बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर आजादी से पहले ही भाँप गए थे वहाबियों के खतरे को , कांग्रेसियों ने दबा दी थी उनकी आवाज

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भीमराव, अंबेडकर, बाबासाहब
विश्व के साथ भारत भी कोरोना महामारी से जूझ रहा है और पूरा देश लॉकडाउन में है। इसी बीच आज भारत के महान सपूत बाबासाहब डॉ भीमराव रामजी अंबेडकर की जयंती भी है। महामारी के दौरान कुछ समुदायों के प्रतिनिधियों की गैरजिम्मेदारी और सुनियोजित लापरवाही के कारण बिगड़ी स्थिति और इससे उठते अनेक ऐसे प्रश्न हैं, जिनके उत्तर तलाशते समय हमें अतीत के ऐतिहासिक तथ्यों पर भी ध्यान देना चाहिए।
इससे पूर्व नागरिकता संशोधन विधेयक(सीएए) के अनर्गल व निराधार विरोध और उपद्रव से भी इसी प्रकार के प्रश्न उठे थे। दूसरे सीएए के निराधार विरोध और उपद्रव में अराजक अम्बेडकर संविधान का शोर मचाते थे, लेकिन उन्होंने जो कहा उसे कोई नहीं मानता। यानि स्वांग रचकर जनता को मूर्ख बनाया जा रहा है। भारतीय समाज, राजनीति, दर्शन और तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक व राजनैतिक समस्याओं पर बाबा साहब के अध्ययन, लेखन और साहित्य में अनेक ऐसे तथ्य हैं, जो अलगाववाद और राष्ट्रीय एकता के विरुद्ध इस प्रकार की घटनाओं के विश्लेषण में सहायक हैं।
धार्मिक व अन्य प्रकार के सभी स्थलों पर एकत्रीकरण के प्रतिबंध के बावजूद जिस प्रकार देश के अनेक भागों में सरकार और प्रशासन के आदेशों को धता बताकर लॉकडाउन का उल्लंघन करते हुए मस्जिदों में सामूहिक नमाज पढ़ने, तबलीगी जमात के मरकज में शामिल लोगों को छिपाने, अल्पसंख्यक समुदाय की बस्तियों, संस्थाओं व धार्मिक क्षेत्रों में गैरकानूनी गतिविधियों में लिप्त विदेशी मुसलमान नागरिकों को शरण देने, फलों-सब्जियों व अन्य खाद्य पदार्थों में थूकने जैसी घिनौनी हरकतें; और सबसे बढ़कर इस समुदाय के अग्रणी लोगों द्वारा तबलीगी जमात का बचाव करने तथा दूसरे समुदायों के हर मामले पर अतिरंजित रूप से मुखर रहने वाले आमिर खान और नसीरुद्दीन शाह टाइप लोगों की इस मामले में चुप्पी, यह सोचने पर विवश करती है कि ऐसी घातक मानसिकता की जड़ें कहाँ हैं?
इसके उत्तर के लिए हमें अतीत की उस मानसिकता का भी अध्ययन करना होगा, जो भारत विभाजन का जिम्मेदार था। हमें यह भी याद रखना होगा कि भारत विभाजन की माँग की सुगबुगाहट और तबलीगी जमात की स्थापना का काल लगभग एक ही है। भारत विभाजन की नींव 1920 से 1932 के बीच रखी गई थी, जबकि तबलीगी जमात 1927 में बना था। तबलीगी जमात की स्थापना का घोषित उद्देश्य मुसलमानों को पक्का मुसलमान बनाना और दावत-ओ-तबलीग यानी धर्मांतरण है।
कांग्रेस की शह पर एक धर्मनिरपेक्ष हिन्दू बहुल देश में तबलीगी जमात बेरोकटोक अपना काम करता रहा, देश के मुसलमानों को कट्टरता के उसी जाल में फाँसने के लिए लगा रहा, जो उसने विभाजन के बाद पाकिस्तान में किया। यह कहना गलत नहीं होगा कि तबलीगी जमात मुसलमानों को उस अंधे युग में ले जाना चाहता है, जहाँ कट्टरता, कठोरता और मजहबी शुद्धता के नाम पर शेष समुदाय से अलगाव व द्वेष जैसी स्थितियाँ उत्पन्न कर दी जाएँ। अल्पसंख्यकों के बीच यही स्थितियाँ तब भी बनाई गई थीं, जब भारत विभाजन की पटकथा लिखी गई थी।
