हमें भारतवर्ष के समाचार पत्रों में तथा पत्रिकाओं में हमें ऐसे-ऐसे समाचारों का सामना करना पड़ता है जिनका समाज से कोई संबंध नही होता है और जो स्पष्टत: समाज पर या तो नकारात्मक प्रभाव डाल रहे होते हैं या फिर समाज के लिए सर्वथा अनुपयोगी होते हैं। ऐसे समाचारों को देखकर कई बार ऐसा भी लगता है कि जैसे समाचार माध्यमों पर एक ऐसे वर्ग का आधिपत्य हो गया है जो मीडिया जगत को अपने ढंग से और अपने डंडे से हांकना चाहता है, और इसलिए समाज के लिए अवांछित और सर्वथा अनुपयोगी सामग्री को परोस रहा है। अब आप बानगी के रूप में इन समाचारों को देखें-
-जब बच्चन की राय पर चलती थी रेखा….
-क्यों आधी रात सलमान ने की ऑटो की सवारी…..
-दूसरे बच्चे के बारे में न लगायें कयास : ऐश्वर्या
इसी प्रकार जब किसी हीरोइन की चप्पल टूट जाए या सूटिंग के लिए कपड़े लेने में उसे खासी मशक्कत करनी पड़ जाए तो ऐसी बातें भी समाचार पत्रों में स्थान पा जाती हैं।
माना कि मनोरंजन जीवन का एक अंग है और मनोरंजन एक कला भी है। परंतु कोई भी कला जीवन की विविध कलाओं पर हावी नही हो सकती। मनोरंजन और कला भी जीवन को संभालने के लिए आवश्यक माने गये हैं। बोरियत को दूर कर जीवन रस के प्रवाह को सहज रूप में प्रवाहित करने का नाम कला है। जो आपको उत्साहित, स्फूर्तिवान और गतिमान बनाये, वह कला है। साथ ही जो जीवन को उन्नतिशील बनाये, वह कला है। पश्चिमी जगत ने भौतिक विकास को अपनाया और भौतिक उन्नति को ही मनुष्य के जीवन की वास्तविक उन्नति माना। इसलिए उसने वासनात्मक जीवन शैली को अपनाया और इसी शैली को जीवन का अंतिम सत्य माना। जबकि भारतीय जीवन शैली में वासना से ऊपर साधना को स्थान दिया गया है। साधना से जीवन को उन्नत करना भारतीय जीवन शैली का अटूट अंग है। इसलिए भारतीय जीवन शैली में श्रंगार रस को स्थान तो दिया गया, परंतु श्रंगार को जीवन की उन्नति में सहायक बनाने का उचित दिग्दर्शन किया गया है। इसलिए काम देव को शांत कर शांति की खोज के लिए एक सुदृढ आधार माना गया। अत: वीर्य शक्ति के सदुपयोग को हमारे यहां प्राथमिकता दी गयी। यह सत्य है कि कामदेव के बिना संसार नही चलेगा,लेकिन कामशक्ति का दुरूपयोग भी संसार को अग्निकांड में झोंक देगा, यह भी साथ साथ ही निरूपित किया गया।
ऐसी परिस्थितियों में हमारे युवावर्ग को संतुलित जीवन चर्या में ढालने हेतु उचित प्रबंध और प्रतिबंध स्थापित किये गये। यही कारण है कि भारत की संस्कृति योग की संस्कृति है। इसमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का अदभुत योग किया गया है। उनमें इतना सुंदर समन्वय स्थापित किया गया है कि सब एक दूसरे को पूर्णता देने में लगे हुए से दीखते हैं। यही स्थिति समाज में स्थापित की गयी कि सब एक दूसरे की उन्नति में सहयोगी और सहभागी बन जायें। परंतु पश्चिमी जगत ने भोग की संस्कृति का अनुकरण किया और वहां भौतिक ऐश्वर्यों व भौतिक सुखों को ही उच्च माना गया एवं काम आदि भौतिक दुखों में भी सुखों की खोज की गयी। भारतीय वांग्मय में यह स्पष्ट किया गया कि भौतिक सुखों का अंतिम परिणाम दुख के रूप में प्रकट होता है। इसलिए भौतिक सुख शरीर और शक्ति दोनों का ही क्षय करते हैं, इसलिए भौतिक सुख त्याज्य है। तब एक सीमा निश्चित की गयी कि इन भौतिक सुखों को इस सीमा तक भोगो। पश्चिम ने उस सीमा का उल्लंघन किया तो वह पाशविक जगत से भी नीचे चला गया और उसकी संस्कृति भोग संस्कृति बन गयी। ‘प्रवक्ता’ ने इस दिशा में देशवासियों का समुचित मार्गदर्शन किया है।
भारत को पश्चिम का अंधानुकरण मार रहा है। उसी अंधानुकरण का ही परिणाम है कि आज हमारे समाचार पत्रों में अनर्गल और समाज के लिए अनुपयोगी समाचार प्रमुखता पा जाते हैं। इस प्रकार के समाचारों से किसी पत्र-पत्रिका की बिक्री बढ़ सकती है उसे आर्थिक लाभ भी हो सकता है, परंतु पत्रकारिता या प्रेस का अंतिम उद्देश्य धन कमाना या स्वार्थ सिद्घि करना ही नही है। पत्रकारिता का उद्देश्य सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों को प्रोत्साहित करना है, जिससे स्वस्थ समाज की संरचना हो सके। आज के साहित्य की कामुकता का प्रभाव हमारे युवा वर्ग पर घातक रूप में पड़ता दिख रहा है।
-लूट फिल्मी स्टाईल पर हो रही है,
-डकैतियां फिल्मी स्टाइल पर हो रही हैं।
-हत्याएं फिल्मी स्टाईल पर हो रही हैं और
-बलात्कार फिल्मी स्टाइल पर हो रहे हैं।
विवाह के लिए कोई युवा किसी लड़की को अपने ही साथियों से पहले घिरवाता है या कहीं उत्पीड़ित कराता है, फिर एक अवतार के रूप में उसकी रक्षा के लिए आता है, और उसका दिल कपट से जीतकर उससे विवाह करता है। यदि फिर भी सफलता नही मिलती है तो ऐसी लड़की के साथ या तो सामूहिक बलात्कार होते हैं, या फिर उसे ‘एकपक्षीय प्रेम’ में पगलाया हुआ उसका अवांछित प्रेमी हत्या के परिणाम तक पहुंचा देता है। यदि इन बातों में भी सफलता ना मिले तो कई बार ऐसा हताश और निराश युवा अपनी ही हत्या कर लेता है। सारे समाज में इसी हताशा और निराशा का वातावरण है। यही कारण है कि दामिनी के बाद भी इस देश में हजारों दामिनियों का शीलहरण हो चुका है। कितनी ही हत्याएं हो चुकी हैं। कानून ने सख्ती तो दिखाई है दामिनी के हत्यारों को मृत्युदंड देकर। लेकिन परिणाम इसके उपरांत भी आशाओं के विपरीत ही आ रहे हैं।
हमें कारण खोजने होंगे। यदि कारणों पर जायेंगे तो सर्वप्रथम और सर्वप्रमुख कारण मीडिया की भूमिका का गलत होना है। सारे समाज की अस्त व्यस्त स्थिति के पीछे मीडिया का अर्थप्रेम छाया हुआ है, जिसके कारण हम दामिनी के दृश्यमान हत्यारों को तो पकड़ने और उन्हें दण्डित करने में सफल हो गये हैं। परंतु अन्य हजारों दामिनियों को जिस प्रकार दिन प्रतिदिन हविश का शिकार बनना पड़ रहा है। उस हविश के गुनाहगारों को पकड़ने में असफल हैं। क्योंकि मुजरिम ही मुंसिफ बना बैठा है, और वही मुंशी भी है। जब भी कोई अपराध होता है तभी मीडिया उसे उछाल उछाल कर इतनी बोरियत उत्पन्न कर देती है कि उसके उछालने के ढंग से एक और नया अपराध हुआ सा लगने लगता है। अभी आसाराम बापू का प्रकरण चल रहा है, जिसके लिए आप समाचार चैनल खोलें तो बस आपको आसाराम बापू के अश्लील किस्से ही सुनने को मिलेंगे। जबकि जिस समय ये सब हो रहा था उस समय अपनी खोजी पत्रकारिता से समझौता कर या कहीं न कही से ऐसे बाबाओं से उपकृत होकर सब कुछ होने दिया जा रहा था। अब ‘कुछ’हो गया है तो उस पर इतना शोर मच रहा है, कि कई बार असहनीय सा हो जाता है।
आज का युग अर्थप्रधान है। इसमें ‘अर्थ दो और काम लो’ का व्यापारिक सिद्घांत काम करता है। इसी भावना से मीडिया कार्य कर रहा है। यही कारण है कि मीडिया को कुछ खास लोगों ने खरीद लिया है। सारे मीडिया पर उनकी बातें होती हैं जिनके पास बाहुबल, धनबल और जनबल है। जिनकी आवाज कभी मीडिया हुआ करती थी आज उनका कहीं उल्लेख भी नही है। भारत में बड़े लोगों की ओर ध्यान है हमारी मीडिया का, और ये बड़े लोग भी वो लोग हैं जिनके दर्शन छोटे हैं। अत: महलों की बिजली गुल हो जाए तो समाचार बन जाता है, परंतु देश के देहात में रोज बिजली के तार खिंच जाने के उपरांत भी बिजली न जाये तो यह समाचार कहीं नही बनता। गांवों के लोग आपस में बैठकर कहीं निर्णय ले लें कि इतने इतने गांवों में विवाहादि पर फिजूल खर्ची रोकी जाएगी या दहेज आदि नही लिया जाएगा तो वह महत्वपूर्ण निर्णय भी समाचार नही बनता। इसका अभिप्राय है कि ऊपर आवाज उसी की जाती है जो ऊपर बैठा है, और जो नीचे कुचला जा रहा है, वह ऊपर तक अपनी आवाज पहुंचाने में भी असफल हो जाता है। पत्रकारिता का धर्म यह तो नही था।
जब तक हम ऊपर बैठे लोगों की बाल छंटाई, हंसी के अंदाज, बालों की स्टाइल, खाने पीने के व्यंजनों में उसकी रूचि कपड़े पहनने या किसी विशेष कपड़े को पसंद नापसंद करने जैसी अनर्थक बातों पर ध्यान केन्द्रित करते रहेंगे तब तक समाज में आपराधिक गतिविधियों की ओर बढ़ते युवा को रोक नही पाएंगे। हमें हम दिशा में न बढ़कर उस ओर बढ़ना होगा जहां लोगों के भले के लिए विशेष विचार गोष्ठियां होती हों, युवाओं को नई दिशा देने के लिए नये नये विचार दिये जाते हों, जहां युवा शक्ति को आगे बढ़ाने की ओर ले चलने के लिए विचार मंथन होता हो, जहां युवाओं को कानून से नही धर्म से चलाने के लिए उच्छ्रंखल नही अपितु नैतिक बनाये जाने पर बल दिया जाता है। युवा वर्ग को कानून की सख्ती भी नही सुधार सकती और नैतिक युवा वर्ग स्वयं ही सारे समाज चला सकता है? यदि हां तो मीडिया अनर्गल ओर अनुचित समाचारों की ओर ध्यान न देकर ऐसे समाधानों पर ध्यान दे जो युवा वर्ग को सही दिशा और दशा दे सके। मैं केवल ‘प्रवक्ता’ वेबसाइट के बारे में अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि वह उस भारतीय राष्ट्र का और समाज का ‘प्रवक्ता’ बना है, जिसे किसी ने आज तक सुना ही नही था। मैं नही समझता था कि ‘प्रवक्ता’ मेरे लेखों को इस प्रकार प्रकाशित करेगा क्योंकि मीडिया में हमारे जैसे लेखकों के लेखों को कम ही स्थान दिया जाता है, परंतु भारत भूषण जी और उनकी टीम ने जो प्रेम दिया वह सचमुच मेरे लिए बहुत ही स्मरणीय बन गया है, मेरे लेखों पर जिन विद्वानों ने समय समय पर प्रतिक्रियाएं दे देकर मेरा मनोबल बढ़ाया या लेखों को और भी उपयोगी बनाने में सहयोग दिया, मैं उनका भी हृदय से अभिनंदन करता हूं। ‘प्रवक्ता’ की पूरी टीम को एक बार पुन: हार्दिक साधुवाद।
मुख्य संपादक, उगता भारत