वैचारिक धरातल ही है
जीवन निर्माण का मूलाधार
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मनुष्य का चरित्र और व्यवहार न सिर्फ मस्तिष्क और मन को प्रभावित करता है बल्कि जैसी हमारी मानसिकता होती है उसी के अनुरूप शरीर आकार पा लेता है अथवा जैसा आकार होता है उसके अनुरूप मन-मस्तिष्क की धाराएँ बहने लगती हैं। इस मामले में मानसिकता और शारीरिकता दोनों में परस्पर गहरा अन्तः संबंध है। किसी दुर्घटना या अन्य आधि-व्याधि-उपाधि की वजह से मानसिक एवं शारीरिक विकृति आ जाए, वो अलग बात है।
अधिकांश मामलों में मानसिकता और व्यक्ति की सोच के अनुसार शरीर अपने आप सँरचना प्राप्त कर ही लेता है, यह शाश्वत सत्य है। हम रोजाना खूब सारे लोगों के संपर्क में आते हैं, ढेरों लोग हमारे गलियारों में आवागमन करते रहते हैं और भ्रमण करते हुए या कहीं काम-धंधों पर रहते हुए हमारे सामने ऎसे काफी लोग आते हैं जो किसी न किसी प्रकार की शारीरिक असंतुलन जैसी स्थिति के होते हैं।
इन लोगों के मनोविज्ञान के बारे में थोड़ी सी गंभीरता और पैनी निगाह डाली जाए तो इनके कर्म, व्यवहार और चरित्र में भी कहीं न कहीं असंतुलन जैसी स्थितियां सामने दिखने ही लगेंगी। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो अधिकतर मामलों में शरीर की संरचना को देखकर किसी भी इंसान की मानसिकता को अच्छी तरह परिभाषित और अभिव्यक्त किया जा सकता है।
अक्सर हम देखते हैं कि विभिन्न वाहनों के ड्राईवरों में से काफी लोग थोड़े टेढ़े बैठते हैं और कइयों का एक पुट्ठा उनकी सीट से थोड़ा बाहर निकला होता है अथवा वे टेढ़े बैठने के आदी हो जाते हैं। कई दुपहिया वाहन सवार ड्राइविंग करते हुए झुककर चलते हैं, कइयों का एक कंधा झुका होता है और दूसरा ऊपर की ओर उठा हुआ।
कई लोग जहाँ कहीं बैठेंगे, चुपचाप नहीं रह पाएंगे बल्कि इनमें से अधिकतर की आदत लगातार पाँव हिलाने की होती है। कई लोग बातचीत करेंगे या बैठेंगे तब भी सीधे नहींं रहेंगे बल्कि किसी न किसी प्रकार से उनका पूरा शरीर टेढ़ा या झुका हुआ होगा ही। खूब सारे वक्ताओं की गर्दन भाषण देते समय एक तरफ झुकी हुई रहती है जबकि कइयों की गर्दन लगातार चक्राकार परिभ्रमण करती रहती है।
काफी लोगों की आदत होती है बेवजह अपने कंधों को हिलाने की। खूब ऎसे हैं जो जहाँ भी रहेंगे वहाँ अकेले ही बड़बड़ाते रहते हैं। कइयों की आदत कुछ-कुछ पल में दोनों आँख मीचते रहने की हो जाती है। कई सारे लोग बार-बार थूकने को उतावले रहते हैं जबकि काफी ऎसे होते हैं जिन्हेंं कुछ-कुछ सैकण्ड में दाँत भींचने या बजाने की आदत हुआ करती है।
चित्त के धरातल पर उठने वाली हर तरंग का सीधा प्रभाव शरीर की संरचना पर पड़ता है और इन्हीं के आधार पर शारीरिक परिवर्तन होता रहता है। मन-मस्तिष्क में सूक्ष्म धरातल पर जो भी कुछ सोच-विचार होगा और कल्पनाओं का सृजन होगा, उसके लिए चित्त में नए आईकान का निर्माण होगा जिसका शॉर्ट कट भले ही दिमाग में होगा लेकिन स्थूल रूप शरीर के ही किसी अंग पर प्रभाव दिखाना आरंभ कर देता है। फिर सूक्ष्म धरातल पर जो भी वैचारिक क्रिया होती है उसकी प्रतिक्रिया स्थूल रूप में शरीर पर जरूर होगी ही।
अपनी सोच और व्यवहार जैसा होता है, शरीर उसी का स्थूल रूप में अनुसरण करने लग जाता है। कई पतले-दुबले लोगों को मोटा होने की पड़ी रहती है जबकि दूसरी ओर बहुत बड़ी संख्या ऎसे मोटे लोगों की है जो पतला होने के लिए लाख जतन करते रहते हैं। इन लोगों को चाहिए कि अपने दिमाग में स्वयं के मोटे या पतले होने का भाव त्याग दें।
एक बार सूक्ष्म धरातल पर जिस विचार या कल्पना को त्याग दिया जाता है उसका स्थूलीकरण होना बंद हो जाता है तथा इससे जुड़ी समस्याएं अपने आप पलायन करने लगती हैं। एक स्थिति ऎसी आती है जब सूक्ष्म स्तर पर बीज तत्व नष्ट हो जाता है तब शरीर से स्थूलता का अस्तित्व भी समाप्त होने लगता है और इससे कई समस्याएं अपने आप समाप्त हो जाती हैं।
इसलिए मानसिक स्तर पर अपने आप को सुदृढ़ बनाएं और सूक्ष धरातल को साफ व सुन्दर रखें, इससे शरीर के कई विकास और समस्याएं स्वतः ही समाप्त होने लगती हैं। मन-मस्तिष्क के धरातल पर किसी खराब विचार या कल्पना को प्रांरभिक अवस्था में ही नष्ट कर दिया जाना चाहिए।
इसी प्रकार जीवन के लिए उच्च लक्ष्यों की भावनाओं भरे विचारों और कल्पनाओं को अधिक से अधिक शक्ति और तीव्रता भरे वेग के साथ मजबूत सूक्ष्म धरातल दें ताकि इनका स्थूलीकरण होकर ये सुनहरे आकार को प्राप्त कर सकेंं। यह बात पिण्ड से लेकर परिवेश तक सभी पर लागू होती है।