बाबासाहब संभवत: उन गिने-चुने लोगों में से थे, जो स्वतंत्रता से पहले ही चल रहे वहाबी आंदोलन के खतरे को भाँपकर भारत के भविष्य को लेकर चिंतित थे। इसीलिए बाबासाहब ने अपनी पुस्तक ‘पाकिस्तान या भारत का विभाजन’ पुस्तक में लिखा है, ”इस्लाम एक बंद निकाय की तरह है। यह बिलकुल स्पष्ट है कि इस्लाम मुसलमानों और गैर-मुसलमानों में भेद करता है। इस्लाम मानव का सार्वभौमिक बंधुत्व नहीं, उनका भाईचारा केवल मुसलमान के साथ है। जो इनके समुदाय का नहीं है, उनके लिए इसमें केवल घृणा और शत्रुता ही है।”
विभाजन की त्रासदी से दुखी बाबासाहब समस्या को समझते ही नहीं थे, बल्कि उसका समाधान भी प्रस्तुत करते थे। यह अलग बात है कि तत्कालीन कांग्रेस के कुछ प्रभावी नेताओं की दुर्भावना के कारण उनके व्यवहारिक और उपयोगी विचारों को अनुसुना कर दिया गया। कांग्रेस में ही बड़ी संख्या में लोग वहाबियत और इसके कारण भारत के विरुद्ध हो रहे षडयंत्र व खतरों को समझते थे, पर चूँकि उस समय भी कांग्रेस में लोकतंत्र का केवल दिखावा था, जबकि पार्टी के नीति नियंता चंद नेता ही थे, इसलिए लगता है कि ऐसे राष्ट्रवादी कांग्रेसजनों की आवाजें भी दबाई गईं।
बाबासाहब ने इसी पुस्तक में लिखा है, “सांप्रदायिक मुसलमानों और राष्ट्रवादी मुसलमानों के अंतर को समझना कठिन है… वास्तव में अधिकांश कांग्रेसजनों की धारणा है कि इन दोनों में कोई अंतर नहीं है और कांग्रेस के अंदर के राष्ट्रवादी मुसलमानों की स्थिति सांप्रदायिक मुसलमानों की फ़ौज की चौकी की तरह है।”
बाबासाहब कहते थे कि उनके जीवन का प्रत्येक क्षण भारत के लिए है तो यह उनके राष्ट्रवादी व्यक्तित्व का परिचायक था, भारत माता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता थी। इसी प्रतिबद्धता के कारण देश के टुकड़े होने से दुखी थे और बचे हुए भारत को सुरक्षित, सुंदर और विश्व में अग्रणी देखना चाहते थे। उन्होंने ने इसी पुस्तक में लिखा है:
“मुसलमानों के लिए हिन्दू काफिर है। मुसलमानों की दृष्टि में काफिर सम्मान के योग्य नहीं होता है, उसकी कोई सामाजिक स्थिति भी नहीं होती है। अत: जिस देश में काफिरों का शासन हो, वह स्थान मुसलमानों के लिए दारुल-हर्ब है। ऐसी स्थिति में यह सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं बचती कि मुसलमान गैर-मुस्लिम के शासन को स्वीकार नहीं कर पाएँगे। इसलिए भारत और पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की पूर्ण अदला-बदली ही क्षेत्र में शांति व सौहार्द रख सकती है।”
आज जब तबलीगी जमात और उसके समर्थकों की देशव्यापी अवज्ञा व उपद्रव देखने को मिल रहा है तो मुसलमानों को लेकर बाबासाहब के विचारों की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है। विशेषकर मुस्लिम समाज के प्रगतिशील समाज को बाबासाहब के विचारों पर चिंतन-मनन कर अपने समुदाय को विकृतियों से बचाकर देश की मुख्यधारा में बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए।
बहरहाल, अतीत की भूल को सुधारना तो संभव नहीं है, किंतु उससे सबक लेकर वर्तमान और भविष्य का निर्माण अवश्य किया जा सकता है। ऐसे में आवश्यकता है कि देश की जनता के समक्ष बाबासाहब के विचारों को समग्र रूप में पहुँचाया जाए, जिससे कि छद्म धर्मनिरपेक्षता का चोला ओढ़े राजनैतिक दल, बुद्धिजीवी, इतिहासकार और तथाकथित पढ़े-लिखे लोग संदर्भहीन और चयनात्मक ढंग से बाबा साहब के विचार पेशकर समाज को भड़काने और समस्या उत्पन्न करने के कुत्सित प्रयासों में सफल न हो सकें।

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