यज्ञ श्रेष्ठतम कर्म है जिसे करने से वायुमंडल शुद्ध होता है : डॉक्टर अन्नपूर्णा

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यज्ञ श्रेष्ठतम कर्म है। इस कारण वेदभक्त आर्यसमाज के अनुयायी वेदाज्ञा के अनुसार नियमित यज्ञ करते हैं व दूसरों को करने की प्रेरणा भी करते हैं। वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून के मंत्री श्री प्रेम प्रकाश शर्मा जी की अग्निहोत्र यज्ञ में गहरी निष्ठा है। वह प्रत्येक वर्ष सितम्बर महीने में अपने निवास पर वेद पारायण यज्ञ कराते आ रहे हैं जिसमें उनके परिवार तथा मित्र परिवारों के लोग सम्मिलित होते रहे हैं। इस वर्ष कोरोना के दुष्प्रभाव के कारण सीमित संख्या में कुछ परिवारजनों ने मिलकर ऋग्वेद का आंशिक परायण यज्ञ किया। यज्ञ तीन दिन प्रातः व सायं सत्रों में हुआ जिसकी रविवार 13 सितम्बर, 2020 को पूर्णाहुति सम्पन्न हुई। यज्ञ की ब्रह्मा द्रोणस्थली कन्या गुरुकुल, देहरादून की आचार्या डा. अन्नपूर्णा तथा उनकी स्नातक शिष्या दीप्ति जी रहीं। इन दोनों आचार्याओं के उपदेश भी सुनने को मिले। आज समापन दिवस दिनांक 13-9-2020 को प्रातः 8.00 बजे पारायण यज्ञ आरम्भ हुआ। मुख्य यजमान श्री प्रेमप्रकाश शर्मा जी व उनके परिवारजन थे। अन्य लोगों ने भी यज्ञकुण्ड में आहुतियां दीं। कोरोना रोग से रक्षा करने के लिये भी परमात्मा से प्रार्थना की गई और इस निमित्त भी कुछ आहुतियां दी गईं। यज्ञ की पूर्णाहुति के पश्चात अपने सम्बोधन में आचार्या डा. अन्नपूर्णा जी ने कहा कि यज्ञ एक पूर्ण कर्म है। यज्ञ को शास्त्र में श्रेष्ठतम कर्म की उपमा दी गई है। यज्ञ से अपना ही नहीं अपितु सबका कल्याण होता है। यज्ञ से वायुमण्डल शुद्ध होता है। रोग दूर होते हैं। आचार्या जी ने कहा कि आरोग्य सेतु एप में भी यज्ञ तथा देशी ओषधियों को कोरोना से बचाव में उपयोगी बताया गया है। यज्ञ करने वाले मनुष्यों को कोरोना के किटाणु हानि नहीं पहुंचा पायेंगे। वेदों ने यज्ञ को भुवन की नाभि बताया है।

इस प्रसंग में आचार्या जी ने कहा कि गर्भस्थ शिुशु माता की नाभि से जुड़ा रहता है। मां की नाभि से ही शिशु पोषण प्राप्त करता है। यज्ञ इस ब्रह्माण्ड की नाभि है। आचार्या जी ने कहा कि मनुष्य जैसा कर्म करते हैं वैसा ही उनको फल प्राप्त होता है। विदुषी आचार्या जी ने कहा कि यज्ञ की अग्नि ऊपर को उठती है। पाप करने से मनुष्य नीचे गिरता है तथा धर्म व पुण्य कर्म करने से मनुष्य ऊपर उठता है। धर्म पर चलने से मनुष्य को सुखों की प्राप्ति होती है। दूसरों का भला करना ही धर्म है। दूसरों का जो आचरण हमें बुरा लगता हो वह आचरण हमें भी दूसरों के प्रति नहीं करना चाहिये। ऐसा करना ही धर्म है। हमारे दिन सुदिन हों इसके लिये हम परमात्मा से प्रार्थना करते हैं। इसके लिए हम परमात्मा से पहली वस्तु श्रेष्ठ धन को मानते हैं। हमारे पास बेईमानी से कमाया धन नहीं होना चाहिये। हमारे पास जो धन हो वह परिश्रम से कमाया हुआ होना चाहिये। आचार्या जी ने कहा परमात्मा से दूसरी वस्तु चित्ति को मांगते हैं। चित्ति जागरुकता को कहते हैं। हमें जागरुक बनना है। यदि जागरुक नहीं होंगे तो हमारे सुदिन नहीं आयेंगे। आचार्या जी ने कहा कि उद्योगी व परिश्रमी मनुष्य भूखा नहीं रह सकता। यह चाणक्य जी के वचन हैं। ईश्वर से जुड़ने पर व्यक्ति ईश्वर की उपासना करता है। ईश्वर का उपासक कभी पाप कर्म नहीं कर सकता। ईश्वरभक्त भगवान को सर्वद्रष्टा अनुभव करता है। इससे पापकर्मों की निवृत्ति होती है।

आचार्या डा. अन्नपूर्णा जी ने कहा कि जो मनुष्य जरुरत के मुताबिक बोलता है, अधिक नहीं बोलता, उसके किसी से लड़ाई झगड़े नहीं होते। उन्होंने कहा कि सत्य, मधुर, हितकारी तथा सार्थक बात करना वाणी का गुण है। बहिन अन्नपूर्णा जी ने कहा कि जो जागरुक होता है वह सफल होता है। उन्होंने कहा कि सब माता व पिताओं को अपने बच्चों का जीवन बनाने के लिये जागरुक रहना चाहिये। देश के नेताओं को भी जागरुक रहना चाहिये। ऐसा होने पर ही राष्ट्र उन्नति करता है। बहिन जी ने सावधान किया कि यदि हम जागरुक नहीं रहेंगे तो हमारा जीवन बर्बाद हो जायेगा। सुदिनों की प्राप्ति के लिये मनुष्यों में तीसरा गुण यह होना चाहिये कि वह तथ्यों के आधार पर व्यवहार करें। उन्होंने कहा कि सत्य के मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति सौभाग्य को प्राप्त करता है। पुण्य कर्म करने से मनुष्य का सौभाग्य बनता है। आचार्या जी ने एक महत्वपूर्ण बात यह कही कि मनुष्यों को अपने बड़ों से आशीर्वाद लेना चाहिये। बहिन जी ने भीष्म पितामह व दुर्योधन के बीच हुआ संवाद भी सुनाया। दुर्योधन ने भीष्म पितामह को कहा था कि आपके सारे आशीर्वाद तो अर्जुन के लिये हैं। आचार्या जी ने कहा भीष्म जी ने दुर्योधन को कहा कि जो झुकता है उसको ही आशीर्वाद मिलता है। अर्जुन झुकता है इसलिये उसे आशीर्वाद मिलता है।

आचार्या डा. अन्नपूर्णा जी ने कहा कि हमें आत्मा के ऐश्वर्य को भी बढ़ाना है। शरीर को पुष्ट रखने की उन्होंने सलाह दी। उन्होंने कहा कि आप बलवान व निरोग रहें। सावधान रहकर अपनी देखभाल करें। हमारी वाणी पवित्र व मधुर होनी चाहिये। अपनी वाणी को हम सबको हितकारी बनाना चाहिये। उन्होंने अपने व्याख्यान को विराम देते हुए कहा कि योगेश्वर कृष्ण जी की वाणी में यह विशेषता थी कि वह उससे लोगों को बांध लेते थे। आचार्या जी की शिष्याओं ने एक भजन सुनाया जिसके बोल थे ‘यज्ञ सफल हो जाये भगवन मेरा यज्ञ सफल हो जाये। श्रद्धा से है यज्ञ रचाया, वेदी को भी खूब सजाया। पवन शुद्ध हो जाये भगवन यज्ञ सफल हो जाये।।”

इसके बाद आयोजन में उपस्थित श्री वसन्त कुमार तथा ललित कुमार जी ने एक भजन सुनाया जिसके बोल थे ‘धर्म के नाम पर इंसान कितना पाप करता है। कहीं सरेआम करता है कहीं चुपचाप करता है। हजारों बेगुनाहों का बहाते खून जो निशदिन, मेहरबां है खुदा इतना जो फिर भी माफ करता है।।’ इन दोनों भजनों को श्रोताओं ने खूब पसन्द किया।

