अंग्रेज चाहते थे देश को कई टुकड़ों में बांटना
भारत के इतिहास का यह एक विडम्बना पूर्ण तथ्य है कि जिस स्वतन्त्रता की लड़ाई को यह देश 1235 वर्ष तक ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ – के आधार पर लड़ता रहा , उसी स्वतन्त्रता के मिलने का जब समय आया तो स्वतन्त्रता के आन्दोलन पर कुछ ऐसे लोगों का वर्चस्व स्थापित करा दिया गया , जिनका भारतीय संस्कृति के इस आदर्श से कोई सम्बन्ध नहीं था। जिनकी अहिंसा दब्बूपन की प्रतीक थी और जिनके लिए राष्ट्रहित से बढ़कर ‘स्व’हित थे , इतना ही नहीं उनके यहाँ राष्ट्रभक्ति दूसरे दर्जे पर थी और राज भक्ति पहले स्थान पर थी । ऐसे लोगों से कैसे अपेक्षा की जा सकती थी कि वे देश के हितों का और देश की एकता व अखण्डता का सम्मान करते हुए निर्णय लेंगे ? इस प्रकार के षड़यन्त्रों को रचने – बुनने में अंग्रेजों का भी विशेष योगदान था । उन्होंने देश को एक नहीं , अनेकों टुकड़ों में बांटने की पूरी तैयारी कर ली थी।
जिन लोगों के बलिदान , त्याग, तपस्या और साधना से भारत सैकड़ों वर्ष तक अपनी स्वतन्त्रता के लिए संघर्षरत रहा ,उन्हें एक षड़यंत्र के अन्तर्गत एक ओर धकेल दिया गया या ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी गईं कि उनकी आवाज को न सुनकर अंग्रेजों ने अपनी तलवे चाटने वाली कांग्रेस को इस देश के शासन के लिए सर्वाधिक उपयुक्त समझा।
जिन्नाह अड़ गया देश बंटवारे पर
23 मार्च 1940 को लाहौर में मुस्लिम लीग के अधिवेशन में अपना भाषण देते हुए मोहम्मद अली जिन्ना ने कहा था :-“हिन्दू और मुसलमानों का सम्बन्ध दो अलग-अलग धार्मिक विचारधारा और सामाजिक रीति-रिवाजों तथा साहित्य से है। वे न तो आपस में विवाह करते हैं और न ही सहभोज करते हैं । वास्तव में उनकी दो अलग-अलग सभ्यताएं हैं ,जो मुख्यतः परस्पर विरोधी विचारों और धारणाओं पर टिकी हैं। उनकी जीवन पद्धति और जीवन भिन्न हैं ।यह नितान्त स्पष्ट है कि हिन्दू और मुसलमान इतिहास के अलग-अलग स्रोतों से प्रेरणा ग्रहण करते हैं। उनके अलग-अलग महाकाव्य हैं । उनके आदर्श वीर पुरुष अलग-अलग हैं, उनकी गाथाएं अलग-अलग हैं। बहुधा होता यह है कि एक का आदर्श पुरुष दूसरे का शत्रु होता है और यही स्थिति उनकी जय और पराजय के विषय में है। ऐसे दो राष्ट्रों की जोड़ी को जिसमें एक अल्पसंख्यक है और दूसरा बहुसंख्यक है ,एक ही राज्य के जुए में जोतने से तो असन्तोष ही बढ़ेगा और ऐसी किसी भी व्यवस्था का विनाश ही करेगा जो ऐसे राज्य के शासन के लिए की जाएगी ।
मुसलमान अल्प संख्या में नहीं हैं – – – जैसा कि समझा जाता है, राष्ट्र की किसी भी परिभाषा के अनुसार मुसलमान एक राष्ट्र है और उनका अपना गृह देश , उनका अपना राज्य क्षेत्र और अपना राज्य होना ही चाहिए।”
‘क्रान्ति -भय’ से अंग्रेजों ने छोड़ा था भारत
