स्व हरवंशलाल ओबेरॉय
(अनेक प्राच्य भारतीय विद्याओं के अधिकृत जानकार, अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वान)
रूस आर्यों की पश्चिम यात्रा का यूरोप में प्रथम पड़ाव है। मनु के जल प्लावन के समय जब भारत, अरब ईरान का अधिकांश भाग, मध्यपूर्व के देश आदि जलमग्न हो गए थे तब आर्यों की पश्चिमोन्मुखी शाखा को, जहाँ काकेशस पर्वत की तलहटी में, कश्यप सागर के तट पर शरण योग्य भूमि मिली उसे ‘आर्याणां बीजम्’ कहा जाता था। कालांतर में उसी को नाम ‘आर्यनम बायजो’ बोला जाने लगा। उसी के पड़ोस में आर्मेनिया नामक देश है। उसका नाम भी आर्याणां था। 23 शती पूर्व सिकन्दर के काल में उसे आर्यनम् अथवा आर्यमन् कहते थे। यूनानी लोग प्रत्येक देश नाम स्त्रीलिंग वाचक बनाते थे। अत: इतली (इटली) का इतालिया, रूस का रशिया, अरब का अरेबिया, लिथूर का लिथूरिया, आर्यमन् का आर्मेनिया नाम हो गया। इसीलिए रूसी, आर्मेनी, लिथूनी भाषाओं में सहस्रों संस्कृत के तत्सम एवं तद्भव शब्द हैं।
आर्य जाति की मूल भूमि भारत से यूरोप तथा अमरीका तक फैली हुई विशाल आर्य जाति की मूल भूमि तथा मूल भाषा संस्कृत के विषय में पश्चिमी इतिहासकारों ने कई अटकलें लगायी हैं-
(क) अजरबेजान (आर्याणां बीजम्) का सीधा अर्थ आर्यों का बीज स्थान लगाया। यह कहा जा रहा है कि आर्य लोग काकेशस से ही आर्यावर्त (भारत) में आकर बसे तथा कुछ काकेशस से ही यूरोप की ओर फैल गए।
(ख) मध्य एशिया में प्राचीन भारतीय संस्कृति के अवशेषों को पाकर कुछ इतिहासकारों ने यह अनुमान लगाया है कि आर्य वहीं से भारत तथा यूरोप की ओर फैले होंगे।
(ग) महापंडित राहुल सांकृत्यापन ने अपने ग्रन्थ ‘वोल्गा से गंगा’ तथा ‘मध्य एशिया का इतिहास’ में यही संभावना प्रकट की है कि भारतीय आर्य सोवियत रूस देश (श्वेत ऋषि देश) में अजरबेजान क्षेत्र से ही पूरब में भारत की ओर पश्चिम में यूरोप की ओर फैले होंगे।
वास्तव में आर्यों की मूल भूमि आर्यावर्त ही है किन्तु जल प्लावन जैसे भयंकर-प्राकृतिक प्रकोप से बचने के लिए आर्यों की एक बहुत बड़ी शाखा पश्चिम की ओर बढ़ी। यह वर्णन भारत में शतपथ ब्राह्मण, पारसियों की धर्म पुस्तक जेन्दावस्था, यहूदियों की पुरानी बाइबिल, ईसाइयों की बाइबिल, अरबों के कुरान शरीफ इत्यादि में मिलता है। राजर्षि मनु को जल-से बचने के लिए अपनी नौका हिमालय पर्वत में मनाली श्रृंग (हिमालय प्रदेश) से बाँधनी पड़ी, वहीं पश्चिमोन्मुखी आर्यों को इस जल प्लावन के समय जबकि सभी मैदान जल में डूब गए तब यूरोप एवं एशिया के संगम स्थल यूरेशिया क्षेत्र में स्थित 19237 फुट ऊँची काकेशस पर्वत की सर्वोच्च चोटी, एलबु्रस में शरण मिली। वहां आर्यों के बीच की रक्षा होने से वह क्षेत्र ‘आर्याणां बीजम्’ कहलाया। वह आर्यों की मूल भूमि न होकर आर्यों की शरण भूमि थी।
प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार ‘रूसी भाषा के प्राचीनतम् नमूने 11वीं सदीं मध्य के आस-पास के हैं। ….. सच्चे अर्थों में रूसी भाषा में साहित्य का आरम्भ 13वीं सदी से हुआ है। ब्लूमफील्ड एवं मैक्समूलर भी यह मानते हैं कि रूसी भाषा के अभिलेख 12 वीं शताब्दी से मिलते हैं। इसकी तुलना में भारतीय संस्कृत भाषा के ग्रन्थ ईसा से हजारों वर्ष पूर्व के मिलते है। ऋग्वेद जो विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ है तथा कम से कम 10 हजार वर्ष पुराना माना जाता है, उसमें आर्यों की मूल भूमि के रूप में सप्तसिन्धु (उत्तरी भारत) का वर्णन है।
अत: आर्यावर्त को ही आर्यों की मूल भूमि मानकर इतिहास को भूगोल के चौखटे में बिठाने से प्राचीन इतिहास एंव भाषा विज्ञान के प्राय: सभी गुप्त रहस्य प्रकट होने लगते हैं। इस प्रकार सभ्यता एवं संस्कृति का प्रवाह ‘वोल्गा से गंगा’ की ओर न होकर ‘गंगा से वोल्गा’ की ओर ही प्रमाणित होता है।
प्रख्यात यूरोपीय प्राच्यविद्या मनीषी श्री लूई रेणु ने कहा है कि ‘संसार की सब भाषाएं संस्कृत से प्रभावित हैं। ‘प्रख्यात अमेरिकी संस्कृति शोधकर्ता श्री विल डूरेंट ने लिखा है, अर्थात् भारत ही हमारी जाति की जन्मभूमि थी तथा संस्कृत ही यूरोप की भाषाओं की जननी हैं।
महापंडित राहुल सांकृत्यायन ‘सोवियत’ विशेषण को संस्कृत के श्वेत शब्द से व्युत्पन्न मानते हैं। संस्कृत में श्वेत का अर्थ सफेद रंग, उजला अथवा उजाला (प्रकाश) होता है। रूसी भाषा में स्वेत तथा ‘त्स्वेत्’ शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। जैसे, स्टालिन की पुत्री श्वेतलाना का संस्कृत में अर्थ होगा श्वेतानना यानी श्वेत मुखवाली।
राहुल जी के अनुसार रूसी शब्द संस्कृत के ऋषि से निकला है, जिसका अर्थ है ज्ञानी अथवा द्रष्टा। मेरा तथा कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि रूस या रूसी शब्द ‘ऋक्ष’ शब्द से व्युत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है रीछ। यह मनोरंजक तथ्य है कि संस्कृत के ऋषि एवं ऋक्ष (रीक्ष) दोनों एक ही धातु ऋ से निकले हैं जिसका अर्थ है गमन करना या देखना। रीछ की लौकिक दृष्टि बडी व्यापक होती है। दोनों की गति विशेष महत्व की है। ऋषि मोक्ष का मधु विद्या-पान करता है तथा रीछ मधु के छत्ते का मधु। अत: संस्कृत एवं रूसी दोनों में रीछ को मध्वद, मधु खाने वाला कहा जाता है। उत्तरी ध्रुव की परिक्रमा करने वाले सप्तर्षि अर्थात् कश्यप, अत्रि, भृगु, वसिष्ठ, विश्वामित्र, जमदाग्नि, भरद्वाज को रूसी एवं अन्य युरोपीय भाषाओं में सात बड़े रीछ कहा जाता है। रूस में वैसे भी रीछ की इतनी प्रतिष्ठा है कि रीछ रूस का प्रतीक ही बन गया है।
डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार रूसियों के एक प्राचीन कबीले का नाम रास या रासे था। इसी आधार पर देश तथा भाषा का नाम रूस-रूसी पड़ा। कुछ लोग इन नामों का सम्बन्ध रूस के दक्षिणी भाग में बहने वाली नदी रास से जोड़ते हैं।
प्राचीन संस्कृत में श्रव शब्द यश, धन स्तुति आदि के अर्थ में प्रयुक्त होता था तथा अनेक सुन्दर नामों के अंत में श्रवा प्रयुक्त होता था। जैसे सोमश्रवा, वाजिश्रवा, भूरिश्रवा इत्यादि । उसी श्रवा शब्द से रूसी भाषा में स्लाव शब्द प्रचलित हुआ है जो व्यक्तिगत नामों तथा देशवाचक नामों में भी प्रयोग हुआ है। जैसे, श्वेत-स्लाव, व्याचि-स्लाव, स्व्यातोस्लाव इत्यादि व्यक्तिवाचक नाम हैं तथा चेकोस्लाव, यूगोस्लाव आदि देशवाचक नाम हैं। पूर्वा स्लाव भाषाओं में रूसी, बोल्गारी तथा सेर्बो भाषाएं गिनी जाती हैं, तथा पश्चिमी स्लाव भाषा में स्लोवानी, चेक तथा पोलो भाषाएं परिगणित हैं।
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