भजनों के बाद द्रोणस्थली कन्या गुरुकुल, देहरादून की स्नातिका बहिन दीप्ति जी का सम्बोधन हुआ। उन्होंने कहा कि यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म बताया गया है जबकि इसके विपरीत हमारा जीवन यज्ञ को छोड़कर भौतिक वस्तुओं को एकत्र करने में लग जाता है। उन्होंने बताया कि मनुष्य के जीवन में तीन रत्न होते हैं। यह रत्न मधुर वाणी, अन्न व जल होते हैं। संसार में कर्म प्रधान है। कर्म के कारण ही कुछ मनुष्य महापुरुष बन जाते हैं। विदुषी वक्ता ने ऋषि दयानन्द के जीवन में घटी एक माता के मृतक पुत्र को वस्त्र भी उपलब्ध न होने की घटना का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि ऋषि यह दृश्य देखकर द्रवित हो गये थे। समाज व देश की हालत सुधारने के लिए उन्होंने देश की उन्नति के बहुत काम किये जिससे किसी को अभाव से न झूझना पड़े। इसी कारण वह आज याद किये जाते हैं। दीप्ति जी ने कहा कि जब कोई व्यक्ति परहित के कार्यों को करता है तो वह दूसरों को साथ लेकर चलता है। दीप्ति जी ने नई शिक्षा नीति का उल्लेख कर बताया कि उसमें कहा गया है कि बच्चे क्रियेटिव नहीं कर पा रहे हैं। वह अपने जीवन में क्षमता को उत्पन्न नहीं कर पा रहे हैं। इस सन्दर्भ में विदुषी वक्ता ने कहा कि ऋषि दयानन्द ने इस विषय में कहा है कि बच्चों को अच्छे वातावरण में रखकर उनके जीवन का निर्माण होता है। उन्होंने कहा कैसी भी क्षमता के बच्चे को अच्छे वातावरण में रखकर उसे प्रेरित किया जा सकता है। दीप्ति जी ने आगे कहा कि आर्यसमाज के लोगों को खण्डन करने वाले लोगों के रूप में जाना जाता है। इस पर उन्होंने कहा कि आर्यसमाज जो काम करता है उसमें खण्डन भी सत्य व वास्तविकता से युक्त होता है। आर्यसमाज असत्य व अन्धविश्वासों का ही खण्डन करता है जिससे परिणाम में मनुष्य व समाज को लाभ होता है। दीप्ति जी ने आर्यसमाज के दस नियमों के महत्व पर भी अपनी ओजस्वी वाणी में प्रकाश डाला।

दीप्ति जी ने वेद पढ़ने के विषय में कहा कि वेद पढ़ने का सभी मनष्यों का समान अधिकार है। उन्होंने कहा कि माता निर्माता होती है तथा वेद पढ़ना सबका धर्म है। उन्होंने कहा कि ऋषि दयानन्द के अनुसार वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं। ऋषि ने वेद पढ़ने व पढ़ाने तथा सुनने व दूसरों को सुनाने को परम धर्म कहा है। उन्होंने बताया कि कुछ लोग वेद नहीं पढ़ सकते। ऐसे लोगों को वेद सुनने चाहिये। इससे उनका कल्याण होगा। उन्होंने कहा वेदों का सुनना व सुनाना भी परम धर्म है। दीप्ति जी ने कहा कि ऋषि दयानन्द का चिन्तन मौलिक एवं सर्वहितकारी चिन्तन है। दीप्ति जी ने मोदी जी के एक भाषण का उल्लेख कर बताया कि उन्होंने उसमें कहा था कि सम्पूर्ण विश्व शान्ति चाहता है। यह शान्ति ऋषि दयानन्द के मार्ग का अनुसरण कर प्राप्त की जा सकती है। दीप्ति जी ने यह भी बताया कि ऋषि दयानन्द के पाठ्यक्रम को अर्वाचीन पाठयक्रम में प्रमुख रूप से स्थान दिया जाता है। दीप्ति जी ने कहा कि जिस मनुष्य के जैसे गुण, कर्म व स्वभाव हों, उसको उसके अनुसार वैसी ही विद्या दी जानी चाहिये। उन्होंने कहा कि गुरुकुलों में देशभक्ति सहित ईश्वर भक्ति का भी पाठ पढ़ाया जाता है। विदुषी वक्ता ने कहा कि गुरुकुल में हमारे पिता जी श्री वेद प्रकाश गुप्ता जी हमसे पूछते थे कि तुम्हें साधारण मनुष्य बनना है या असाधारण बनना है। हम कहते थे कि हमें असाधारण बनना है। उनकी प्रेरणाओं को भी दीप्ति जी ने स्मरण किया व उनके अपने जीवन में प्रयोग के कुछ उदाहरण भी दिये।

विदुषी वक्ता दीप्ति जी ने कहा कि मानव जीवन मिलना दुर्लभ होता है। अतः हमें अपने जीवन में ऋषि दयानन्द जी की सभी शिक्षाओं को आत्मसात व क्रियान्वित करने का प्रयत्न करना चाहिये। हम स्वयं भी पढ़े तथा समाज को भी पढ़ायें। हम सबको वेद धर्म को धारण करना है। उन्होंने एक महत्वपूर्ण बात यह कही कि जो संस्कृत पढ़ते हैं वही संस्कृत की रक्षा करेंगे। दीप्ति जी ने बताया कि ऋषि दयानन्द जी और आर्यसमाज की शिक्षाओं में कहीं किसी प्रकार का कोई पाखण्ड नहीं है। उन्होंने यजमान श्री प्रेम प्रकाश शर्मा जी व उनके परिवारजनों के प्रति परमात्मा से शतायु व दीर्घजीवी होने की मंगल कामना की। इसके बाद गुरुकुल की छात्राओं ने मिलकर एक भजन प्रस्तुत किया जिसके बोल थे ‘मन को शुद्ध बना दो प्रभु जी जीवन में जीवन में, तेरे बिना प्रभु कौन है मेरा, मैं हूं तेरा तू है मेरा।। निर्मल बुद्धि बना दो प्रभु जी जीवन में जीवन में, मन को शुद्ध बना दो प्रभु जी जीवन में जीवन में।।’

इसी के साथ ऋग्वेद आंशिक पारायण यज्ञ का क्रार्यक्रम समाप्त हुआ। कार्यक्रम में यजमान श्री प्रेम प्रकाश शर्मा जी ने सबका धन्यवाद किया। उन्होंने बताया कि इस वर्ष कोरोना के कारण उन्होंने अत्यन्त सीमित लोगों को सूचित व आमंत्रित किया। शर्मा जी ने कहा कि हमें वेद प्रचार के आयोजन घरो, मुहल्लों, सार्वजनिक स्थान मन्दिरों आदि में करने चाहियें। उन्होंने बताया कि वह अपनी सरकारी सेवा के दिनांे में रविवार को लोगों के घरों में जाकर यज्ञ एवं सत्संग आयोजित करते थे। उन्होंने बताया कि उन्होंने अनेक दलित बन्धुओं के घरों पर भी यज्ञ किये हैं। उन सभी बन्धुओं को आप स्वच्छता रखने सहित गोपालन की प्रेरणा देते थे। उन्होंने अपने आसपास के गांवों में 6 आर्यसमाजें भी स्थापित की थीं। वर्तमान में भी वह आर्यसमाजें चल रहीं हैं जिससे वहां के लोगों को लाभ हो रहा है। श्री प्रेमप्रकाश शर्मा जी ने कहा कि हम जहां भी रहते हों, हमें वहां के लोगों के बीच जाना चाहिये। उन्होंने उदाहरण देकर बताया कि पौराणिक किसी विषय में एकमत नहीं होते। अलग अलग पण्डितों से यदि विवाह का मुहुर्त पूछते हैं तो वह अलग-अलग दिन बताते हैं। उन्होंने कहा कि वेद की सब बातें सत्य हैं। अपनी वाणी को विराम देते हुए उन्होंने कहा कि हमारा कर्तव्य है कि हम लोगों के बीच जाकर प्रचार का काम करें। इसके बाद शान्ति पाठ हुआ। शान्ति पाठ के बाद उपस्थित लोगों ने अल्पाहार व भोजन किया।

-मनमोहन कुमार आर्य

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