गुहा_बेचैन… ✍.
भारत में जो लिखा पढ़ा जाता है उसपर गौर कीजियेगा तो एक चीज़ बड़ी आसानी से नजर आ जाती है। जहाँ भारत का तथाकथित दक्षिणपंथ सिर्फ भावनात्मक मुद्दों पर लिख रहा होता है, वहीँ तथाकथित वामपंथ बौद्धिक मुद्दों पर भी चर्चा करता है। अगर आप नीतियों, इतिहास, भूगोल-पर्यावरण सम्बन्धी कुछ भी पढ़ रहे हैं तो इस बात की पूरी संभावना है कि आप किसी तथाकथित वामपंथी का ही लिखा पढ़ रहे हैं। आई.ए.एस. जैसी परीक्षाओं की तैयारी करते छात्र दैनिक जागरण, प्रभात खबर और इंडिया टुडे जैसी पत्रिकाएं पढ़ते नहीं दिखेंगे। वो इंडियन एक्सप्रेस, द हिन्दू जैसे अखबार और इकॉनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली जैसी पत्रिकाएं पढ़ रहे होते हैं।
बरसों पहले सन १९५० के समय ही पी.सी.जोशी जैसे (तथाकथित) वामपंथी नेताओं ने संचार माध्यमों पर कब्जे का फायदा पहचान लिया था। वो शायद अपने पुराने साथी नाजी गोएबेल्स से सीख रहे थे। नीतियाँ बनाने वालों, यानि भविष्य के आई.ए.एस. का झुकाव अपनी विचारधारा की ओर हो इसके लिए उन्होंने उसी दौर में प्रकाशन के गढ़ों में अपनी पैठ बनानी शुरू कर दी थी। अगर आज आप जुलाई १९६४ के आस पास के इकॉनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के अंक उठा कर देखें तो आपको आश्चर्य होगा कि ये आर्थिक-राजनैतिक नीतियों की आड़ लेने वाली पत्रिका नेहरु नाम से ही भरी पड़ी थी। लेखों में नेहरु कांग्रेस और “वर्ग संघर्ष”, नेहरु के बाद धर्मनिरपेक्षता, नेहरु के बाद कॉमन-वेल्थ, नेहरु और समाजवाद जैसे शीर्षक भरे पड़े हैं।
आज के दौर में भी ई.पी.डब्ल्यू. नाम से मशहूर ये पत्रिका वामपंथी प्रोपोगैंडा फैलाने के नित नए नुस्खे इस्तेमाल करती दिख जायेगी। अभी सरकार उनके पसंद की नहीं है तो ज्यादातर इसमें नीतियों की आलोचना ही होती है, गलती से भी कुछ अच्छा हुआ हो तो वो नहीं छपा होता। ऐसे प्रकाशनों से जो सबसे बड़ा नुकसान होता है वो है पत्रकारों की विश्वसनीयता का। आज की तारिख में जो कई अंतर्राष्ट्रीय स्तर के निष्पक्ष सर्वेक्षणों में भारत की मीडिया को सबसे कम विश्वसनीय घोषित किया जाता है वो ऐसे बड़े प्रकाशनों के जरिये चल रही अनैतिकता के कारण भी है। पत्रकारिता में नैतिकता सिखाते समय “पूरा सत्य” लिखना-कहना सिखाया जाता है। मतलब करेक्ट (correct) तो हो ही साथ ही कम्पलीट (complete) भी हो।
करेक्ट और कम्पलीट को मोटे तौर पर ऐसे समझ सकते हैं कि जब युधिष्ठिर चीख कर कहते हैं, “अश्वत्थामा मारा गया” तो वो करेक्ट तो था, लेकिन “मनुष्य या हाथी पता नहीं” उन्होंने धीरे से फुसफुसा कर कहा। तो सूचना कम्पलीट नहीं थी। इस अनैतिक कृत्य के कारण उनका जमीन से छह ऊँगली ऊपर चलने वाला रथ धरती पर आ गया था। चौथे खम्भे की भी ऐसी ही हरकतों के कारण वो नैतिकता के किसी ऊँचे पायदान पर नहीं रह गए हैं। अनैतिक कुकृत्यों ने उन्हें ब्लैकमेलर और धूर्त-ठगों के समकक्ष ला खड़ा किया है।
हाल में ही ई.पी.डब्ल्यू. में एक मशहूर पत्रकार थे प्रनंजय गुहा ठाकुरता जो कि एक अफवाह फैला रहे थे। द्वेष से प्रेरित पत्रकार महोदय ने Did Adani Group Evade ₹1,000 Crore Taxes? शीर्षक से अडानी ग्रुप पर एक खबर लिख डाली। उन्होंने मोदी सरकार पर अंबानी को टैक्स से बचाने से शुरू कर के कर्ज माफी और आर्थिक फायदा पहुंचाने पर एक तीखा लेख लिखा। किस्मत से अडानी ग्रुप भाजपाई नौनिहालों जैसा छाती कूट विलाप करके छोड़ने वालों की बिरादरी में नहीं आता। जो औद्योगिक समूह कांग्रेस युग के वामपंथी नीतियों के बीच ही बढ़कर खड़ा हुआ हो वो मक्कार अफवाहबाजों से लड़ने का अभ्यस्त था। उन्होंने अंट-शंट छापकर बदनाम करने की इस साजिश पर कानूनी नोटिस दे दिया।
प्रनंजय के पास, मोदी सरकार द्वारा अडानी समूह को फायदा पहुँचाने की अपनी कपोल-कल्पित गल्प को प्रमाणों के साथ साबित करने का कोई उपाय नहीं था। पेशे से अनैतिकता बरतने के कारण उनसे इस्तीफा ले लिया गया। प्रनंजय का इस्तीफा लिया जाना कहिये, या उन्हें ई.पी.डब्ल्यू. से बाहर किया जाना, ये जर्नलिस्ट बिरादरी के लिए एक बड़ी हलचल है। ध्यान रहे वो मामूली रिपोर्टर नहीं जर्नलिस्ट थे, ऊँचे पद पर बैठकर धूर्तता करने के लिए उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। वैसे तो ये सवाल भी अभी बाकी है कि क्या तथाकथित वामपंथी जमात उनके लिखे अडानी समूह के खिलाफ के दुष्प्रचार के लिए माफ़ी मांगेगी ? क्या प्रनंजय के लिखे एक लेख को आधार बना कर जो दर्जनों लेख लिखे गए होंगे और उनके लेख को रिफरेन्स में डाला गया होगा, उनके लिए माफ़ी मांगी जायेगी ? सवाल ये भी है कि क्या अफवाहबाज गिरोहों के इस कुकर्म पर आपका ध्यान गया ?
बाकी लेखन और पत्रकारिता से जुड़े ऐसे गिरोहों की अपने कुकृत्यों के लिए माफ़ी मांगने की कोई आदत नहीं होती। हम अपेक्षा कर सकते हैं कि नैतिकता को ताक पर रखकर इस बार भी वो इतनी ही बेशर्मी दिखाएँगे।