राष्ट्र का गौरव है चित्तौडग़ढ़ का किला
विवेक भटनागर
शौर्य और शक्ति के प्रतीक मेवाड़ और चित्तौडग़ढ़ का अपना अस्तित्व सिर्फ किसी जौहर और युद्ध से नहीं है। हम कह सकते हैं कि यह किसी न किसी प्रकार से उत्तर भारत की स्थापत्य कला का शानदार संग्रह भी है। वैसे चित्तौड़ के निर्माता कौन थे, इसके ठोस प्रमाण कहीं से भी प्राप्त नहीं होते हैं, लेकिन इसका इतिहास मौर्य युग और उससे पहले से ही प्रमाणित होने लगता है। रजपूती शौर्य और गरूड़ के समान वीरता की पराकाष्ठा लिए चित्तौडग़ढ़ पहाड़ी पर बने दुर्ग के लिए प्रसिद्ध है। जनश्रुतियों में प्रसिद्ध है कि महाभारत काल में पाण्डु पुत्र महाबली भीम ने अमरत्व के रहस्यों को समझने के लिए इस स्थान का दौरा किया। अपने गुरू से दीक्षित होने के बाद समस्त प्रक्रिया को पूरी करने से पहले वे अधीर हो गए और प्रचण्ड गुस्से में अपने पांव से भूमि पर जोर से प्रहार किया जिससे वहां पर पानी का सोता फूट पड़ा। आज इस स्थान पर एक तालाब है, इसे भीमलत के नाम से जाना जाता है। एक और जनश्रुति मिलती है कि भीम ने अपनी दीक्षा के दौरान खाली समय में यहां अरावली पर्वतमाला की एकल पहाड़ी पर स्थित मैसों के पठार पर दुर्ग का निर्माण किया। इसके बाद इस स्थान को मौर्यों से जोड़ा गया। मान्यता है कि मौर्यों के गर्वनर चित्रांगद मौर्य ने इस स्थान पर दुर्ग का निर्माण करवाया। पौराणिक मान्यता के अनुसार कायस्थों के कुल पुरुष चित्रगुप्त के पुत्र चित्राख्य ने चित्तौड़ व चित्रकूट की स्थापना की। यह माना जाता है गुहिल वंशी बप्पा रावल को 8वीं शताब्दी में सोलंकी राजकुमारी से विवाह करने पर चित्तौडग़ढ़ दहेज में मिला। एक मान्यता यह भी है कि सन् 738 में बप्पा रावल ने राजपूताने पर राज्य करने वाले अंतिम मौर्य शासक मानमोरी को हराकर यह किला अपने अधिकार में कर लिया। फिर मालवा के परमार राजा पृथ्वीवल्लभ मुंज ने इसे गुहिलवंशियों से छीनकर अपने राज्य में मिला लिया। इस प्रकार 9वीं-10वीं शताब्दी में इस पर परमारों का आधिपत्य रहा। सन् 1133 में गुजरात के सोलंकी राजा जयसिंह सिद्धराज ने यशोवर्मन को हराकर परमारों से मालवा छीन लिया। जिसके कारण चित्तौडग़ढ़ का दुर्ग भी सोलंकियों के अधिकार में आ गया। तदनंतर जयसिंह के उत्तराधिकारी कुमारपाल के भतीजे अजयपाल को परास्त कर मेवाड़ के राजा सामंत सिंह ने सन् 1174 के आसपास पुन: गुहिलवंशियों का आधिपत्य स्थापित कर दिया। इन्हीं राजा सामंत सिंह का पृथ्वीराज चौहान की बहन पृथ्वीबाई से विवाह हुआ। तराइन के द्वितीय युद्ध में सामंत सिंह की मृत्यु हो गई।
चित्तौड़ कब मेवाड़ की राजधानी बना, इसके स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं। 1226 ईस्वी में इल्तमश ने मेवाड़ पर आक्रमण किया और इसकी तत्कालीन राजधानी नागदा को नष्ट कर उसमें आग लगा दी। इसके बाद जैत्र सिंह अपनी राजधानी गोगुन्दा के निकट नान्देशमा को अपनी राजधानी बनाया। यहां पर 1222 ईस्वी में बने सूर्य मंदिर के अभिलेख से पता चलता है कि जैत्र सिंह के समय में मेवाड़ की राजधानी नागदा थी। नागदा में सास-बहू और एकलिंग जी जैसे शानदार मंदिरों के परिसर थे। जैत्र सिंह ने पुन: अपनी शक्ति संचयित की और 1232 ईस्वी में इल्तमश की सेना को नागदा के निकट भूताला में पराजित किया। इसके साथ ही तुर्कों को करीब सात दशकों के लिए मेवाड़ से दूर कर दिया। 