खगोलीय पिंड और हमारा जीवन
खगोलीय पिंडों, जैसे सूर्य, चंद्रमा, ग्रहों आदि के महत्व को ध्यान में रखते हुए इनकी पूजा सदियों से प्रचलित है। सूर्य को हम अर्घ्य देते हैं जिसका लाभ आगे स्पष्ट किया गया है। इनके योगदानों पर प्रकाश डालने से पूर्व हम विभिन्न खगोलीय पिंडों पर दृष्टिपात करेंगे।
असीम ब्रह्मांड में 3000 मंदाकिनियां गैलेक्सीज विद्यमान हैं। इनमें से ही एक हैं हमारी आकाश गंगा मिल्की वे जिसमें अनगिनत तारे हैं। सूर्य हमारी आकाश गंगा का एक तारा है। इसकी परिक्रमा करने वाले पिंडों को ग्रह कहा जाता है। सौरमंडल के इन ग्रहों की संख्या 9 है: पृथ्वी, बुध, शुक्र, मंगल, वृहस्पति, शनि, अरूण, वरूण एवं कुबेर से सूर्य से विभिन्न दूरियों पर अपनी अपनी दीर्घ वृताकार (इलिप्टीकल) कक्षा (ऑरबिट) में अलग अलग अवधि में सूर्य की परिक्रमा पूरी करते रहते हैं। ग्रह की परिक्रमा करने वाले पिंड को उपग्रह कहा जाता है। इस तरह चंद्रमा पृथ्वी का उपग्रह है जो इससे लगभग 4 लाख किमी की दूरी पर अपनी कक्षा में लगभग 29.5 दिनों में पृथ्वी की परिक्रमा पूरी करता है। इसी तरह पृथ्वी अपनी कक्षा में सूर्य की परिक्रमा लगभग 365 दिनों में पूरी करती है। क्षुद्रग्रह (एस्टेरायड) वे पिंड हैं जो सूर्य की परिक्रमा तो करते हैं किंतु उनका आकार इतना छोटा होता है कि उन्हें ग्रहों में शामिल नही किया जाता। प्रत्येक तारा अर्थात सूर्य ऊर्जा का स्रोत है जिससे विकिरण (रेडियेशन) उत्सर्जित (एमीट) होते रहते हैं। सौर विकिरण (जिसमें दृश्य प्रकाश भी शामिल होता है) को ही ग्रह एवं उपग्रह परावर्तित कर हम तक भेजते हैं जिससे उन्हें हम देख पाते हैं। ग्रहों उपग्रहों का अपना प्रकाश नही होता। इस तरह हम सूर्य से निकली ऊर्जा को सदियों से प्राप्त करते आ रहे हैं जो हमारे जीवन हेतु वरदान है। यही ऊर्जा सूर्य को पूजनीय बनाती है जिससे लोग सूर्य को भगवान मानते हैं अर्थात जीवनदाता जीवन रक्षक। क्या है यह विशाल ऊर्जा?
