पंचतंत्र की बकरी की कहानी और आज का सोशल मीडिया
आज सोशल मीडिया के बारे में कुछ बातें करते हैं, बहुत से मित्रों के कई प्रश्न हैं इस विषय पर, तो ये दावा तो नहीं है कि सभी के उत्तर दे सकता हूँ लेकिन कुछ बातें अवश्य समझने जैसी हैं। पंचतंत्र से ही बात शुरू करते हैं
ब्राह्मण की बकरी को ठगों द्वारा चुराने की पंचतंत्र में एक प्रसिद्ध सी कहानी है। वैसे तो ये दूसरों की बातों पर सोच समझ कर भरोसा करने जैसी चीज़ें सिखाती है, लेकिन इसका दूसरा इस्तेमाल भी हो सकता है। लिखना सीखने के सबसे आसान तरीकों में से एक अंग्रेजी में सिखाया जाता है। इस तकनीक को ‘5Ws and H’ कहते हैं। इस आसान से तरीके से बच्चों को भी सिखाया जा सकता है (कभी कभी मेरे जैसे थोड़े बड़े बच्चे भी इस्तेमाल कर लेते हैं)। कुल छह प्रश्नों की इस तकनीक को सदियों पुरानी कहानी में जोड़ लीजिये।
सबसे पहला W है Who, यानि कहानी में कौन लोग शामिल हैं? इस कहानी में मित्र शर्मा नाम का एक ब्राह्मण है, तीन ठग हैं और एक बकरी। दूसरा W है What यानि क्या। अगर सोचें कि इस कहानी में हुआ क्या था, तो इस सवाल का जवाब मिल जाता है। इस कहानी में एक ब्राह्मण था जिसे दान में एक बकरी मिली थी। जब वो जंगल के रास्ते बकरी लेकर लौट रहा था तो उसे ठगकर कुछ चोर बकरी ले जाते हैं। तीसरा W, कहाँ यानि Where का है। कहानी जंगल के रास्ते में घटी इसलिए कहाँ हुई ये पता चलता है।
चौथा W कब यानि When के लिए है। कहानी दिन के (शायद दोपहर से शाम के बीच) घटित होती है, इसलिए कब का जवाब भी मिल जाता है। पांचवा W है Why मतलब क्यों के लिए। जाहिर सी बात है कि चोर किसी तरह से ठगकर ब्राह्मण की बकरी चुरा लेना चाहते थे, इसलिए उन्होंने एक जाल बुना। आखरी H अक्षर, How के लिए होता है, जो कैसे हुआ इस पूरे घटनाक्रम को बताता है। कैसे बताने में एक ठग का बकरी को भैंसा, दूसरे का कुछ और फिर तीसरे का कुछ और बताना, अंत में मित्र शर्मा का बकरी को कोई मायावी जीव समझकर छोड़ देना बताया जाएगा।
बस इतने से पर कहानी बनकर तैयार हो जाती है। अगर लेखक इन पाँचों सवालों के जवाब नहीं दे सकता तो उसकी कहानी अधूरी रहती है। अब ये जो व्हाट्स-एप्प फर्जी समाचारों को रोकने के लिए बदलाव लाने के बारे में सोच रहा है, आप उसके बारे में सोचिये। क्या हुआ, कब हुआ, इन दो सवालों के जवाब तो हर फर्जी और भड़काऊ खबर में आपको मिलते हैं। कभी सोचा है कि कैसे, क्यों, किसने जैसे सवालों के जवाब कहाँ गुम हो जाते हैं? सिर्फ ये 5Ws and H पूछने भर से कई झूठी ख़बरें भी गायब हो जातीं।
सोचने की बात ये भी है कि आखिर फर्जी-भड़काऊ ख़बरों के फैलने में ज्यादा गलती किसकी है? पंचतंत्र वाले ब्राह्मण, मित्र शर्मा की तरह आप अपना दिमाग लगाए बिना लोगों को ठगने का मौका तो नहीं दे रहे? पंचतंत्र, बच्चों की किताब होती है, या पुराने ज़माने की, संस्कृत में लिखी, कोई आज के लिए अप्रासंगिक किताब होती है, ये सब सोचकर आपने पढ़ी नहीं? कहीं ऐसी किताबें पढ़ते देखकर कोई पोंगापंथी, ‘नॉट प्रगतिशील एनफ’ ना मान ले, ऐसा सोचकर नहीं पढ़ी? सोचिये, फ़िलहाल सोचना टैक्स फ्री भी है!
मनगढंत और सुनी-सुनाई, सन्दर्भहीन कहानियों को सच मान लेने से क्या होता है? पहले उनके जरिये एक कथानक (नैरेटिव) गढ़ा जायेगा और फिर उस नैरेटिव का इस्तेमाल आपकी एक परंपरा को ख़त्म करने के लिए किया जायेगा। इस तरीके को चीन में भयावह मौत की सजा देने के लिए इस्तेमाल किया जाता था और इसे “डेथ बाय ए थाउजेंड कट्स” कहते हैं। यानी छोटे-छोटे बहुत से घावों से तबतक खून रिसता रहेगा, जबतक कि मौत ना हो जाए! सिनेमा और टीवी के जरिये जब ऐसे झूठ फैलाये गए तो लोग कई नयी गढ़ी झूठी कहानियों पर विश्वास करने लगे। उदाहरण के तौर पर रक्षाबंधन से जुड़ी कहानियों को लीजिये। भविष्य पुराण सबसे नए पुराणों में से है। उसके उत्तर पर्व में 137वें अध्याय में महाभारत का युद्ध बीत जाने के बाद की कथा आती है। यहाँ वो ऋषि व्यास से जानना चाहते हैं की कौन कौन से व्रत आदि किये जाने चाहिए।
यहाँ व्यास ये जिम्मेदारी श्री कृष्ण को सौंपते हैं और फिर वो सावन की पूर्णिमा पर रक्षाबंधन के लिए इंद्र और शची की कहानी सुनाते हैं। इंद्र, उस समय देवासुर संग्राम में इंद्र के ना जीत पाने के कारण व्यथिति थे। जब वो इस बारे में देवगुरु बृहस्पति से सलाह लेते हैं तो वो उन्हें रक्षा सूत्र के बारे में बताते हैं और कहते हैं कि इसे कोई भी बाँध सकता है। इंद्र की पत्नी शची, इंद्र की कलाई पर रक्षासूत्र बांधती हैं। इसकी जो हुमायूँ और कर्णावती वाली शेखुलर कहानी गढ़ी जाती है, उसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण जाने-माने इतिहासकार सतीश चंद्रा को भी नहीं मिला था। वो अपनी “मेडीवाल इंडिया: फ्रॉम सुल्तनत टू मुगल्स” के दूसरे भाग में साफ़ लिखते हैं कि समकालीन इतिहासकारों ने इसके विषय में कुछ नहीं लिखा। इसलिए ये कहानी मनगढंत और सेक्युलरवाद को फ़ैलाने के लिए बाद में वैसे ही गढ़ी गयी होगी जैसे अकबर-बीरबल के फ़र्ज़ी किस्से बने हैं।
ये परंपरा के रूप में कुछ इस तरह भी मनाई जाती थी कि सावन के अंत में जब विवाहित स्त्रियां अपने मायके लौटने लगतीं तो अपने भाइयों को दूब और धागे इत्यादि की बनी राखी बांधती जातीं। नेपाल में करीब करीब इसी वक्त ऋषितर्पणी मनाया जाता है और भाई-बहनों के त्यौहार जैसा रक्षासूत्र दिवाली के वक्त बाँधा जाता है। बंगाल और उसके आस पास के इलाकों में इसी वक्त झूलन नाम का त्यौहार होता था जो राधा-कृष्ण का त्यौहार है। इसमें कई छोटे-छोटे खिलौने सजाने की परंपरा हमने बचपन तक देखी है। ऐसा कुछ अब भी होता तो संभवतः उसकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर भी दिखती लेकिन लगता है बंगाल का ये त्यौहार अब ख़त्म हो चला है। महाराष्ट्र के कोली समुदाय (जिससे विख्यात तानाजी मालसुरे भी थे) इसे नारळी पूर्णिमा (नारियल पूर्णिमा) के रूप में मनाता है। वहां भी भाई को रक्षासूत्र बांधने की परंपरा है।