1261 ईस्वी तक जैत्र सिंह ने नान्देशमा से ही शासन किया। इसके बाद इनके पुत्र रावल तेजसिंह ने नान्देशमा से निकल कर मावली के निकट घासका अपना केन्द्र बनाया और अपने शासन के 12 वर्षों अर्थात 1261 से 1273 ईस्वी के बीच में राजधानी को चित्तौड़ स्थानान्तरित कर दिया। 1303 ईस्वी में यहां के रावल रत्नसिंह की अलाउद्ददीन खिलजी से लड़ाई हुई। यह लड़ाई चितौड़ के प्रथम साका के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस साके में रानी पद्मिनी का प्रसिद्ध जौहर हुआ। इस लड़ाई में अलाउद्दीन खिलजी की विजय हुई और उसने अपने पुत्र खिज्र खाँ को यह राज्य सौंप दिया। खिज्र खाँ ने वापसी पर चित्तौड़ का राजकाज कान्हादेव के भाई मालदेव को सौंप दिया। इसके बाद गुहिल वंश के हम्मीर सिंह ने नागदा के निकट सिसोद गांव से निकल कर चित्तौड़ जीता और एक बार फिर चित्तौड़ गुहिलों के हाथ में आ गया लेकिन अब गुहिलोत सिसोदिया कहलाने लगे। इसे 1568 ईस्वी में अकबर से पराजित होने तक गुहिलों ने अपनी राजधानी बनाए रखा। इसके बाद मुगलों के आक्रमणों से परेशान होकर मेवाड़ के तत्कालीन महाराणा उदयसिंह ने अपनी राजधानी गिर्वा की पहाडिय़ों में स्थित उदयपुर स्थानान्तरित कर दी। यहां से मेवाड़ का इतिहास उदयपुर में आकर केन्द्रित हो गया। लेकिन मेवाड़ के शिल्प की विरासत जो नागदा और चित्तौड़ ने सहेजी उसकी कोई तुलना उदयपुर से नहीं की जा सकती।
वर्तमान चित्तौडग़ढ़
अजमेर से खण्डवा जाने वाले रेल मार्ग पर स्थित चित्तौडग़ढ़ जंक्शन से करीब 2 मील उत्तर-पूर्व की ओर एक अलग मैसों के पठार पर राष्ट्र गौरव चित्तौडग़ढ़ का किला बना हुआ है। समुद्र तल से 1336 फीट ऊंची भूमि पर स्थित 500 फीट ऊंची इस पहाड़ी पर बना यह गढ़ लगभग 3 मील लम्बा और आधा मील तक चौड़ा है। पहाड़ी का घेरा करीब 8 मील का है तथा यह कुल 609 एकड़ भूमि पर बना है।
प्रशासनिक शिल्प का सिरमौर
इतिहासकारों के अनुसार इस किले का निर्माण मौर्यों के गर्वनर चित्रांगद मौर्य ने दूसरी शताब्दी ई.पू़. में करवाया था और इसे अपने नाम पर चित्रकूट के रूप में बसाया। मेवाड़ के प्राचीन सिक्कों पर एक तरफ चित्रकूट नाम अंकित मिलता है। यहां पर मौर्यों, गुहिलोतों प्रतिहारों, परमारों, बघेलों, चौहानों आदि के अधिकार में रहा। इसलिए यहां पर मारू सौलंकी और गुर्जर प्रतिहार शिल्प शैली का विस्तार अधिक नजर आता है। इसके बावजूद बघेलों और परमारों की शिल्पशैली भी प्रबलता से नजर आती है। वास्तव में इस दुर्ग का निर्माण अभी भी हमें विस्मय व रोमांच से भर देता है। लेकिन रणनीतिक दृष्टिकोण से देखने पर पता चलता है कि अपने भौगोलिक कारणों से यह दुर्ग युद्ध के लिए रणथंभौर और कुभलगढ़ जैसे दुर्गों की तरह उपयुक्त नहीं था। नि:संदेह किला सुदृढ़ था। पहाड़ी के किनारे-किनारे उदग्र खड़ी चट्टानों की पंक्ति थी जिसके ऊपर एक ऊंचा और सुदृढ़ प्रकार बना हुआ था। साथ ही साथ दुर्ग में प्रवेश करने के लिए लगातार सात दरवाजे कुछ अन्तराल पर बनाए गये थे। इन सब कारणों से किले में प्रवेश कर पाना तो शत्रुओं के लिए बहुत ही मुश्किल था। परन्तु यह विस्तृत मैदान के बीच एक लम्बी पहाड़ी पर बना है जो अन्य पर्वत श्रेणियों से पृथक हो गया है। दुर्ग के अंतिम प्रवेश तक कुल सात दरवाजे बनाए गए हैं। इसमें प्रवेश के रास्ते से लेकर अन्दर के परिसर तक कई एक इमारतें हैं।
धार्मिक स्थल और शिल्प कालिका माता का मंदिर
पद्मिनी के महल के उत्तर में बायीं ओर कालिका माता का सुन्दर, ऊंची जगती वाला विशाल मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण संभवत: 9वीं शताब्दी में मेवाड़ के गुहिलवंशीय राजाओं ने सूर्य मंदिर के रूप में करवाया था। निज मंदिर के द्वार तथा गर्भगृह के बाहरी पाश्र्व के ताकों में स्थापित सूर्य की मूर्तियां इसका प्रमाण है। बाद में मुसलमानों के समय आक्रमण के दौरान यह मूर्ति तोड़ दी गई और बरसों तक यह मंदिर सूना रहा। उसके बाद इसमें 14वीं सदी में भद्रकाली की मूर्ति स्थापित की गई। मंदिर के स्तम्भों, छतों तथा अन्त:द्वार पर पच्चिकारी का काम दर्शनीय है। मंदिर शैली पंचायतन है। कालिका माता के मंदिर के उत्तर-पूर्व में एक विशाल कुण्ड बना है, जिसे सूरजकुण्ड कहा जाता है। मेवाड़ का राजवंश स्वयं को सूर्यवंशी मानता है इसलिए सूर्य भगवान का पूजन और आशीर्वाद प्राप्त करना उनकी परम्परा थी।
गोमुख कुण्ड
महासती स्थल के पास ही गोमुख कुण्ड है। यहां एक चट्टान के बने गौमुख से प्राकृतिक भूमिगत जल निरन्तर एक झरने के रूप में शिवलिंग पर गिरती रहती है। प्रथम दालान के द्वार के सामने विष्णु की एक विशाल मूर्ति खड़ी है। कुण्ड की धार्मिक महत्ता है। लोग इसे पवित्र तीर्थ के रूप में मानते हैं। कुण्ड के निकट ही उत्तरी किनारे पर महाराणा रायमल के समय का बना एक छोटा सा जैन मंदिर 23वें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ का समर्पित है। पाश्र्वनाथ की मूर्ति पर कन्नड़ लिपि में लेख है। सम्भवत: जब राष्ट्रकूटों ने प्रतिहारों पर आक्रमण किया था उस समय यह मूर्ति दक्षिण से यहां लाकर स्थापित की गई थी।
समिद्धेश्वर महादेव का मंदिर
गोमुख कुण्ड के उत्तरी छोर पर समिद्धेश्वर का भव्य प्राचीन मंदिर है, जिसके भीतरी और बाहरी भाग पर बहुत ही सुन्दर खुदाई का काम है। इसका निर्माण मालवा के प्रसिद्ध राजा भोज परमार ने 11वीं शताब्दी में करवाया था। इसे त्रिभुवन नारायण का शिवालय और भोज का मंदिर भी कहा जाता था। इसका उल्लेख वहां के शिलालेखों में मिलता है। सन् 1428 में इसका जीर्णोद्धार महाराणा मोकल ने करवाया था, जिससे लोग इसे मोकलजी का मंदिर भी कहते हैं। मंदिर के निज मंदिर (गर्भगृह) नीचे के भाग में शिवलिंग है तथा पीछे की दीवार में शिव की विशाल आकार की त्रिमूर्ति बनी है। त्रिमूर्ति की भव्यता दर्शनीय है। मंदिर में दो शिलालेख हैं, पहला सन् 1150 ई. का है, जिसके अनुसार गुजरात के सोलंकी राजा कुमारपाल का अजमेर के चौहान राजा आणाजी को परास्त कर चित्तौड़ आना ज्ञात होता है तथा दूसरा शिलालेख जो सन् 1482 का है महाराणा मोकल से सम्बद्ध है।
महासती (जौहर स्थल)
समिद्धेश्वर महादेव के मंदिर से महाराणा कुम्भा के कीर्तिस्तम्भ के मध्य एक विस्तृत मैदानी हिस्सा है, जो चारों तरफ से दीवार से घिरा हुआ है। इसमें प्रवेश के लिए पूर्व तथा उत्तर में दो द्वार बने हैं, जिसे महासती द्वार कहा जाता है। ये द्वार व कोट रावल समरसिंह ने बनवाया था। चित्तौड़ पर बहादुर शाह के आक्रमण के समय यही हाड़ी रानी कर्मवती ने सम्मान व सतीत्व की रक्षा हेतु तेरह हजार वीरांगनाओं सहित विश्व प्रसिद्ध जौहर किया था। इस स्थान की खुदाई करने पर मिली राख की कई परतें इस करुण बलिदान की पुष्टि करती है। यहां दो बड़ी-बड़ी शिलाओं पर प्रशस्ति खुदवाकर उसके द्वार पर लगाई गई थी, जिसमें से एक अभी भी अस्तित्व में है।
विजय स्तम्भ
महाराणा कुम्भा ने मालवा के सुल्तान महमूद शाह खिलजी को सन् 1440 ई. में प्रथम बार परास्त किया। अपनी विजय के प्रतीक के रूप में इष्टदेव भगवान विष्णु के निमित्त यह विजय स्तम्भ बनवाया था। इसकी प्रतिष्ठा सन् 1448 ई. में हुई। स्तम्भ का निर्माण महाराणा कुम्भा ने अपने समय के महान वास्तु शिल्पी सूत्रधार मंडन के मार्गदर्शन में उनके बनाये नक्शे के आधार पर करवाया था। 120 फीट ऊंचा नौ मंजिला विजय स्तंभ भारतीय स्थापत्य कला की बारीक एवं सुन्दर शिल्प का अद्वितीय नमूना है।
इसके निर्माण में संरचना विन्यास और प्रस्तर पर मूर्ति अंकन के नियमों का पूर्ण पालन किया गया है। संरचना को भूकम्परोधी बनाने के लिए आधार चौड़ा, मध्य भाग संकरा और शीर्ष को ग्रेंटी और केंटीलीवर से चौड़ा किया गया है। इसमें ऊपर तक जाने के लिए 157 सीढिय़ां बनी हुई हैं। इसमें प्रकाश की व्यवस्था के लिए प्रत्येक तल पर झरोखों की व्यवस्था रखी गई है। इसमें विष्णु के विभिन्न रूपों जैसे जनार्दन, अनन्त आदि, उनके अवतारों तथा ब्रह्मा, शिव आदि भिन्न-भिन्न देवी-देवताओं, अर्धनारीश्वर, उमामहेश्वर, लक्ष्मीनारायण, ब्रह्मासावित्री, हरिहर (आधा शरीर विष्णु और आधा शिव का), हरिहर पितामह (ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश तीनों एक ही मूर्ति में), आयुध (शस्त्र), दिक्पाल और रामायण व महाभारत के पात्रों की सैंकड़ों मूर्तियों का अंकन है। प्रत्येक मूर्ति के ऊपर या नीचे उनका नाम भी अंकित किया गया है।
इस प्रकार यह स्तम्भ शिल्प के अलावा भारतीय मूर्ति शिल्प का भी संग्रहालय के समान है। अध्येता यहां पर आकर मूर्तियों की विभिन्न भंगिमाओं का अध्ययन और शोध भी सहजता से कर सकते हैं। यहां पर भारत के भूगोल को बताने के लिए भी चित्रों का प्रदर्शन किया गया है। प्रसिद्ध पुरातत्वविद् आर.सी. अग्रवाल कहते हैं कि महाराणा कुंभा द्वारा निर्मित विजय स्तम्भ का संबंध मात्र राजनीतिक विजय से नहीं है, वरन् यह भारतीय संस्कृति और स्थापत्य का ज्ञानकोष है।
कुंभश्याम का मंदिर
महाराणा कुम्भा ने सन् 1448 ई. में विष्णु के वराह अवतार का यह भव्य मंदिर बनवाया। इस मंदिर का गर्भ प्रकोष्ठ, मण्डप व स्तम्भों की सुन्दर मूर्तियां दर्शनीय हैं। विष्णु के विभिन्न रूपों को दर्शाती हुई मूर्तियां, नागर शैली के बने गगनचुम्बी शिखर और समकालीन मेवाड़ी जीवन शैली को अंकित करती दृश्यावली, इस मंदिर की विशिष्टताएं हैं। मूल रूप से तो यहां वराहावतार की ही मूर्ति स्थापित थी, लेकिन मुस्लिम आक्रमणों से मूर्ति खण्डित होने पर कुंभश्याम की मूर्ति प्रतिष्ठापित कर दी गई।
यहां पर दिक्पाल, अप्सरा और अन्य मूर्तियां भी बड़ी संख्या में उपलब्ध हैं। मंदिर की दीवारों पर कुछ सुन्दर दृश्य भी उकेरे गए हैं, जिन्हें पुराविद् आर.सी. अग्रवाल ने दुर्लभ माना है। इन दृश्यों में गायों के साथ नन्द, छाछ बिलोकर मक्खन निकालती यशोदा और मक्खन चुराते हुए बाल कृष्ण किसी का भी मन मोह लेते हैं। मंदिर के मण्डोवर में अनेक मूर्तियां सजाई गई हैं। इनमें वासुदेव, वराह और विष्णु की मूर्तियां विशेष रूप से आकर्षक हैं।
श्रृंगार चौरी (सिंगार चौरी)
सन् 1448 (वि. सं. 1505) में महाराणा कुंभा के कोषाध्यक्ष बेलाक, जो केल्हा साह का पुत्र था ने श्रृंगार चौरी का निर्माण करवाया था। यह शान्तिनाथ का मंदिर है तथा जैन स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण है। यहां से प्राप्त शिलालेखों से यह ज्ञात होता है कि भगवान शान्तिनाथ की चौमुखी प्रतिमा की प्रतिष्ठा खगतरगच्छ के आचार्य जिनसेन सूरी ने की थी, लेकिन मुगलों के आक्रमण से यह मूर्ति विध्वंस कर दी गई लगती है। अब सिर्फ एक वेदी बची है, जिसे लोग चौरी बतलाते हैं। मंदिरों की बाह्य दीवारों पर देवी-देवताओं व नृत्य मुद्राओं की अनेकों मूर्तियां कलाकारों के पत्थर पर उत्कीर्ण कलाकारी का परिचायक है। श्रृंगार चौरी के बारे में एक मान्यता यह भी है कि यहीं महाराणा कुंभा की राजकुमारी रमाबाई (वागीश्वरी) विवाह हुआ था, लेकिन व्यावहारिक दृष्टिकोण से सोचने पर यह सत्य नहीं लगता।
तुलजा भवानी का मंदिर
इस मंदिर का निर्माण काल सन् 1536-40 ई. है। इसका निर्माण राणा सांगा के कुंवर पृथ्वीराज की दासी से पुत्र बनवीर ने कराया था। बनवीर भवानी का उपासक था और उसने अपने वजन के बराबर स्वर्ण इत्यादि तुलवा (तुलादान) कर इस मंदिर का निर्माण आरंभ कराया था, इसी कारण इसे तुलजा भवानी का मंदिर कहा जाता है। इसी बनवीर के परिवार से निकले महाराष्ट्र के भौंसले वंश की कुलदेवी भी तुलजा भवानी है। इसे कभी-कभी शिवाजी की इष्टदेवी भी कहा गया है।
कुकड़ेश्वर का कुण्ड तथा कुकड़ेश्वर का मंदिर
रामपोल से प्रवेश करने के बाद सड़क उत्तर की ओर मुड़ती है। उससे थोड़ी ही दूर पर दाहिनी ओर कुकड़ेश्वर का कुंड है, जिसके ऊपर के भाग में कुकड़ेश्वर का मंदिर है। किंवदन्तियों के अनुसार ये दोनों रचनाएं महाभारत कालीन है तथा पाण्डव पुत्र भीम से जुड़ी हैं।
नीलकंठ महादेव का मंदिर
महावीर स्वामी के मंदिर से थोड़ा आगे बढऩे पर नीकण्ठ महादेव का मंदिर आता है। कहा जाता है कि महादेव की इस विशाल मूर्ति देखते ही बनती है। ऐसा ही विशाल शिवलिंग सर्वप्रथम नागदा में सासबहू के मंदिर के निकट खुमाण रावल के देवरे में देखने का मिलता है। यह मंदिर 753 इस्वी का माना जाता है। इसके बाद नीलकंठ महादेव मंदिर कुम्भलगढ़ में भी ऐसा ही विशाल शिवलिंग देखने का मिलता है। मेवाड़ में ऐसे विशाल शिवलिंग निर्माण की परम्परा मेवाड़ में पुरानी रही है।
शौर्य स्मारक
लाखोटा की बारी
रत्नेश्वर कुंड से थोड़ी दूर पर पहाड़ी के पूर्वी किनारे के समीप लाखोटा की बारी है। यह एक छोटा सा दरवाजा है, जिससे दुर्ग के नीचे जा सकते हैं। इसी द्वार के पास मेवाड़ के वीर सेनापति के पैर में अकबर की गोली लगी थी। इसके बाद जयमल अपने साथी पत्ता सिसोदिया के कंधे पर बैठकर लड़ा। अबुल फजल ने आईन-ए-अकबरी में लिखा कि जब जयमल पत्ता के कांधे पर चढ़कर लड़ रहा था तो लग रहा था कि चतुर्भुज विष्णु स्वयं अपने आयुध धारण कर युद्धरत हों।
रामपोल में प्रवेश करते ही सामने की तरफ लगभग 50 कदम की दूरी पर स्थित चबूतरे पर सिसोदिया पत्ता के स्मारक का पत्थर है। आमेर के रावतों के पूर्वज पत्ता सन् 1568 में अकबर की सेना से लड़ते हुए इसी स्थान पर वीरगति को प्राप्त हुए थे। कहा जाता है कि युद्धभूमि में एक पागल हाथी ने युद्धरत पत्ता को सूंड में पकड़कर जमीन पर पटक दिया जिससे उनकी मृत्यु हो गई।
सूरजपोल और चूंडावत सांई दास का स्मारक
नीलकंठ महादेव के मंदिर के बाद किले के पूरब की तरफ एक दरवाजा है, जो सूरजपोल के नाम से जाना जाता है। यहां से दुर्ग के नीचे मैदान में जाने के लिए एक रास्ता बना हुआ है। इस दरवाजे के पास ही एक चबूतरा बना है, जो संलूबर के चूंडावत सरदार रावत साईदास का स्मारक है। वे सन् 1568 में अकबर की सेना के विरुद्ध लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे।
चित्तौड़ी बुर्ज व मोहर मगरी
दुर्ग का अंतिम दक्षिणी बुर्ज चित्तौड़ी बुर्ज कहलाता है। इस बुर्ज के 150 फीट नीचे एक छोटी-सी पहाड़ी (मिट्टी का टीला) दिखाई पड़ती है। यह टीला कृत्रिम है और कहा जाता है कि सन् 1567 ई. में अकबर ने जब चित्तौड़ पर आक्रमण किया था, तब अधिक उपयुक्त मोर्चा इसी स्थान को माना। किले पर आक्रमण के लिए मिट्टी डलवा कर उसे ऊंचा उठवाया, ताकि किले पर आक्रमण कर सके। प्रत्येक मजदूर को मिट्टी की टोकरी के लिए एक-एक मोहर दी गई थी। अत: इसे मोहर मगरी कहा जाता है।
बीका खोह
चत्रंग तालाब के समीप ही बीका खोह नामक बुर्ज है। सन् 1537 ई. में गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह के आक्रमण के समय लबरी खां फिरंगी ने सुरंग बनाकर किले की 45 हाथ लम्बी दीवार विस्फोट से उड़ा दी थी। दुर्ग रक्षा के लिए नियुक्त बून्दी के अर्जुन हाड़ा अपने 500 वीर सैनिकों सहित वीरगति को प्राप्त हुए।
भाक्सी
चत्रंग तालाब से थोड़ी दूर उत्तर की तरफ आगे बढऩे पर दाहिनी ओर चारदीवारी से घिरा हुआ एक थोड़ा-सा स्थान है, जिसे बादशाह की भाक्सी कहा जाता है। कहा जाता है कि इस इमारत में, जिसे महाराणा कुम्भा ने सन् 1433 में बनवाया था। मालवा के सुल्तान महमूद को यहां गिरफ्तार कर रखा था।
गोरा-बादल की घूमरें
पद्मिनी महल से दक्षिण-पूर्व में दो गुम्बदाकार इमारतें हैं, जिसे लोग गोरा-बादल के महल के रूप में जानते हैं। गोरा महारानी पद्मिनी का चाचा था व बादल चचेरा भाई था। रावल रत्नसिंह को अलाउद्दीन के खेमे से निकालने के बाद युद्ध में पाडन पोल के पास गोरा वीरगति को प्राप्त हो गए और बादल युद्ध में 12 वर्ष की अल्पायु में ही मारा गया था।
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