश जिसे हम भूताकाश कहते हैं और दूसरा है अंतःआकाश जिसे हम चिदाकाश कहते हैं। दोनों में मूलतः कोई भेद नहीं है। मंदिर का गर्भगृह चिदाकाश है और उसकी भीति से बाहर का आकाश भूताकाश है। इसलिए मंदिर उस विराट पुरुष का ही शरीर है। इस प्रकार हम पाते हैं कि मंदिर अपने आप में एक छोटा ब्रह्मांड है और यह विराट पुरुष है।
मंदिर के गर्भगृह में अंधेरा होता है। वही गर्भगृह अच्छा माना जाता है जिसमें गवाक्ष यानी कि खिड़की न हो। अंधेरा क्यों, क्योंकि सृष्टि के प्रारंभ में भी घोर तमस् था। उस घोर तमस् में भी प्रकाश की संभावना थी, सुप्त रूप में ऊर्जा थी, इसलिए मंदिर में प्रतीकात्मक रूप से एक दीपक जलाया जाता है। यह दीपक अग्नि तत्व का परिचायक है। प्रत्येक मंदिर एक अधिष्ठान पर बना होता है जिसे हम वेदिका कहते हैं। वेदिका को अंग्रेजी में फायर अल्टर कहते हैं। यह अग्निवेदिका है। मंदिर के शिखर को यदि आप ध्यान से देखें तो यह अग्निज्वाल के समान दिखेगी। वैदिक पुरोहित सबसे पहले अग्नि का आवाहन करते हैं। यह अग्नि दिव्यत्व की वाहक है। इसलिए हमारे यहां मरने के बाद उसे पंचमहाभूतों में नहीं देवत्व में, अग्नि में विलीन करते हैं। इसलिए समस्त वैदिक और विशेषरूप से ऋग्वैदिक दर्शन में इन पांच महाभूतों में सबसे अधिक महत्व अग्नि को ही दिया गया है। इसलिए बिना यज्ञ वेदिका के, बिना दीपक के कोई भी कर्मकांड पूरा नहीं माना जाता।
ऋग्वैदिक साहित्य के अंतर्गत शुल्बसूत्रों में ज्यामितीय रचनाओं का भी विधान किया गया। मंदिर के निर्माण में भी उन्हीं ज्यामितीय संरचना मंडल के आधार लिया जाता है। मंडल भी दो प्रकार के हैं। मंडल का अर्थ भी यह ब्रह्मांड ही है। इस ब्रह्मांड को भी मंडल माना गया है और विराट पुरुष को भी इस अखंड मंडल का नायक कहा गया है। मंदिर के निर्माण में कई लौकिक परीक्षाएं भी की जाती हैं। भूमि की उर्वरा शक्ति की जांच की जाती है। दशान्न को बोया जाता है। वे अंकुरित होते हैं, तभी उस भूमि को मंदिर बनाने योग्य माना जाता है। हम उसका चतुस्रीकरण करते हैं, उस पर एक वर्ग का निर्माण करते हैं। फिर कर्मकांडीय विधान हैं जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है वास्तुपुरुष मंडल का निर्माण किया जाना। इसमें भी दो प्रकार के विधान होते हैं। एक परमशायिक मंडल है। परमशायिक का अर्थ भी यही है कि जो परम रूप से सो रहा है। दूसरा है मंडुक मंडप। मंडुक अर्थात् मेंढ़क जो दीर्घकाल के लिए सुसुप्तावस्था में चला जाता है। आठ दिशाओं और आठ दिक्पाल होते हैं, इसलिए आठ गुणा आठ यानी चौंसठ घनों बनाए जाते हैं जिस पर मंदिर के एक मंडल का निर्माण किया जाता है। इस मंडल में दो अग्नियों की स्थापना की जाती है। एक है आवाहनीय या ब्रह्मांडीय अग्नि और दूसरी है गार्हस्थ्य अग्नि। मंदिर के निर्माण और विधानों में अग्नि की स्थापना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