1. सूर्य एवं सौर ऊर्जा : सूर्य का पिंड तथा उससे निरंतर उत्सर्जित ऊर्जा विशाल है। इसीलिए सूर्य को ऊर्जा का अक्षुण्ण स्रोत कहा जाता है। अथर्ववेद के अनुसार सौर ऊर्जा का आधार सोम (हाइड्रोजन) है (अथर्ववेद 14.1.2:सोमेन आदित्या बलिन)। यजुर्वेद (9.3) में भी ऐसा ही उल्लेख है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार सूर्य पिंड में 90 प्रतिशत हाइड्रोजन, 8 प्रतिशत हिलियम तथा दो प्रतिशत अन्य द्रव्य हैं। सूर्य के केन्द्र का ताप लगभग 1.5 करोड़ डिग्री सेल्सियस तथा बाहरी सतह का ताप लगभग 6000 डिग्री सेल्सियम होता है। इस अत्यधिक ताप पर वहां उपलब्ध हाइड्रोजन परमाणुओं का संलयन (फ्यूजन) होता रहता है तथा उससे हिलियम परमाणु बनते रहते हैं। इस क्रिया में द्रव्य की कुछ हानि हो जाती है जो ऊर्जा के रूप में परिवर्तित होती है। इसे वास्तविक आंकड़ों द्वारा नीचे के पैरा में स्पष्ट किया गया है।
हाइड्रोजन परमाणु के नाभिक (न्यूक्लीअस) में केवल एक प्रोटान ही होता है तथा कोई न्यूट्रान कण नही होता। हाइड्रोजन का परमाणु भार 1.008 होता है। किंतु हाइड्रोजन का एक समस्थानिक (आइसोटोप) है जिसके नाभिक में एक प्रोटान तथा एक न्यूट्रान होते हैं। इसको डयूटेरान या भारी हाइड्रोजन कहा जाता है। इसका परमाणु भार 2.01473 होता है जो हाइड्रोजन से लगभग दोगुना है। सूर्य पर निरंतर हो रही संलयन क्रिया में ये ड्यूटेरान परमाणु ही भाग लेते हैं। दो ड्यूटेरान परमाणुओं का संलयन होने पर जो परमाणु बनता है उसके नाभिक में दो प्रोटान तथा दो न्यूट्रान कण होते हैं जो हीलियम तत्व के परमाणु की संरचना है। इस तरह दो ड्यूटेरान परमाणुओं के संलयन से हीलियम का एक परमाणु बनता है। ज्ञातव्य है कि हीलियम का परमाणु भार 4.00387 होता है जबकि इस क्रिश में शामिल दो ड्यूटेरान परमाणुओं के संलयन से उत्पन्न हीलियम परमाणु भारत 2 गुणा 2.01473=4.02946 होना चाहिए। इस तरह भार में 0.02559 (4.02946-4.00387) की कमी आ जाती है। पदार्थ द्रव्य की यह क्षति आइंस्टीन के संहति ऊर्जा मास इनर्जी सूत्र श्व=द्वष्२ के अनुसार ऊर्जा श्व में परिवर्तित हो जाती है जिसे हम निरंतर प्राप्त करते रहते हैं। इस सूत्र में श्व ऊर्जा द्व पदार्थ की संहति मास तथा ष् प्रकाश विद्युत चुम्बकीय विकिरण का निर्वात वैकुम में वेग ३3१०१० से.मी. प्र. से. या 186000 मील प्र. से. है।
उपर्युक्त संलयन क्रिया हाइड्रोजन बम में भी होती है। सूर्य में निरंतर हो रही इस क्रिया के फलस्वरूप इसके पिंड का लगभग 50 लाख टन पदार्थ प्रत्येक सैकंड में ऊर्जा में परिवर्तित होता रहता है। सदियों से लगातार हो रही सूर्य पिंड में यह कमी एक दिन सूर्य के अस्तित्व को ही समाप्त कर देगी। किंतु अभी चिंतित होने की जरूरत नही है। कारण यह है कि सूर्य पिंड की त्रिज्या रेडिअस लगभग 7 लाख किमी है जिससे यह इतना विशाल है कि हम लोग 30 अरब ३3१०१० वर्षों तक सौर ऊर्जा प्राप्त करते रहेंगे।
सूर्य से लगभग 15 करोड़ कि.मी दूर पृथ्वी पर हम तीन मिनट में जितनी सौर ऊर्जा प्राप्त करते हैं वह संसार के कल कारखानों को महीनों तक चलाने हेतु पर्याप्त है। इसे हम प्रकाश तथा ऊष्मा हीट के रूप में पृथ्वी पर सीधे प्राप्त करते रहते हैं। किंतु परोक्ष रूप में जो ऊर्जा हम लकड़ी, कोयला, पेट्रोलियम पदार्थों आदि से प्राप्त करते हैं वह भी सौर ऊर्जा का ही परिवर्तित रूप होती है। पेड़ पौधों प्रकाश संश्लेषण फोटोसिन्थेसिस विधि से जो सौर ऊर्जा प्राप्त करते हैं। वही हमें पेड़ों की लकड़ी पत्ती आदि को जलाने से मिलती है। इसी तरह पेड़ों द्वारा धारित यह ऊर्जा, भूकंप आदि के कारण, जंगलों के जमीन के नीचे दब जाने से कालांतर में उनसे ही बने कोयले तथा पेट्रोलियम पदार्थों में संरक्षित रहती है जिसे हम इन पदार्थों से परोक्ष रूप से प्राप्त करते हैं। किंतु परोक्ष रूप में इन पदार्थों से प्राप्त सौर ऊर्जा की तुलना में नित्य सूर्य से सीधे प्राप्त ऊर्जा अत्यधिक होती है। एक अनुमान के अनुसार संसार में उपलब्ध, लकड़ी, कोयला, पेट्रोलियम पदार्थ तथा साथ ही यूरेनियम, थोरियम के संपूर्ण भंडार से जितनी ऊर्जा पैदा हो सकती है, उतनी हम सूर्य से केवल तीन दिनों में प्राप्त करते हैं।
सौर ऊर्जा के लिए जो विद्युत चुंबकीय विकिरण (इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन) उत्तरदायी है वे 0.15 से 120.0 माइक्रान (1 माइक्रान=103 मि.मी) तरंगधैर्य (वेवलेंग्थ) के बीच होते हैं। इसमें संपूर्ण दृश्य प्रकाश विजिबुल लाइट, बैंगनी, आसमानी, नीला, हरा, पीला, नारंगी और लाल तथा पराबैंगनी अल्ट्रावायलेट एवं अवरक्त (इंफ्रारेड) विकिरणों के कुछ अंश भी शामिल होते हैं। ज्ञातव्य है कि सौर ऊर्जा का 99 प्रतिशत भाग 0.15 से 4.0 माइक्रान के तरंगधैर्य के विकिरणों से प्राप्त होता है। मोटे तौर पर आधी ऊर्जा दृश्य भाग (0.38 से 0.7 माइक्रान) अर्थात उपयुक्त सात रंगों में निहित होती है तथा आधी ऊर्जा अदृश्य पराबैंगनी (0.15 से 0.38 माइक्रान) तथा अवरक्त (0.7 से 120 माइक्रान) विकिरणों में। सौर ऊर्जा का संपूर्ण भाग हमारी पृथ्वी पर नही पहुंच पाता। वायुमंडल की ओजोन गैस, जलवाष्प, बादल, कुहासा (मिस्ट) कुहरा (फौग) और धूलकण आदि द्वारा अवशोषण (ऐबजार्बशन) तथा संकीर्णन (स्कैटरिंग) के कारण लगभग अस्सी प्रतिशत भाग ही हम प्राप्त कर पाते हैं। ऊपर दिये गये आंकड़ों के अनुसार इतनी ऊर्जा भी कम नही है।
उपयोग: बिना प्रयास के ही प्राप्त इस सौर ऊर्जा का उपयोग हम सदियों से विभिन्न कार्यों हेतु करते आ रहे हैं। वनस्पतियां इसके बिना विकसित हो नही सकतीं, और ये ही हमें भोजन तथा प्राणवायु (ऑक्सीजन) उपलब्ध कराती हैं। शरीर पर सीधे प्राप्त करने से इसके प्रकाश रासायनिक प्रभाव के कारण हमें विटामिन डी प्राप्त होता है। हानिकारक दृश्य अदृश्य कीड़े मकोड़े इससे मर जाते हैं। घर के भीतर की नमी इससे दूर होती है। यह प्रदूषण नाशक है तथा वायुमंडल का शोधक एवं जीवन रक्षक भी। इन खूबियों का उल्लेख अथर्ववेद (8.02.15 तथा 5.2.3.6) एवं यजुर्वेद (4.4) में मिलता है। प्रात:कालीन सूर्य की किरणों में पराबैंगनी विकिरण अधिक मात्रा में पाया जाता है। जो शरीर को विटामिन डी प्रदान करने के साथ साथ विषाणुओं को नष्ट करता है। क्रमश: