जवानी उम्र पर नहीं, रोगप्रतिरोधक क्षमता पर निर्भर
डॉ. दीप नारायण पाण्डेय
आधुनिक वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार इम्यूनिटी मूलत: दो प्रकार से समझी जा सकती है। इनेट यानी जन्मजात और एडाप्टिव अनुकूलनीय। इनेट-इम्यूनिटी प्रतिरक्षा की पहली पंक्ति है जो पैथोजेन को मारने वाली कोशिकाओं जैसे न्यूट्रोफिल और मैक्रोफेज द्वारा संपादित की जाती है। किसी विषाणु का संक्रमण होने पर ये किलर-सेल्स तेज गति से सबसे पहले अपना काम करती हैं। एडाप्टिव-इम्यूनिटी की क्रियात्मकता तुलनात्मक रूप से धीमी होती है। इस तंत्र में टी-कोशिकाओं, बी-कोशिकाओं और एंटीबॉडी जैसी व्यवस्था है जो विशिष्ट रोगजनकों पर प्रतिक्रिया देता है। यह तंत्र इम्यून-मेमोरी के लिये भी उत्तरदायी है जो मानव में पहले हुई कुछ बीमारियों को पहचानता है और दुबारा नहीं होने देता। मेमोरी बी-सेल नामक कोशिकायें पैथोजेन को पहचानती हैं, और दुबारा संक्रमण होने पर त्वरित-प्रतिक्रिया करते हुये संक्रमण को निष्फल करने का काम करती हैं।
आयुर्वेद में इम्यूनिटी को रोगप्रतिरोधक क्षमता कहा जाता है। रोगप्रतिरोधक क्षमता को बल, ओज और प्राकृत श्लेष्मा के रूप में भी जाना जाता है। बल वह शक्ति है जिसके द्वारा शरीर विभिन्न चेष्टाओं से कार्य संपन्न करता है। इस कार्योत्पादक शक्ति को व्यायाम-शक्ति से जाना देखा जाता है। चरकसंहिता के दिग्गज टीकाकार आचार्य चक्रपाणि ने लगभग 900 साल पहले च.सू. 28.7 पर टीका करते हुए लिखा कि व्याधिबल की विरोधिता व व्याधि की उत्पत्ति में प्रतिबंधक होना रोगप्रतिरोधक क्षमता है। साधारण शब्दों में बीमारी के बल या तीक्ष्णता को रोकने और बीमारी की उत्पत्ति को रोकने वाली क्षमता को रोगप्रतिरोधक क्षमता कहा जाता है। सभी शरीर रोगप्रतिरोधक क्षमता या रोग प्रतिरोधक क्षमता से संपन्न नहीं होते। किन्तु युक्ति द्वारा शारीरिक और मानसिक बल को बढ़ाया जा सकता है। बल तीन प्रकार के होते हैं: पहला, सहज-बल जन्मजात शारीरिक व मानसिक क्षमता है। दूसरा, कालज-बल उम्र के साथ शारीरिक और मानसिक विकास से प्राप्त होता है। और युक्तिकृत-बल खान-पान, जीवन-शैली और व्यायाम आदि की युक्ति से प्राप्त किया जाता है। ये तीनों ही रोगप्रतिरोधक क्षमता में योगदान देते हैं।
रोगप्रतिरोधक क्षमता को ओज और ओज को बल के रूप में भी समझा जाता है। सुश्रुत 15.9 में कहा है कि रसादिक तथा शुक्रान्त धातुओं के उत्कृष्ट सार भाग को ओज कहते हैं तथा आयुर्वेद के अनुसार उसी का दूसरा नाम बल है। यही बल व्याधियों से शरीर की रक्षा करता है। यहाँ एक बात समझना आवश्यक है ओज और बल हालाँकि एक कहे गये हैं किन्तु ओज को कारण और बल को कार्य माना जाता है। ओज का रूप, रस और वर्ण होने से द्रव्य है जबकि बल इसका कार्य है। यहाँ रोगप्रतिरोधक क्षमता के सन्दर्भ में बल और ओज को एक मान लिया जाता है। इसी सन्दर्भ में प्राकृत कफ को बल या रोगप्रतिरोधक क्षमता का कारण माना जाता है। यही कारण है कि कफज प्रकृति में उत्तम बल, पित्तज प्रकृति के व्यक्तियों में मध्यम बल तथा वातज प्रकृति के व्यक्तियों में अवर बल होता है।