वेदों के अनुसार अग्नि से ही जल की उत्पत्ति हुई है और इसे आज का विज्ञान भी मानता है। अग्नि की भीषणता से ही ऐसे गैसीय पदार्थ बने जिससे वर्षा का निर्माण हुआ। वर्षा के जल से पृथिवी तत्व पैदा हुआ। किसी भी मंदिर में ऊपर भी कलश होगा और नीचे भी कलश होगा। मंदिर की स्थापना का प्रारंभ भी कलश स्थापना से होता है। मंदिर के स्तंभों और शिखर में भी कलश होता है। सबसे ऊपर वाला कलश आकाशीय जल है। जल की उत्पत्ति पहले आकाश में ही हुई। नीचे भी जल है यानी पृथिवी के अंदर भी जल है। इसलिए स्तंभ के नीचे भी कलश बनाते हैं। कलश का अर्थ होता है जिसमें कल-कल करता हुआ जल शयन कर रहा हो। ‘कल’ के भारतीय संदर्भ में विविध अर्थ हैं। क अर्थात् संपूर्ण, शिव, ‘ल’ अर्थात् लास्य। इस प्रकार क शिव तत्व है और ल पार्वती तत्व है। हम नारी को कलत्रा कहते हैं। हम कैलाश को शिव का स्थान इसलिए कहते हैं, क्योंकि उर्वरा, जनन की शक्ति का प्रतीक है। कैलाश लिंगरूपात्मक है, मानसरोवर योनीरूपात्मक है। पुरुष और नारी की अभिजनन शक्ति से हमने दो देव तत्वों को लिया है शिव और पार्वती। कलश इसका ही प्रतीक है। कलश के भारतीय दर्शन में विविध विश्लेषण मिलते हैं। यह जल ब्रह्मांडीय विज्ञान का प्रतीक है।
मंदिर में वायु तत्व भी है। दक्षिण भारत में मंदिर के ऊपरी हिस्से को विमान कहा जाता है। विमान का अर्थ ही है जो आकाश में उड़ सके। उत्तर भारत के मंदिर में नाना प्रकार के खेचर गंधर्वों का चित्राण किया जाता है। उन्हें उड़ते हुए चित्रित किया जाता है। गंधर्व कौन हैं? गंध और अर्व यानी कि गति। गंध की गति कौन है, वायु है। वायु के कारण ही तो गंध एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाता है। मंदिर या तो इष्टिका यानी इंटों या प्रस्तर यानी पत्थरों या काष्ठ यानी लकड़ी का बना होता है। इंट, पत्थर और लकड़ी तीनों ही पृथिवी तत्व हैं। इस प्रकार पंचभूतात्मक प्रकृति को मंदिर प्रदर्शित करते हैं।
मंदिर में आत्म तत्व भी है। गर्भगृह के अर्थ से यह स्पष्ट हो जाता है। ‘ग’ का अर्थ है गमन करना। अर्भ का अर्थ है जीवन की संभावना। जैसे कि गर्भधारण में सक्षम स्त्री को अर्भू कहा जाता है। ब्रह्मांड भी एक गर्भ ही है। वह महागर्भ है। उसमें जीवन को संचारित करने वाला तत्व आत्मा है। इसलिए गर्भगृह में लिंग की स्थापना की जाती है। लिंग के दो पक्ष हैं लीन है और गमन करता है। क्या लीन है सृजन की शक्ति लीन है। क्या गमन करता है सृजन की शक्ति गमन करता है। इसलिए वह लिंग है। वह ऊपर से आपतित होने वाली ऊर्जा का समूह है, वह विकिरण भी है। यही कारण है कि ब्रह्म को निराकार मानने वाले और अद्वैत वेदांत के प्रवर्तक शंकराचार्य भी साकार की उपासना और मंदिरों का विरोध नहीं करते। उलटे उसका समर्थन करते हैं। इसकी व्याख्या वाराहमिहिर ने की। उन्होंने साकार को विकृति कहा और कहा कि संपूर्ण सृष्टि इस विकृति रूप में ही है। साकार निराकार से जुड़ने का एक मार्ग है। इसलिए शंकरचार्य ने भी मंदिरों की परंपरा का समर्थन किया। इसी सृष्टि से देश के राजाओं ने मंदिरों का निर्माण करवाया।
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