चुनरी अंतःकरण की,धोय सके तो धोय
चुनरी अंतःकरण की,
धोय सके तो धोय।
दिव्यलोक – नौका मिली,
मत वृथा इसे खोय॥ 1261॥
व्याख्या:- हे मनुष्य! वस्त्रों में लगे दागों की तो तू चिंता करता है और उन्हें येन केन प्रकारेण साफ भी कर लेता है किन्तु तेरी
नादानीयों के कारण यह मनुष्य- जीवन व्यर्थ जा रहा है।काम,क्रोध, लोभ ,मोह ,ईर्ष्या ,द्वेष और अहंकार के भंवर में पड़कर तेरा स्वभाव शिकंजा बिगड़ता जा रहा है। जिसके कारण तू नित नए-नए षड्यंत्र रचता है और जघन्यतम अपराध करता है ,पापों की गठरी बांध देता है । क्या कभी सोचा है कि एक दिन परमपिता परमात्मा के दरबार में इनका हिसाब भी देना पड़ेगा ? नित नए दाग तेरी चुनरी में लगते जा रहे है, अंतःकरण (मन, बुद्धि,चित्त, अहंकार) मेला होता जा रहा है, अर्थात भाव शरीर (कारण- शरीर जिसमें जीव का स्वभाव बसता है) गन्दा होता जा रहा है।मनुष्य जन्म में तो तुझे इसे निर्मल रखने की स्वतंत्रता मिली थी । तू इस स्वर्णिम अवसर को क्यों खो रहा है ? यह स्वतंत्रता अन्य योनियों में नहीं है क्योंकि अन्य योनि भोग-योनि है, जबकि मनुष्य योनि साधन- योनि है किंतु विडम्बना यह है कि मनुष्य अपने वस्त्र पर लगे हुए दाग को तो धोने की चिंता करता है जबकि अंतःकरण (मन, बुद्धि,चित्त, अहंकार) में लगे दागों की परवाह ही नहीं करता है।यह विक्षिप्तता नहीं तो और क्या है? काश ! मनुष्य अपने अंतःकरण का परिष्कार करें ,दुर्गुण ,दुव्र्यसन का बहिष्कार करें , तो भाव – शरीर की चदरिया निर्मल हो जाय, जीवन का अंतिम लक्ष्य मिल जाय।भाव शरीर की निर्मलता के संदर्भ में संत कबीरदास कितना सुंदर कहते हैं –
भीनी – भीनी बुनी चदरिया ।
दास कबीर जतन से ओढ़ी,ज्यों की त्यों धर दीन्ही चदरिया॥
भाव यह है कि चिता जलने से पहले अंदर का चैतन्य जग जाय अर्थात आत्मसाक्षात्कार हो जाय, तो मनुष्य जीवन सफल और सार्थक हो जाय। इसलिए ऋग्वेद का ऋषि मानव जन्म के महत्व पर प्रकाश डालता हुआ कहता है-
देवीं नावं स्वरित्रा- मनागसमस्रवन्तीमा रूहेमा स्वस्तये।
( ऋग्वेद 10/63/ 10 )
अर्थात् हे मनुष्य!तेरा यह मानव- शरीर केवल हाड़- मांस का पुतला नहीं है बल्कि यह दिव्यलोक तक ले जाने वाली नौका है। यह नौका हमें संसार रूपी सागर से पार ले जाने वाली है। हम ऐसी दिव्य नौका पर चढ़े , जो रक्षा करने वाली ,अनन्त सीमा वाली, छिद्र आदि से रहित सुख देने वाली,अखण्डित ,अच्छी प्रकार से निर्मित है,जो सुंदर साधनयुक्त है। इस ज्ञान और भक्ति रूपी दृढ़ नौका पर चढ़कर हम दिव्यलोक को प्राप्त करें। अथर्ववेद का ऋषि मानव जीवन के गन्तव्य को प्राप्त करने की प्रेरणा देता हुआ कहता है –
यमस्यलोका दध्या बभूविथ
(अथर्ववेद 19/56/1)
अर्थात् हे मनुष्य! तू न्यायकारी नियन्त्रण कर्ता भगवान के लोक से आया है यानी कि इस जनम- मरण के प्रवाह में पड़ने से पूर्व तू ब्रह्मलोक में था अर्थात् आनन्दलोक में था , मुक्ति में था और तेरा गन्तव्य भी वही है। परमपिता परमात्मा ने तुझे पृथ्वी पर कर्म – कीड़ा करने के लिए भेजा है। अतः कर्म ऐसा करना जिससे तेरा अंतः करण (मन, बुद्धि,चित्त, अहंकार) पवित्र रह सके ताकि तू आनन्दलोक में पुनः प्रवेश पा सके । यह मत भूल की तो आनन्दलोक का रही है। उपरोक्त मंत्रों की व्याख्या से स्पष्ट हो गया कि मानव जीवन अनमोल है , यह दिव्यलोक की नौका है , जिसका अन्तिम लक्ष्य आनन्दलोक को प्राप्त करना है। अतः है नादान मनुष्य! मानव जीवन को व्यर्थ मत गवां। तू मनुष्यतत्त्व से देवतत्व और देवतत्व से भगवातत्व को प्राप्त कर। अर्थात् आनन्दलोक को प्राप्त कर।