अभी खरीदी हुई राखी और परंपरा का जो रूप नजर आता है उसमें फिल्मों का काफी योगदान है। फिल्म इतिहासकार ऑर्थर पोमेरॉय एक सिकंदर नाम की 1941 की फिल्म का जिक्र करते हैं जिसमें रॉक्जेन आकर पोरस को राखी बांधती है और उसके बदले में पोरस युद्ध में एलेग्जेंडर को मारता नहीं। ऐसा बाद की फिल्मों में भी दोहराया गया और इससे ये नैरेटिव सेट हो पाया कि भाई से रक्षा के वचन के बदले राखी बांधी जाती है। पी.एम. जोशी और के.एम. सेठी (जिन्होंने “स्टेट एंड सिविल सोसाइटी अंडर सीज: हिदुत्व, सिक्योरिटी एंड मिलिटरिस्म इन इंडिया” जैसी किताब लिखी है) की मानें तो इसे (मौजूदा स्वरुप में) बढ़ावा देने में आरएसएस का भी काफी योगदान रहा है। आरएसएस और एबीवीपी जैसे संगठनों की वजह से ये त्यौहार भारत के दक्षिणी भागों में फैला। पहले वहां इसका ज्यादा प्रचार-प्रसार नहीं था। ये तर्क हजम नहीं होता क्योंकि आरएसएस संस्कृति को प्रभावित कर सके इतना शक्तिशाली कभी था, इसमें संदेह है।
वैसे विदेशी चश्मे से देखें तो मानव शास्त्री (और समाजशास्त्री भी) धर्म और संस्कृति को “ग्रेटर ट्रेडिशन” और “लिटिल ट्रेडिशन” यानि बड़ी और छोटी धाराओं में बांटने की कोशिश करते पाए जाते हैं। विदेशी सन्दर्भों में जहाँ क्रिसमस का बाइबिल में कोई जिक्र नहीं मिलता, वहां लिखित और अलिखित के आधार पर ग्रेटर या लिटिल में बांटना आसान है। भारतीय सन्दर्भों में जहाँ धर्म और संस्कृति के बीच रेखा नहीं होने जैसी है, वहां ये काम भी मुश्किल हो जाता है। इसके अलावा एक ही त्यौहार को कई अलग अलग रूपों में मानना भी हिन्दुओं में संभव है। यहाँ इस आधार पर रक्षाबंधन को बांटना संभव नहीं हो पाया। इन सब के बीच किसी और के धर्म के लोगों को अपने मजहब-रिलिजन में ठगकर, बरगला कर या धमकाकर ले आने का प्रयास करने वालों ने मौके का फायदा उठाने की कोशिश करना नहीं छोड़ा।
उन्होंने इसे नारीवाद से जबरन चिपकाने की कोशिश की। अकादमिक स्तर पर कहा गया कि ये त्यौहार संभवतः बहनों को पैतृक संपत्ति में अधिकार ना देने का एक तरीका है। ये तर्क कम कामयाब हुआ क्योंकि संपत्ति के अधिकारों के जो मौजूदा कानून हैं वो मिताक्षरा और दायभाग जैसे कानूनों का सीधा अनुवाद हैं। ये एक घोषित तथ्य है कि इसाई मान्यताओं के अनुसार स्त्री को संपत्ति ना देने (केवल दहेज़ जो पति को मिलेगा) के हिसाब से ही अनुवाद करके पहली बार उत्तराधिकार के फिरंगी कानून लिखे गए थे। ऐसे में दूसरा तरीका अपनाकर कहा जाने लगा कि भला स्त्रियों को अपने भाइयों से सुरक्षा मांगने की क्या जरूरत है? ये वही नीच लोग हैं जो किसी भी बलात्कार जैसी घटना पर सभी पुरुषों को दोषी बताने, ये बेटी बचाओ नहीं, बेटा सिखाओ का नारा देने लग जाते हैं। अगर परंपरा में वो पहले से ही है, तो उसका इस्तेमाल क्यों ना हो इसपर वो मौन रहते हैं।
बाकी जब आप चोर-मक्कार को उसकी धूर्तता के लिए टोकते नहीं तो आप उसे अगली बार इससे बड़ी हरकत करने का आमंत्रण भी दे रहे होते हैं। उनके गलत को हर वर्ष गलत कहना और हर संभव मंच से गलत बताना सीखिए, क्योंकि आपका काम करने कोई विदेश से तो आएगा नहीं ना? आएगा क्या?
✍🏻आनन्द कुमार जी की पोस्टों से संग्रहित
एक नयी चाल का पर्दाफाश कर रहा हूँ,
वामपंथी और आपिए हमेशा हिन्दू को तोड़ने की फिराक मैं रहते हैं यह बात तो आप को भी पता है । पिछले कुछ महीनों से देख रहा हूँ, आपिए एक सोची समझी साझीश के तहत एक जहर फैला रहे हैं कि हिन्दू मंदिरों के पास अकूत धन है जो उन्हें तोड़ कर गरीबों में बांटा जाना चाहिए । इसके प्रतिवाद में Anand Kumar जी ने जानकारी देनेवाली दो पोस्ट्स लिखी कि कैसे ब्रिटीशों ने कानून बनाकर हिन्दू मंदिरों के पैसे अधिग्रहित करना शुरू किया और काँग्रेस ने उन क़ानूनों को बरकरार रखा । आज स्वतंत्र भारत में मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, जैन, पारसी सभी सरकारी कंट्रोल से मुक्त हैं, केवल हिन्दू के पैसे सरकार हथियाती है ।
समुदाय विशेष के एक व्यक्ति ने एक पोस्ट लगाई जहां यही बेबुनियाद आरोप लगाया , नाम के वास्ते दो सिक्ख और चार अन्य नाम दिये , पोस्ट में उन्होने कहा कि इन जगहों की दस साल की कमाई अगर गरीबों में बांटी जाये तो भारत की गरीबी जड़ से मिट जाये ।
मैंने उसी बात पर उनको सवाल किया कि किस हिसाब से आप ये कह रहे हैं? इसी पोस्ट में आप कह रहे हैं कि इन संस्थानों का कोई लेखा जोखा नहीं होता तो ये दस साल की कमाई कितनी आंक रहे हैं आप और उसमें कितने गरीबों का आप भला करेंगे?
वहाँ से बात गोल गोल घुमाना चालू हुआ, बेतुके सवाल पूछे गए, पोस्ट पर कमेन्ट करनेवाले अन्य लोगों के साथ असभ्यता भी और गाली गलौज भी । यहाँ तक कि Tufail Chaturvedi जी जैसे मूर्तिमन्त शालीनता से भी असभ्य लहजे में पेश आए । जब कबूलना पड़ा कि दस साल वाला कोई हिसाब से नहीं, यूंही बोला था, मैंने सिर्फ एक सवाल किया –
“इतनी जहरीली बात, आप इतने आसानी से बोल गए?
आखिर में फिल्मी अंदाज में मुझे गरीबों का विरोधी, धर्म का ठेकेदार वगैरा नवाजा गया। उसके बाद बदतमीजी भी, हालांकि मैंने कहीं भी सभ्यता का दामन छोड़ा नहीं ।
समुदाय विशेष से उनके एक साथी जुड़ गए , उन्होने कहा कि यह पोस्ट मेरी है, तो मैंने कहा आप ही जवाब दीजिये । पहले पूरा थ्रेड पढ़िये सब सवाल समझ लीजिये, क ख ग से शुरुवात मत कराइये । खैर, लगता है यही आदमी एक ही आईपी से चला रहा होगा, अद्भुत ताल मेल था । एक ही सोच।
जब सवाल का जवाब नहीं दे पाये तो गरीबों का विरोधी वगैरा कहकर असभ्यता शुरू हुई । तब पता चला कि अरे यह तो वामपंथी या फिर उनका परिष्कृत अवतार कोई आपिया है । फिर याद आया कि हाँ, केजरीवाल की पैरोकारी की थी, लेकिन हर आदमी अपना आदर्श चुनने को स्वतंत्र है इसलिए मैंने ध्यान नहीं दिया था । लेकिन अब स्टाइल समझमें आने लगी, मामला फिट होने लगा । फिर धीरे धीरे पोस्ट पढ़नेवाले मित्रों से इनके कार्यशैली का ज्ञान हुआ कि हमेशा कोई इनके साथ में होता है, परिचितों से असभ्यता करना उसका काम होता है याने ये साहब अपना दामन साफ रख सकें ।
✍🏻आनन्द राजाध्यक्ष जी की पोस्ट कुछ संशोधन के साथ