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भारतीय संस्कृति

हिन्दू राजनीति का लक्ष्य है ‘कृण्वन्तो विश्वमार्य्यम्’

हिंदू राजनीति विषय से आशय हिंदू तंत्र अथवा हिंदू राज्य शास्त्र (Hindu Polity-Hindu Politics) से है। यह विषय अति व्यापक एवं दुरूह है। इस विषय के बहुत से प्राचीन ग्रंथ काल के प्रवाह में विलुप्त कर दिये गये हैं। विदेशी आक्रामकों द्वारा अनेक विdownload (13)शाल पुस्तकालय जलाकर राख कर दिये गये। जो दुर्लभ ग्रंथ किसी प्रकार शेष बचे उन्हें विदेशी विद्वान, लेखक व अन्वेषणकर्ता बाहर ले गये। लंदन में विद्यमान इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है जिसमें संस्कृत की 80,000 अस्सी हजार पांडुलिपियां रखी हुई हैं। यह भारतीय मनीषा व प्रतिभा का साक्षात स्वरूप है। यह ब्रिटेन जैसे आधुनिक माने जाने वाले प्रगतिशील देश द्वारा किया गया साहित्यिक चोरी, डकैती का छदम प्रयत्न आज के सभ्य जगत में घिनौना और जंगलीपन का कार्य है। वास्तव में भारत सरकार द्वारा इस पुस्तकालय को ब्रिटिश सरकार से वापिस लेने की मांग की जानी चाहिए।

हिंदू राजनीति का अर्थ है कि भारतवासियों ने अति प्राचीन काल से लेकर आज तक जो राज्य व्यवसाय चलाई उसमें विश्व की सब प्रकार की उत्तम शासन प्रणालियों का प्रारूप उपलब्ध है। हिंदुओं के शासन संबंधी जीवन की सार्वभौम प्रस्तुति इस हिंदू राजनीति में की जाती रही है।

ऋषि दयानंद द्वारा चक्रवर्ती साम्राज्य बनाने का आह्वान

स्वामी दयानंद सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश के छठे समुल्लास में धर्मार्थ सभा, विद्यार्थ सभा के साथ राजार्य सभा के निर्माण का उपदेश दिया है। मनुस्मृति में वर्णित राजधर्म विषय का प्रतिपादन स्वामी जी ने आदरपूर्वक किया है। किसी एक को राज्य व्यवस्था से स्वाधीन न करने का ऋषि संकेत करते हैं जिससे कि स्वाधीन या उन्मत्त होकर राजा कहीं प्रजा का शासक न बन जाए।महर्षि दयानंद ने इस समुल्लास के अंतिम अनुच्छेद में राजनीति करने के अभ्यासी मनुष्यों को जो निर्देश दिया है वह अनुकरणीय है।

वेद, मनुस्मृति के सप्तम, अष्टम, नवम अध्याय में और शुक्रनीति तथा विदुर प्रजागर और महाभारत शांतिपर्व के राजधर्म और आपद्घर्म आदि पुस्तकों में देखकर पूर्ण राजनीति को धारण करके माण्डलिक अथवा सार्वभौम चक्रवती राज्य करें और यही समझें कि वयं प्रजापति: प्रजा अभूम यह यजुर्वेद का वचन है। हम प्रजापति अर्थात परमेश्वर की प्रजा और परमात्मा हमारा राजा, हम उसके किंकर भृत्यवान हैं। वह कृपा करके अपनी सृष्टि में हमको राज्याधिकारी करे और हमारे साथ में अपने सत्य न्याय की प्रवृत्ति करावें।

महर्षि दयानंद का संदेश भारत को विश्व में गौरव दिला सकता है

कदाचित आज के शासनकर्ताओं में यह भाव उत्पन्न हो जाए तो भारत आज विश्व के अग्रणी देशों में फिर से खड़ा हो सकताा है। स्वामी दयानंद के समय में जो राजनीति दर्शन पाश्चात्य देशों में छाया हुआ था उसके समक्ष भारतीय वैचारिक विकल्प का शाश्वत बोध कराने में स्वामी जी पूर्णत: सफल रहे। इसी राजधर्म की व्याख्या में से स्वामी जी ने स्वराज्य व स्वधर्म का संदर्भ प्रस्तुत किया जो भारतीय स्वाधीनता संग्राम के लिए अंग्रेजों के विरूद्घ बहुत बड़ा अस्त्र सिद्घ हुआ। इसी से प्रेरणा लेकर लोकमान्य ने कहा कि स्वराज्य मेरा जन्मसिद्घ अधिकार है। तिलक के लिए कहा गया Tilak was the father of the Indian unrest तिलक भारतीय विप्लव के जनक थे। इस संदर्भ में  Rishi Dayanand was the God Father of Indian unrest ऋषि दयानंद क्रांति के पितामह थे।

हिंदू राजनीति शास्त्र का बेजोड़ अध्याय

महर्षि वेदव्यास ने राजधर्म का सांगोपांग वर्णन महाभारत में किया है। शरशय्या पर लेटे हुए भीष्म पितामह के पास योगीराज श्रीकृष्ण ने युधिष्ठर को नीति उपदेश प्राप्त करने के लिए भेजा।

भीष्म पितामह ने युधिष्ठर को राजनीति का जो मर्म समझाया वह हिंदू राजनीति शास्त्र का बेजोड़ अध्याय है। कालांतर में हिंदू धर्म प्रचारकों ने राजनीति के प्रति जो वितृष्णा उत्पन्न की और आत्मा परमात्मा तथा मोक्ष प्राप्ति के लिए संसार को त्याज्य व गौण मानने का प्रचार किया वह राष्ट्रीय अकर्मण्यता का एक लघु अध्याय ही माना जाना चाहिए।

इस प्रकरण में गोस्वामी तुलसीदास जी को भी गलत ढंग से उद्घत किया गया-कोऊ नृप होऊ हमें का हानि अर्थात कोई भी राजा बन जाए हमें क्या हानि। वास्तविकता कुछ और है। पूरी चौपाई इसका वर्णन करती है-कोऊ नृप होऊ हमें का हानि। दासी छांड भये का रानि। हमें दासी छोड़कर रानी तो बना नही है, अत: कोई भी राजा बन जाए हमें कुछ हानि नही होगी। यह दासवृत्ति का विचार है कि कोई भी राजा बन जाए। जिन्हें दास नही बनना, परतंत्र नही रहना,  स्वतंत्र-स्वाधीन बनना है, उनके लिए कौन राजा बने यह महत्व का विषय है। इसलिए भीष्म पितामह ने युधिष्ठर को सबसे पहले राजधर्म को ठीक करने का कार्य बताया है-

भीष्म पितामह का युधिष्ठर को उपदेश-

मज्जेत्रयी दंडनीतौ हतायां सर्वे धर्मा: प्रक्षयेयुर्विवृद्घा:।

सर्वे धर्माश्चाश्रमानं हता स्यु: क्षात्रे त्यक्ते राजधर्मे पुराणे।।

-महाभारत, शांतिपर्व (63-28)

जिस समय दंडनीति राजनीति निर्जीव हो जाती है, उस समय तीनों वेद डूब जाते हैं, सब धर्म (अर्थात सभ्यता या संस्कृति के आधार) चाहे वे कितने ही उन्नत क्यों न हों, पूर्ण रूप से नष्ट हो जाते हैं। जब प्राचीन राजधर्म का त्याग कर दिया जाता है, तब वैयक्तिगत आश्रम धर्म के समस्त आधार नष्ट हो जाते हैं।

क्रमश:

सर्वे त्यागा राजधर्मेषु दुष्टा:।

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