बिखरे मोती-भाग 21
दैवी वीणा देय है,
ध्वनित होय यश बोल।
सत्कर्मों के साज से,
और बने अनमोल ।। 342।।
यशबोल-अर्थात कीर्ति की स्वर लहरियां
माया मान और क्रोध से,
आत्मा होय कशाय।
अनासक्त के भाव से,
जीव मुक्त हो जाए ।। 343।।
भाव यह है कि आत्मा का बंधन अर्थात आवागमन के चक्र में पड़े, रहने का मूल कारण कशाय (आसक्ति को जैन साहित्य में कशाय कहा है, जबकि गीता में अर्जुन को समझाते हुए भगवान कृष्ण ने आत्मा के आवागमन के क्रम में पड़ने का मूल कारण आसक्ति कहा है और जो आवागमन के क्रम से मुक्त होना चाहते हैं उन्हें कशाय (आसक्ति) के चार कारण माया, मान, लोभ और क्रोध का निवारण करना चाहिए। इन चार कारणों का सरलता से निवारण है-(अनासक्त भाव से जीवन जीना) जो लोग अपना जीवन अनासक्त भाव से जीते हैं वे पाप मुक्त हो जाते हैं। ऐसी आत्माएं ही आवागमन के क्रम से मुक्त हो जाती हैं अर्थात मोक्ष को प्राप्त कर लेती हैं। इस जीवन को ऋजुता में जीओ अर्थात कुटिलता रहित होकर जीओ। जीवन जितना ऋजुता में जीओगे उतना ही प्रभु के समीप रहोगे। ध्यान रहे, अहंकार जड़ता में है, चैतन्य में नही। भाव यह है कि जो व्यक्ति जितना जड़ता से ग्रस्त है उसके अंत:करण पर उतना अहंकार का अंधेरा है, जबकि जो व्यक्ति जितना चैतन्य है अर्थात जाग्रत पुरूष है उसके अंत:करण में आत्मप्रज्ञा का उतना ही अधिक प्रकाश है और प्रभु के पास है।
अर्जुन कर शतहस्त से,
सहस्र हस्त से दान।
ऐसे सत्पुरूषों के घर,
लक्ष्मी रहे विद्यमान ।। 344।।
इसलिए वेद कहता है-शतहस्त समाहर: सहस्रहस्त् सं किर:-अथर्ववेद 3/24/5
वाहन अपने भार से,
अधिक भार को ढोय।
श्रेष्ठ पुरूष संसार में,
पर पीड़ा को खोय ।। 345।।
भाव यह है कि कुलीन पुरूष, श्रेष्ठ पुरूष अपनी जिम्मेदारी के साथ साथ दूसरों के कल्याण की जिम्मेदारी भी निभाते हैं, साधारण पुरूष नही।
इंद्रियों के दास को,
धन-यश देवें छोड़।
सूखे सर से हंस भी,
निकलें मुखड़ा मोड़ ।। 346।।
मित्र की पहचान :-
जिस पर तुमको हो सके,
पिता तुल्य विश्वास।
बाकी तो साथी सभी,
मित्र वही है खास ।। 347।।
रोग शोक भय क्रोध तो,
करें प्राणों पर आघात।
इनसे बचकर जो रहे,
पल-पल वह मुस्कात ।। 348।।
ज्ञान रूप बल नष्ट हों,
जो करते संताप।
कसें शिकंजा रोग सब,
शत्रु करें प्रलाप।। 349।।
मन्यु पीवें सत्पुरूष,
मूरख करै इजहार।
एक क्रोध के कारनै,
रोग लगै हं हजार ।। 350।।
क्रमश:
बिखरे मोती-भाग 21