इस प्रकार रोगप्रतिरोधक क्षमता का तात्पर्य व्याधि-बल का विरोध शरीरगत बल द्वारा किया जाता है। रोगप्रतिरोधक क्षमता को प्रभावित करने वाले विभिन्न भावों को दशविधि रोगी परीक्षा के भावों में भी देखा जाता है। उदाहरण के लिये व्यक्ति की मूल प्रकृति का बल से सीधा सम्बन्ध होता है। सबसे उत्तम सम प्रकृति यानी वात-पित्त-कफज है, परन्तु किसी जनसंख्या में समप्रकृति वाले बहुत कम होते हैं। अत: व्यवहार में कफ प्रकृति वालों को बेहतर बल वाला माना जाता है। इसके साथ ही सार भी बल को प्रभावित करता है। सारयुक्त से तात्पर्य यह है कि व्यक्ति में साररूप धातुओं का नियमित निर्माण होता है। सार धातुओं के सम्यक प्रकार से उत्पन्न होते रहने पर शरीर में रोगप्रतिरोधक क्षमता बढिय़ा बना रहता है। जैसा कि पूर्व में चर्चा की गयी है, बल का मुख्य कारक ओज है जो सभी धातुओं का सार है। साररूप में यह सभी धातुओं में व्याप्त होकर धातुओं की रक्षा करता है। रोगप्रतिरोधक क्षमता को प्रभावित करने वाले अन्य भावों में सात्म्य, सत्त्व, अग्नि, शारीरिक-शक्ति व वय हैं। अग्निबल को आहार करने की क्षमता से परखा जा सकता है। आहार-शक्ति (आहार की मात्रा) अग्निबल पर आश्रित है। यदि व्यक्ति की आहार शक्ति मज़बूत है तो भोजन का पाचन और धातुओं की पुष्टि यथोचित होने से शरीर मज़बूत रहता है। व्यायाम-शक्ति या शारीरिक रूप से श्रम करने की शक्ति भी बल का संकेतक है। व्यक्ति की वय या उम्र का भी बल से संबंध होता है। युवावस्था में उत्तम बल और जरा या बुढ़ापा आने पर बल कम रहता है।
इस सब का निचोड़ यह है कि जिस व्यक्ति का सहज या युक्तिकृत रोगप्रतिरोधक क्षमता मजबूत है वह मुश्किल से ही बीमार पड़ता है। यदि बीमार पड़ भी जाये तो बीमारी अपना बल मुश्किल से ही दिखा पाती है। रोगप्रतिरोधक क्षमता में दो शब्द निहित हैं, व्याधि एवं क्षमत्व। व्याधि का तात्पर्य शरीर की धातुओं रस, रक्त, मांस, मेदा, अस्थि, मज्जा, शुक्र में विषमता उत्पन्न होना है। क्षमत्व से तात्पर्य इस विषमता को न होने देने की क्षमता है। मानसिक बीमारियों के सन्दर्भ में सत्त्व गुण जितना अधिक होगा, रोगप्रतिरोधक क्षमता उतना ही बेहतर होगा। शरीर में सहज रोगप्रतिरोधक क्षमता के सन्दर्भ में यह बात महत्वपूर्ण है कि शरीर में दुरुस्त मांसपेशियों, संरचना, स्वरुप व मज़बूत इन्द्रियों वाला व्यक्ति रोगों के बल से कभी प्रभावित नहीं होता। भूख, प्यास, ठंडी, गर्मी, व्यायाम को ठीक से सहन करने वाला, सम अग्नि वाला, बुढ़ापे की उम्र में ही बूढ़ा होने वाला, मांसपेशियों के सही चय वाला व्यक्ति ही स्वस्थ है।
अब प्रश्न यह है रोगप्रतिरोधक क्षमता कैसे बढ़ाया जा सकता है? प्रश्न यह भी है कि उम्र बढऩे के साथ प्रतिरोधक क्षमता में होने वाले ह्रास को कैसे रोका जा सकता है? यदि युवावस्था हो या बढिय़ा स्वास्थ्य हो और आयुर्वेद की सात रक्षा-दीवारों में से आहार, विहार, सद्वृत्त, स्वस्थवृत्त, पंचकर्म, रसायन और औषधि की रक्षा-दीवारों को सम्हाल रखा गया हो, साथ ही बुरी आदतें और घटिया जीवन-शैली नहीं है, तो इस बात की पूरी संभावना है कि आपकी प्रतिरक्षा प्रणाली बढिय़ा काम कर रही है, जो आपको तमाम संक्रामक बीमारियों से सुरक्षित रखने के लिये सक्षम हो सकती है। यह एक पुस्तक लिखने से भी अधिक विस्तृत विषय है किन्तु संहिताओं, शोध और अनुभव के प्रकाश में अति-संक्षिप्त किन्तु प्रमाण-आधारित सलाह यहाँ संक्षिप्त बिन्दुओं में दी गयी है।
आहार – भोजन एक व्यक्तिगत विषय है पर 12 बिंदु महत्वपूर्ण हैं:
1. भोजन में मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त, व कषाय सभी रस वाले खाद्य पदार्थ हों।
2. प्रतिदिन कम से कम 30 प्रजातियां या 30 तरह के पौधों के अंश भोजन में शामिल होना चाहिये।
3. भोजन में प्रतिदिन अनार, द्राक्षा, आँवला सहित सभी रंगों के कम से कम 450 ग्राम फल खाना आवश्यक है। रोगप्रतिरोधक क्षमता ठीक रखने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि आप फलों और सब्जियों को भरपूर मात्रा में अपने भोजन का हिस्सा बनायें। इनमें न केवल विटामिन होते हैं, बल्कि अनेकों फाइटोकेमिकल्स भी हैं जिनके लाभकारी प्रभाव अभी समझ में आना शुरू हुये हैं।
4. भोजन में विविध रंगों के 30 ग्राम या लगभग एक मु_ी सूखे मेवे भी होना चाहिये।
5. भोजन पकाने में हल्दी, जीरा, धनिया, लहसुन, दालचीनी, तेजपात, मेथी, लौंग, कालीमिर्च, सोंठ, छोटी और बड़ी इलाइची, सौंफ आदि प्रतिदिन कम से कम एक भोजन में उपयोग किया जाना चाहिये।
6. घी और दूध रसायन हैं अत: रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में उपयोगी हैं, लेकिन घी खाने का अधिकार उन्हें ही है जो व्यायाम करते हैं।
7. नमक और चीनी अत्यंत कम मात्रा में ही लेना उचित है।
8. परिष्कृत अनाज, स्टार्च, शक्कर, नमक, कृत्रिम पेय, और ट्रांस-वसा युक्त खाद्य में कमी करना चाहिये।
9. पुदीना, कालीमिर्च और सैन्धव लवण मिला हुआ छाछ पीना उपयोगी है।
10. भूख लगी हो अर्थात जब पहले खाया हुआ खाना पूरी तरह से पच गया हो तभी उचित मात्रा में हितकारी भोजन लेना चाहिये। अग्नि का संरक्षण रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने का उत्तम उपाय है।
11. दिन में अधिक से अधिक दो बार अपनी पाचनशक्ति के अनुरूप मात्रापूर्वक भोजन करना चाहिये।
12. स्वस्थ लोग सप्ताह में एक दिन वास्तविक उपवास (दिन भर खाते न रहने वाला उपवास) रख सकते हैं, लेकिन शाम को ठूंस-ठूंस खाकर उपवास की भरपायी करने से उपवास का लाभ नहीं मिलता।
विहार – जीवनशैली रोगप्रतिरोधक क्षमता को ऊपर-नीचे कर देती है। अत: निम्नानुसार कार्यों को प्राथमिकता देना उपयोगी है-
13. प्रतिदिन 60 से 75 मिनट या सप्ताह में कम से कम 150 मिनट का व्यायाम आवश्यक है। व्यायाम बल के आधे तक ही करें, अतिवादी न बनें।
14. प्रतिदिन 30 से 45 मिनट योगासन, प्राणायाम और ध्यान उपयोगी हैं। योग की शक्ति का प्रयोग कर अहितकारी विषयों से मन को तुरन्त हटाइये और हटाये रहिये।
15. दिन में 15 से 20 मिनट सूर्य की किरणों का स्नान करना चाहिये।
16. व्यायाम या योग करते समय और कार्य के बीच में जैसा भी संभव हो ग्रीन-स्पेस, पाक्र्स या गार्डन्स और हरियाली में प्रतिदिन कुछ समय बिताना लाभदायक है।
17. दिन में कार्य करते समय लम्बे समय तक बैठे नहीं रहना चाहिये, बीच बीच में उठकर हल्का-फुल्का व्यायाम कर लेना चाहिये।
18. भगदड़ में रहने वाले लोगों की जीवनशैली रोगजननकारी होती है, अत: सभी कार्य नियत समय पर करना चाहिये।
19. रात में सात घंटे की निर्बाध नींद अनिवार्य है, लेकिन 8 घंटे से अधिक समय तक नहीं सोना चाहिये।
20. यह मत भूलिये कि हितकारी आहार आवश्यक है किन्तु केवल इसी के भरोसे रोगप्रतिरोधक क्षमता सुरक्षित नहीं रह सकता।
सद्वृत्त — समाज और स्वयं के साथ हमारे अच्छे व्यवहार या सदाचरण स्वस्थ रहने और रोगप्रतिरोधक क्षमता ठीक रखने के लिये आवश्यक हैं। सद्वृत्तों का मूल उद्देश्य ईमानदारी, भावनात्मक स्थिरता, मजबूत सामाजिक संबंध, अकेलापन में कमी, लचीलापन, दृढ़ता, आशावाद, आत्म-सम्मान, परोपकार, करुणा और आत्म-नियंत्रण पैदा करना है। सद्वृत्तों का पालन न करने से ऐसी आदतों का खतरा बढ़ जाता है जो रोगप्रतिरोधक क्षमता का क्षय तथा अस्वस्थ कर देती हैं और आयु को कम करती हैं। सद्वृत्त पालन से आरोग्य-प्राप्ति व इन्द्रिय-नियंत्रण एक साथ होते हैं। अत: इनका निम्नानुसार पालन आवश्यक है-
21. दिन में कम से कम दो कार्य नि:स्वार्थ कीजिये। सेवा करने वालों को स्वयं के दर्द की अनुभूति कम होती है।
22. जीवन में शान्ति बनाये रखना उपयोगी है क्योंकि शांति सबसे बड़ा पथ्य है।
23. असमर्थता परम भयकारी है, अत: स्वयं को समर्थ बनाने के सभी प्रयत्न करना चाहिये।
24. सत्य, प्राणियों के प्रति दया, दान, त्याग, आध्यामिकता, सद्वृत्त का पालन, शांति और भली प्रकार से आत्मरक्षा, हितकारी स्थलों में जाकर रहना, लोगों की सेवा, जितेन्द्रिय महर्षियों का सानिध्य, श्रेष्ठ साहित्य का पठन-पाठन, नियत-कर्तव्यों का पालन, सात्विक और सम्मानित दोस्तों के साथ उठना-बैठना सदैव उपयोगी हैं।
25. सुदृढ़ आजीविका, सामथ्र्य व अच्छे मित्र मानसिक रोगों से बचाते हैं। अत: इन्हें प्राप्त करने का निरंतर प्रयास कीजिये।
26. नियत कर्तव्यों का पालन परम प्रसन्नता देता है अत: कर्तव्य-निर्वहन करते रहना चाहिये।
27. सदैव प्रसन्न रहें, क्योंकि विषाद से रोगप्रतिरोधक क्षमता घटता है व रोग बढ़ता है।
स्वस्थवृत्त — दिनचर्या, रात्रिचर्या और ऋतुचर्या से जुड़े अनेक विषय स्वस्थवृत्त में समाहित हैं। उनमें से सर्वाधिक महत्वपूर्ण पर कुछ सलाह यहाँ दी गयी हैं।
28. सोने, सुबह जागने, मल-विसर्जन, स्वच्छता, अभ्यंग, खान-पान, रहन-सहन, आवाजाही, उठना-बैठना, मुंह, दांतों, आँखों, नाक, कान और त्वचा की देखभाल, सफाई प्रक्रिया में एक लयबद्धता लाकर प्रतिदिन कीजिये। ये सर्कैडियन रिद्म के साथ तारतम्य बनाते हुये उम्र-आधारित रोगजनन को रोके रहते हैं।
29. हल्के गुनगुने महानारायण तेल या तिल तेल या अन्य उपलब्ध बॉडी-आयल से नियमित अभ्यंग उम्र के साथ होने वाले रोग परिवर्तनों को विलंबित करने में उपयोगी है तथा दोषों के संतुलन को पुनस्र्थापित करते हुये दीर्घायु प्रदान करता है।
30. प्रत्येक सुबह और घर से बाहर निकलते समय अणु तेल, तिल तेल या घी की कुछ बूंदों को नासाछिद्रों में लगाना (प्रतिमर्श नस्य लेना) उपयोगी है। यह संक्रमण में कमी लाता है और स्वास्थ्य के अनेक लाभ देता है।
31. प्रतिदिन सुबह मुंह में आधा चम्मच तिल का तेल लेकर 5 से 10 मिनट तक घुमाते रहना और फिर बाहर फेंककर साफ़ जल से कुल्ला करना उपयोगी है। इस क्रिया को कवल-गंडूष कहा जाता है। ध्यान दीजिये, इस क्रिया में मुंह में रखा और घुमाया गया तेल पीना नहीं, बाहर फ़ेंक देना है।
32. अनारोग्य अर्थात शारीरिक और मानसिक रोगों को उत्पन्न करने वाले कारणों में मल-मूत्र आदि के वेगों को धारण करना सर्वाधिक खतरनाक है। मूत्र, मल, वीर्य, अपान वायु, उल्टी, छींक, डकार, जम्हाई, भूख, अश्रु, निद्रा और श्रम के बाद नि:श्वास ऐसे वेग हैं जिन्हें दबा कर मत रखिये। जब लगी हो तब निपटाइये।
पंचकर्म, रसायन और औषधियां – पंचकर्म चिकित्सकीय देखरेख बिना संभव नहीं है। इसी प्रकार रसायन और औषधियों को भी चिकित्सकीय देखरेख में ही लेना चाहिये, तथापि भारतीय घरों की रसोई में कुछ द्रव्य युगों से प्रयुक्त हो रहे हैं। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण द्रव्यों को देखना उपयोगी रहेगा।
33. गाय का घी, दूध, आँवला आदि ऐसे रसायन द्रव्य हैं जो भोजन का भी अंग हैं। इन्हें लेना लाभकारी है, किन्तु जैसा कि पहले कहा गया है, घी खाने के साथ व्यायाम अनिवार्य है।
34. कुछ रसायन और औषधियों का मिश्रण ऐसा है जिनका समकालीन विश्व चाय की तरह काढ़ा बनाकर उपयोग कर रहा है। संहिताओं, वैज्ञानिक शोध और वैद्यों के दस्तावेजीकृत अनुभवों के अनुसार कालमेघ, हल्दी, यष्टिमधु, गुडूची, शुंठी, हरीतकी, वासा, शिग्रू, पाठा, तुलसी, आँवला, अश्वगंधा, दालचीनी, कालीमिर्च, पुदीना, द्राक्षा आदि रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में सहायक हो सकते हैं। इन द्रव्यों के विभिन्न पहलुओं पर आज तक 31,082 शोधपत्र प्रकाशित हो चुके हैं। वैद्य की सलाह से इनका युक्तिपूर्वक प्रयोग रोगप्रतिरोधक क्षमता को दुरुस्त रख सकता है।
35. एक रोचक बात यह है कि आयुर्वेद में उच्चकोटि का कुटीप्रवेशिक रसायन च्यवनप्राश अब दुनियाभर में आजस्रिक रसायन हो गया है। लोग ऐसा खा रहे हैं कि अकेले भारत में ही सालाना इसका 500 करोड़ का व्यापार है। च्यवनप्राश पर बहुत अधिक शोध तो नहीं हुई, बमुश्किल 63 पेपर्स ही हैं, पर वैश्विक समाज में इस रसायन ने बिना शोध ही धाक जमा ली है। वैसे भी बाज़ार का व्यवहार कभी शोध पर आश्रित नहीं रहा है।
अंत में यह ध्यान देना आवश्यक है कि यदि निरंतर स्वास्थ्य-रक्षण आपकी प्राथमिकता नहीं है तो आप निरंतर बीमार रहेंगे। आहार व जीवनशैली की त्रुटियों से उत्पन्न होने वाले रोग बिना त्रुटियों को सुधारे दुनिया की किसी चिकित्सा पद्धति से ठीक नहीं होते। इसके साथ ही आयुर्वेद की सलाह टुकड़ों में मानने से कोई लाभ नहीं। आहार, विहार, सद्वृत्त, स्वस्थवृत्त, पंचकर्म, रसायन और औषधि की समग्रता से समझौता करके न तो स्वस्थ रह सकते और न रोगमुक्त हो सकते। सबको एक साथ लेकर चलिये। अनन्यता का सिद्धांत यह स्पष्ट करता है कि आहार, विहार, रसायन-वाजीकर, सद्वृत्त, स्वस्थवृत्त, पंचकर्म व औषधि एक-दूसरे के विकल्प नहीं बल्कि पूरक हैं।
जवानी उम्र पर नहीं, रोगप्रतिरोधक क्षमता पर निर्भर है। लेकिन रोगप्रतिरोधक क्षमता केवल गोलियाँ खाने से रातों-रात नहीं बढ़ता। इसके लिये आहार, विहार, सद्वृत्त, स्वस्थवृत्त, पंचकर्म, रसायन व औषधि जैसे सात रक्षा-कवच सम्हालने पड़ते हैं। अधिसंख्य भारतीय नागरिकों में आयुर्वेद के प्रति भविष्य में विश्वास और रुझान बढऩे की प्रबल संभावना दृष्टिगोचर हो रही है। आप भी जुडिय़े और अपना रोगप्रतिरोधक क्षमता संभालिये।