इसी समय 1942 में गांधी जी ने ‘अंग्रेजों ! भारत छोड़ो’ आन्दोलन चलाया । जिसे इतिहास में चाहे जितना बढ़ा – चढ़ाकर महिमामण्डित किया गया हो, पर सच यह है कि यह आन्दोलन एक दिन भी प्रभावी ढंग से चल नहीं पाया और जन्म लेते ही मर गया। इस आन्दोलन की निरर्थकता लॉर्ड एटली के इस कथन से सिद्ध हो जाती है :- “हमने सन 1942 के आन्दोलन के कारण भारत नहीं छोड़ा था, हमने भारत छोड़ा नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के कारण। नेताजी अपनी सेना के साथ बढ़ते – बढ़ते इम्फाल तक आ पहुँचे थे और उनके वहाँ पहुँचने के तुरन्त पश्चात नौसेना और वायुसेना में विद्रोह हो गया था।”
लार्ड एटली के इस कथन से पता चलता है कि भारत को आजादी हमारे क्रान्तिकारी आन्दोलन के कारण मिली । इससे यह भी स्पष्ट होता है कि भारत आज जिस रूप में भी हमें दिखाई देता है वह केवल अपने दीर्घकालिक स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लेने वाले असंख्य योद्धाओं और बलिदानियों के कारण दिखाई देता है । यद्यपि छद्म अहिंसावादी लोगों ने भी हमारे देश को पर्याप्त क्षति पहुंचाई। देश का बंटवारा इसी छद्मवादी अहिंसात्मक नीति का परिणाम था । यदि छद्म अहिंसावादी लोग विदेशी शासकों के बहकावे में ना आकर और सत्ता स्वार्थ में न बहकर देशहित को सर्वोपरि रखते हुए ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’- के आदर्श में विश्वास रखकर काम करते तो देश का बंटवारा कभी नहीं होता । देश का विभाजन हो जाना महात्मा बुद्ध की अहिंसात्मक नीति को अपनाकर चलने का सबसे घातक परिणाम था , उसकी पराजय थी , जबकि भारत का भारत के रूप में बने रहना और फिर अंत में स्वतन्त्रता प्राप्त करना हमारे उस मौलिक संस्कार का परिणाम था जिसे हम ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ – के नाम से पुकारते हैं।
गांधीजी के जीते जी बंट गया देश
गांधीजी कहते थे कि मेरी लाश पर पाकिस्तान बनेगा । एक दिन गांधीजी प्रार्थना सभा में अपनी बात रख रहे थे तो किसी व्यक्ति ने उनको उनका पूर्व का यह कथन याद दिला दिया कि – “मातृभूमि के टुकड़े करने से पूर्व मेरे टुकड़े कर डालो।” तब इस पर गांधी जी ने उत्तर दिया -“जब मैंने यह बात कही थी तो मैं जनमत को मुखर कर रहा था , किन्तु अब जनमत मेरे विरुद्ध है । मैं अब इसलिए कोई आन्दोलन चलाने का साहस भी नहीं रखता हूँ , क्योंकि अब मैं नितांत अकेला हूँ तो क्या मैं उसे दबा दूँ।”
गांधी जी अकेले क्यों थे ? केवल इसलिए कि उन्होंने जो कहा था वह किया नहीं। देश के लोग बंटवारा नहीं चाहते थे ,लेकिन अपनी आंखों के सामने सारा देश बंटवारे के घावों को न केवल देख रहा था बल्कि उनसे बहते हुए रक्त से अत्यन्त वेदना भी अनुभव कर रहा था। क्रान्तिकारी देश को गांधीजी की अहिंसावादी नीतियों ने ठग लिया था। – – और मित्रो ! यह सच है कि किसी भी प्रकार के छद्मवाद या ठग विद्या से आप संसार का कुछ समय के लिए मूर्ख बना सकते हैं , परन्तु जब इस दोगलेपन का परिणाम सामने आता है तो लोग साथ छोड़ जाते हैं । गांधी जी के साथ भी यही हुआ था। एक ‘मरे हुए व्यक्ति’ को अमर कर नाथूराम गोडसे ने वास्तव में ‘गलती’ की थी।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति