देश के स्वास्थ्य नीति में आयुर्वेद की भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिए

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डॉ राम अचल

(लेखक आयुर्वेद चिकित्सक तथा वल्र्ड आयुर्वेद काँग्रेस के सदस्य हैं।)

आयुर्वेद के रसाचार्यो के बीच प्राचीन भारत की एक घटना का अक्सर उल्लेख किया जाता है जिसके अनुसार एक बार मगध मे दुर्भिक्ष का प्रकोप हुआ था। वर्षा न होने के कारण सारी फसलों सहित जड़ी-बूटियाँ भी सूख गयी। भोजन के अभाव में जनता कुपोषण और बीमारियों से त्राहिमाम कर रही थी। तत्कलीन राजा ने नालन्दा विश्वविश्वविद्यालय मे इस संकट से निपटने के लिए आचार्यो का महासम्मेलन आयोजित किया। सभी आचार्यो ने अपने-अपने विचार प्रस्तुत किये। अंत में नागार्जुन नामक आचार्य ने अपना विचार प्रस्तुत करते हुए कहा कि सिंगरफ और हिंगुल से पारा निकला जा सकता है, पारे से स्वर्ण प्राप्त हो सकता है, स्वर्ण के व्यापार से राजकोष भर सकता है, जिससे जनता की सहायता कर कुपोषण मुक्त कर रोग से स्वास्थ्य रक्षण किया जा सकता है। स्वर्ण के भस्म से सम्पूर्ण रोगों की चिकित्सा संभव है।

राजा अविश्वास के साथ आश्चर्यचकित सुनता रहा, पर कोई अन्य विकल्प न होने के कारण आचार्य नागार्जुन को इस सूत्र को यथार्थ में बदलने के लिए राजकोष से धन उपलब्ध कराने की राजाज्ञा जारी किया। आचार्य नागार्जुन ने अपने व्यक्त विचार को प्रयोग में बदलकर इतने स्वर्ण का निर्माण किया कि राज्य का राजकोष समृद्ध हो गया तथा भस्म से जनता की चिकित्सा कर स्वस्थ व समृद्ध राज्य की पुनस्र्थापना का कार्य किया। राजा ने प्रसन्न हो आचार्य नागार्जुन को नालन्दा विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया। इसके पश्चात् आचार्य नागार्जुन की ख्याति चीन-जापान सहित पूरे एशिया में फैल गयी।

इस कथा के संदर्भ में आज भारत की स्वास्थ्य नीति को देखा जाय तो हमारे पास एक आयातित स्वास्थ्य नीति है, जिसका लाभ जनता की बजाय बहुराष्ट्रीय दवा कम्पनियों को होता है। जैसा कि हम जानते हैं कि भारत एक विविधतापूर्ण विशाल राष्ट्र है। इसका गठन विविध भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक स्तर, खान-पान, पहनावे और जीवनशैली वाले समूहों से हुआ है। इसका प्रभाव उनके स्वास्थ्य और बीमारियों पर पडऩा स्वाभाविक है। अर्थात् प्रकृति, संस्कृति और स्वास्थ्य का गहरा संबंध है। इसी के अनुसार यहाँ स्वस्थ्य रहने के उपाय और चिकित्सा की विधियाँ भी भिन्नता लिए हुए रही है। जैसे उत्तर भारत में आयुर्वेद, दक्षिण भारत में सिद्ध, हिमालय की पहाडिय़ों में सोवारिंग्पा, आदिवासी क्षेत्रों गुनिया चिकित्सक स्थानीय संसाधनों से स्वास्थ्य की देखभाल करते रहे हैं।

आज वर्तमान भारत में इन पारम्परिक स्थितियों के अलावा आर्थिक स्तर पर भी नये वर्गों का उदय हुआ है। दुर्योग यह है कि देश की स्वास्थ्य नीति इन नये वर्गों के अनुसार ही तय की जाती है। स्वास्थ्य बजट का सर्वाधिक हिस्सा इन पर ही केन्द्रित होता है। यही कारण है कि प्रतिवर्ष इन्सेफेलाईटिस, डायरिया, मलेरिया, लेप्टोस्पाइरोसिस आदि महामारियों से आर्थिक सामाजिक परिधि पर के लोग मरते रहते हैं। कुछ दिन हाय-तौबा के बाद मामला शान्त हो जाता है। इस पर विचार करने की आवश्यकता नहीं समझी जाती है। लोक स्वास्थ्य के संसाधनों और कारणो की घोर उपेक्षा की जाती है। इन्सेफेलाइटिस पर आयोजित एक गोष्ठी में एक चिकित्सक बता रहे थे कि वे इस महामारी के समय सर्वे व आंकड़ो को सहेजने का दायित्व निभा रहे थे। उनके संग्रहित आँकड़ो के अनुसार यह रोग उसी क्षेत्र व परिवारों विशेष रुप से प्रभावित था जहाँ कुपोषण की समस्या थी।

कुपोषण का मुख्य कारण गरीबी नहीं है, इसका मौलिक कारण गाँवों व दूर-दराज के क्षेत्रों के स्थानीय जीवनशैली व संसाधनों पर शहरीकरण का कब्जा किया जाना है। परम्परागत प्राकृतिक संसाधनों के नष्ट किया गया जीवनशैली को भ्रष्ट किया गया और फिर अपना बाजार खड़ा किया गया जिसको खरीदने के लिए औकात की जरुरत होती है।
फिलहाल अब सीधे मूल विषय पर आते हैं। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् स्वास्थ्य को सामाजिक दायित्व व समाज कल्याण के रूप में परिभाषित किया गया। वर्ष 1952 में भोरे समिति ने निम्न संस्तुतियाँ प्रस्तुत की थीं –

1- स्वास्थ्य सेवायें केवल उपचारात्मक ही नहीं होनी चाहिए बल्कि स्वास्थ्य संरक्षण व संवर्धन के लिए भी होनी चाहिए।
2- स्वास्थ्य सेवायें सभी के लिए उपलब्ध होनी चाहिए, चाहे वह उसका भुगतान करने में सक्षम हो या न हो।
3- निकटतम उपलब्धता होनी चाहिए।
4- सामुदायिक सहभागिता बढ़ायी जानी चाहिए।
5- वंचित समूहों जैसे महिलाओं, बच्चों, सामाजिक,आर्थिक रुप से वंचित लोगो पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
6-स्वास्थ मूलत: राज्य का विषय रखा गया परन्तु महामारियों या व्यापक दुष्प्रभाव वाले रोगो के लिए राष्ट्रीय दायित्व भी होना चाहिए। इसके अन्तर्गत मलेरिया उन्मूलन, अंधता निवारण, कुष्ठ, डायरिया, क्षय, मानसिक रोगों के लिए तथा स्वास्थ्य रक्षण के टीकाकरण कार्यक्रम राष्ट्रीय स्तर पर होना चाहिए।
भारत की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति का यह पहला ड्राफ्ट था। इसके अन्तरगत त्रिस्तरीय अस्पतालों की स्थापना की गयी। विशेष अभियानों के लिए पृथक विभाग बनाये गये। पर संसाधनो के अभाव में यह कार्य बहुत धीमी गति से हुआ। इसके पश्चात् वर्ष 1983 में संसद द्वारा राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति का मसौदा तैयार किया गया। इसी क्रम में वर्ष 2002 और अब वर्ष 2017 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीतियाँ आती रहीं, जिनमें प्रारम्भिक काल की सामुदायिक भागीदारी वैश्विक स्तरीकरण और गुणवत्ता बढऩे के प्रयास में व्यावसायिक भागीदारी तक आ पहुँची है।

हालाँकि इन नीतियों से मलेरिया, अंधता, पोलियो, डायरिया आदि अनेक महामारियों पर नियंत्रण पाने में सफलता मिली है, परन्तु आज भी देश की 72 प्रतिशत ग्रामीण आबादी तक आधारभूत स्वास्थ्य सुविधायें नहीं पहुँच पायीं। सम्पन्न वर्ग के पास विकल्पों की सुविधा है, उसे एम्स, पीजीआई से लेकर वेदान्ता, फोर्टिज, एस्कार्ट तक उपलब्ध हैं। सारे आयातित संसाधन,तकनीक और चिकित्सा विज्ञान को भारत जैसे भौगोलिक, सामाजिक तथा आर्थिक विविधतापूर्ण बड़ी आबादी वाले देश में उपलब्ध कराना असंभव नहीं तो दुरुह और अत्यधिक पूँजी वाला कार्य अवश्य है। इसलिए इस असफल होती नीति के कारण 2002 से सरकार ने स्वास्थ्य जैसे मौलिक आधिकार में व्यावसायिक क्षेत्र को शामिल किया, और 2018 आते-आते सरकार इससे हाथ झाड़ कर किनारे होने जैसी नीतियों की ओर बढ़ रही है। अर्थात सवा अरब आबादी के देश का स्वास्थ्य कुछ सम्पन्न लोगों तक सीमित हो कर रह जायेगी।

इधर 2016 में सरकार की ओर से एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया गया, यहाँ उसका भी उल्लेख आवश्यक है। भारत की सभी प्रचलित पारम्परिक चिकित्सा विधियों आयुर्वेद, योग, यूनानी, होम्योपैथी, सिद्धा, सोवारिंग्पा को एक साथ जोड़कर आयुष सिस्टम आफ मेडिसिन बनाया। राष्ट्रीय स्वास्थ्य को लेकर चिंता करने वाले विचारकों के लिए यह उत्साहित करने वाला कदम था। पर केवल पाँच सालों में ही यह उत्साह ठंडा पड़ गया, क्योकि आयुष का प्रचार तो बहुत शानदार ढंग से किया गया पर अभी तक न राष्ट्रीय भागीदारी मिली और न ही हिस्सेदारी। इसका कारण यह रहा कि सरकारी चिकित्सा विज्ञान की परिभाषा में यह फिट नहीं बैठती है। इसे एक सहायक चिकित्सा विधि की तरह देखा जाता है। बाह्य औषधीय प्रयोग और जड़ी-बूटियों को एलौपैथी के मानकों पर प्रमाणित कर एलोपैथी को सौंप दिया जाता है। आश्चर्यजनक तथ्य यह है देश की 60 प्रतिशत आबादी जिस चिकित्सा पर घरेलू रुप में निर्भर है, उसका आधुनिक मानकों पर डाटा माँगा जाता है। इसके शिक्षण संस्थानों के उन्नयन के लिए प्रयास नगण्य है। नीम चढ़ा करेला यह कि इसके शिक्षण में भी व्यावसायिक क्षेत्र को बेलगाम प्रवेश करा दिया गया। इससे बिना प्रायोगिक ज्ञान के आयुष चिकित्सक दोयम दर्जे के एलोपैथिक चिकित्सक बनने को मजबूर हो रहे हैं। आयुर्वेद पर शल्य और रासायनिक औषधियों के प्रयोग, प्रसव कराने तक पर कानूनी प्रतिबंध लदा हुआ है। इसमें योग को ऐसे प्रचारित किया जाता है कि सारी स्वास्थ्य समस्याओं की कुंजी हो, जबकि देश की बहुसंख्य, दूरस्थ, कम आयवर्ग की आबादी को योगा नहीं, पोषण तथा स्वस्थ भोजन की आवश्यकता है। इसप्रकार अदूरदर्शी तथा आयातित स्वास्थ्य नीति के कारण भारत एक बीमार देश बनाता जा रहा है। प्रदूषण, प्राकृतिक संसाधनों का विध्वंस, समृद्ध वर्ग का असंयम, असमृद्ध वर्ग का कुपोषण इसका कारण है। समृद्ध वर्ग में जहाँ मधुमेह, हृदयरोग, रक्तचाप, गुर्दे के रोग आदि महामारी का रुप धारण करते जा रहे हैं, वहीं असमृद्ध आबादी में त्वचा, श्वास, रक्तहीनता, हड्डियों की कमजोरी, कैंसर, टीबी, इन्सेफेलाईटिस आदि रोग महामारी बनते जा रहे हैं। इधर आधुनिक एलोपैथी की दवायें निष्प्रभावी होती जा रही हैं। रोगप्रतिरोधक क्षमता कृत्रिम जीवन शैली के कारण दिनोंदिन घटती जा रही है।
इस हालात में स्वदेशी स्वास्थ नीति ही अपने देश को बीमार देश बनने से बचा सकती है। इसके लिए तमाम कानूनों की समीक्षा करते हुए स्वदेशी चिकित्सा विधियों पर विश्वास के साथ खर्च बढ़ाने की आवश्यकता है। इससे अधिक अदूरदर्शिता भला क्या हो सकती है कि पूरे स्वास्थ्य बजट का मात्र आठ प्रतिशत ही आयुष के लिए रखा जाता है। इस पर एक मंत्रालय का खर्च होना होता है। देश की किसी महामारी के आपदा काल में इन चिकित्सकों या चिकित्सा-विधियों का कोई प्रयोग नहीं किया जाता है। अब इन नीतियों को बदलने का समय आ चुका है। अब आयुष को राष्ट्रीय स्वास्थ्य में उचित दायित्व और बजट में उचित हिस्सेदारी दी जानी चाहिए।

देश की कुल आबादी का ग्रामीण तथा शहरी वितरण क्रमश: 68.84 प्रतिशत और 31.16 प्रतिशत है,अर्थात ग्रामीण आबादी 9018.040 लाख और शहरी आबादी 4081.986 लाख है जिसकी चिकित्सा के लिए 8 लाख एलोपैथिक ग्रेजुएट डाक्टर हैं। अर्थात् रोगी और चिकित्सक का अनुपात 1: 1668 है। परन्तु एलोपैथी के 50 प्रतिशत स्नातक स्पेशिलिस्ट या सुपर स्पेशिलिटी के लिए चले जाते है। अधिकतम् एलोपैथिक स्नातक शहरी क्षेत्रों में ही सेवा देना पसंद करते हैं। यदि एलोपैथिक स्नातकों के साथ यदि 7.5 लाख आयुष चिकित्सकों को जोड़ लिया जाय तो शहरी रोगी तथा चिकित्सक अनुपात 1:7 का हो जाता है और ग्राणीण क्षेत्र में यह अनुपात 1:129 का होता है।

शासकीय सामान्य अस्पताल, क्लीनिक, विशेषज्ञता अस्पताल व क्लीनिक, व्यावसायिक अस्पताल व क्लीनिक, व्यासायिक उच्चस्तरीय अस्पताल, ये सभी आधुनिक चिकित्सा केन्द्र शहरों में ही स्थित हैं, ग्रामीण क्षेत्र के स्वास्थ्य का दायित्व आज भी पारंपरिक व आयुष चिकित्सकों पर ही निर्भर है।

सामान्यत: आयुष चिकित्सा पद्धति को वैकल्पिक चिकित्सा के रूप में देखा जाता है, क्योकि जनता व शासन के दृष्टि में एलोपैथिक पद्धति ही मुख्यधारा की चिकित्सा पद्धति है, जबकि अनेक रोग ऐसे हैं जिनकी समुचित चिकित्सा एलोपैथिक पद्धति में संभव नही होती है। ऐसे रोगों की चिकित्सा आयुष पद्धतियों में ही संभव होती है। इसलिए इस क्षेत्र में हमें विशेष कौशल प्राप्त करने की आवश्यकता है। वर्तमान में जीवनशैली व प्रदूषण के होने वाले रोग पूरी दुनिया में महामारी की तरह फैल रहे हैं, जिसमें आयुर्वेद, योग व अन्य आयुष चिकित्सा पद्धतियां वरदान सिद्ध हो रही है। इस प्रकार स्वास्थ्य के बाजार में आयुर्वेद का बहुत महत्वपूर्ण स्थान विकसित हो रहा है।

आमतौर पर समझा जाता है कि एलौपैथ तुरंत प्रभाव करता है, आयुर्वेद नहीं। सच तो यह है कि आयुर्वेद में त्वरित प्रभाव देने वाली औषधियाँ भी हैं जिनका प्रयोग व अभ्यास आवश्यक है। सामान्य रोगों जैसे ज्वर, वमन, अतिसार आदि जैसे सामान्य रोगो की चिकित्सा भी आयुर्वेद द्वारा तत्कालिक रूप में संभव है। इसलिए आपातकलीन रोगों में भी आयुर्वेद की भूमिका बढ़ायी जानी चाहिए। इसके लिए प्रयोग व अभ्यास पर ध्यान देना होगा। एलोपैथिक एण्टीबायोटिक दवाओं का प्रभाव ज्वर में सात से 10 दिन में होता है, इसके विपरीत आयुर्वेदिक रस-औषधियाँ दवायें तीन से पाँच दिन में लाभ देती हैं। जीवनशैली के रोग जैसै, मधुमेह, जराजन्यरोग, रक्तचाप, तनाव, कमरदर्द, लीवर, मूत्ररोग यौनरोग, स्नायुशूल, अनिद्रा, स्त्री रोग आदि में आयुर्वेद, योग एवं अन्य आयुष चिकित्सा पद्धतियाँ विशेष रुप से लाभदायक हैं। इसके लिए आयुर्वेद के रस-औषधियों का प्रमाणीकरण कर प्रयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

एलौपैथी का प्रभाव घट रहा है। भारत में हर साल लाखों एंटीबायोटिक दवा बिना मंजूरी के बिकती हैं, जिससे दुनिया भर में सुपरबग के खिलाफ लड़ी जाने वाली जंग पर खतरा मंडरा रहा है। ब्रिटेन में हुए एक हालिया शोध में यह चेतावनी देते हुए बताया गया कि भारत में बिकने वाली 64 फीसदी एंटीबायोटिक अवैध हैं। ब्रिटिश जर्नल ऑफ क्लीनिकल फॉर्मेसी में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां बिना मंजूरी के दर्जनों ऐसी दवाएं बेच रही हैं, जबकि पूरी दुनिया पर रोगाणुरोधी प्रतिरोध का खतरा मंडरा रहा है। शोधकर्ताओं के मुताबिक भारत उन देशों में शामिल है, जहां एंटीबायोटिक दवा की खपत और रोगाणुरोधी प्रतिरोध की दर सबसे ज्यादा है। इससे भारत के दवा नियामक तंत्र की असफलता सामने आती है। इस शोध के लिए भारत में 2007 से 2012 के बीच बिकने वाली एंटीबायोटिक दवा और उनकी मंजूरी के स्तर का अध्ययन किया गया। पाया गया कि भारत में 118 तरह की एफडीसी (फिक्स्ड डोज कांबिनेशन) दवा बिकती है, जिसमें से 64 फीसदी को भारतीय नियामक ने ही मंजूरी नहीं दी है। अमेरिका में इस तरह की केवल चार दवा ही बिकती हैं। भारत में कुल 86 एसडीएफ दवा बिकती है।

आयुर्वेद के लिए निर्माण और शोध का व्यापक बाजार है। स्थानीय पारम्परिक आदिवासीय भोज्य पदार्थों जैसे केला, बाँस, मदार, मरुअक, जौ, गिलोय आदि एकल औषधियाँ व योग का अध्ययन करना होगा। इससे स्थानीय रूप से सहज पोषण के साथ रोगप्रतिरोधक क्षमता के साथ चिकित्सा में सुविधा होगी। इसके लिए विज्ञान की अन्य शाखाओं जैसे बायोकेमिस्ट्री, वनस्पति विज्ञान, रसायन विज्ञान, आई.आई.टी. आदि के साथ मिल कर काम किये जाने की आवश्यकता है। इसमें सी.डी.आर.आई., एन बी.आर.आई. के अतिरिक्त विश्वविद्यालयों का सहयोग भी लिया जा रहा है। इस संबंध में कुछ उदाहरण देना चाहूँगा। जैसे, डॉ वाई वी कोहली जो अरुणाचल प्रदेश में केमिस्ट्री के प्रोफेसर रहे हैं, ने माहोनिया और केले के क्षार पर कार्य किया है, जो अरुणाचल प्रदेश का मुख्य भोज्य है। जसमीत सिंह ने अपामार्ग क्षार का प्रयोग बवासीर व घावों की चिकित्सा में किया है। डॉ नरेश नागरथ एक एम.डी. एलोपैथी हैं, पर आयुर्वेद के प्रयोगों से एच. आई.वी और डेंगू के विशेषज्ञ बन चुके हैं। इस तरह के अनेक प्रयोग स्वतंत्र रुप से हो रहे हैं पर सरकारी तंत्र द्वारा उपेक्षित है।
औषधीय वनस्पतियों के व्यावसायिक उत्पाद में अत्यधिक संभावनायें है। इसके लिए कृषि वैज्ञानिकों के साथ मिल काम करने की आवश्यकता है। यह कार्य कुछ आयुर्वेदिक संस्थानों में अन्तर्विषयिक अध्ययन के रूप में आरंभ किया जा चुका है पर यह बहुत सीमित रुप में है जिसे मात्र सांकेतिक ही कहा जा सकता है। कई राज्य सरकारों, केन्द्र सरकार, सेना तथा रेलवे में अब आयुष चिकित्सकों नियुक्तियाँ करने की घोषणा किए हुए आज पाँच साल हो गये पर सरकारी इच्छा शक्ति और उहापोह के करण अभी तक इसका कार्यान्वयन हो नहीं पाया है। पर्यटन के साथ ही विदेशों में भी जीवनशैली के लोगों के लिए आरोग्य केन्द्र विकसित किये जा रहे हैं। भारत सरकार ने भी ऐसी घोषणायें की हैं,जो अभी तक मात्र घोषणा ही है।

इस संबंध में एक उल्लेखनीय कार्य यह करना होगा कि आयुर्वेद या आयुष के संबंध में समाज में फैले भ्रम जैसे धीमे प्रभाव, ,दुष्प्रभावरहित, मँहगी, शल्य रहित, केवल पुराने रोगों में प्रभावी, तीव्र रोगों में प्रभावी न होना आदि को दूर करना होगा। आयुर्वेद के विकास के लिए जनविश्वास आवश्यक है। इसके लिए आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की तरह रोगाधिकार जैसे हृदयरोगाधिकार, त्वकरोगाधिकार, मूत्रवह रोगाधिकार, मानसरोगाधिका आदि के अनुसार ईकाइयाँ होना चाहिए। इससे शोध को बढ़ावा मिलने के साथ चिकित्सकों में आत्मविश्वास भी बढ़ेगा। इसके लिए हमे विज्ञान की आधुनिक शाखाओं के साथ सामन्जस्य स्थापित करना होगा। इसके लिए सरकारों को घोषणाएं करने की बजाय आयुर्वेद के शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थानों गुणवत्ता पर ध्यान देना होगा। देश के स्वास्थ्य नीति में आयुर्वेद की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी।

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