प्रो. राकेश उपाध्याय
ईसा पूर्व 800-900 साल पहले की बात है। यानी आज से करीब 2900 साल पहले की यह प्रमाणिक गाथा है। आज का चिकित्सा विज्ञान तब यूरोप और संसार के अन्य हिस्सों में किस रूप में थी, यह शोध का विषय है, किन्तु भारत में आयुर्वेद की चिकित्सा प्रणाली किस रूप में मौजूद थी, इसके जीवंत प्रमाण हमारे पास ग्रंथ रूप में आज भी हैं। सुश्रुत संहिता और चरक संहिता ये दो ऐसे ही ग्रंथ हैं जिनमें चिकित्सा यानी इलाज से जुड़ी भारतीय प्रतिभा और मेधा का चमत्कार अद्भुत रूप में प्रकट हुआ है। वेदों में वर्णित आयुर्वेद के आदि आचार्य वैद्य अश्विनी कुमारों की चिकित्सा विद्या को ऋषि धनवंतरी ने पुनर्जीवन प्रदान किया। सुश्रुत ने परंपरा से प्राप्त इसी ज्ञान को ग्रंथ रूप में शोधपूर्वक लिपिबद्ध किया था। चरक से भी सैकड़ों साल पहले सुश्रुत न केवल विश्व के पहले सर्जन के रूप में जाने गए बल्कि भेषज विद्या यानी दवाओं के ज्ञान में भी उन्होंने गजब की महारत प्राप्त की, आयुर्वेद में भेषज यानी मेडिसिन और शल्य चिकित्सा अर्थात सर्जरी को बहुत ही गहरी वैज्ञानिक बुनियाद पर खड़ा करने का काम आचार्य धनवन्तरि के बाद महर्षि सुश्रुत ने ही किया। कुछ विद्वान सुश्रुत और चरक को समकालीन मानते हैं तो कुछ सुश्रुत को चरक से पहले का बताते हैं। इन दोनों के अतिरिक्त महर्षि वाग्भट्ट का नाम भी महत्वपूर्ण है जिनका अष्टांग हृदय नामक सुप्रसिद्ध ग्रंथ आयुर्वेद की वृहत्त्रयी में सुश्रुत, चरक के साथ शामिल है।
भारतीय आयुर्वेद शास्त्र का प्रभाव एक समय समूचे संसार में फैल गया था। यूनानी और रोमन की परंपरागत चिकित्सा, अरब और तिब्बत, चीन और जापान तक आयुर्वेद ने सैकड़ों वर्ष पूर्व ही अपना डंका बजा दिया था। ईसा की पहली सदी में ग्रीक विद्वान केलसस का ग्रंथ डीमेडिसिना सुश्रुत संहिता की हुबहु प्रतिकृति माना गया है। अरब के खलीफा मंसूर ने सातवीं सदी में सुश्रुत संहिता और चरक संहिता का अऩुवाद अरबी भाषा में करवाया था। किताब शा-शून ए हिन्दी और किताब-ए-सुशुद नामक जो अरबी में चिकित्सा के मान्य ग्रंथ हैं, ये सुश्रुत संहिता के अरबी अऩुवाद हैं। अबुल कासिम जर्रावी या जहरावी ने अत्तसुसरीफ नामका जो सर्जरी पर प्रायोगिक ग्रंथ लिखा, जो यूरोप में चर्चित हुआ, उस पर सुश्रुत की छाप मानी जाती है। पूर्वी तुर्किस्तान से ईस्वी सन 450 में लिखी और संकलित की गई एक पुस्तक बाउर मैनुस्क्रिप्ट जो ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी में सुरक्षित है, इसमें भारतीय औषधि ज्ञान पर विस्तार से संकलन किया गया है, इसमें सुश्रुत और चरक को आयुर्वेदिक ज्ञान का पितामह कहते हुए उनके बताए चिकित्सकीय सूत्रों की व्याख्या की गई है।
फारसी के विख्यात विद्वान और शल्य चिकित्सक अल हर्जिस ने इस ग्रंथ के आधार पर ही मध्य एशिया में सर्जरी विद्या को प्रचारित किया और इस ग्रंथ का पर्शियन में अनुवाद भी किया। 15वीं सदी में इटली के सिसली के ब्रांचा परिवार को इस ग्रंथ की प्रति हाथ लगी। ब्रांचा परिवार ने इसका अनुवाद इटैलियन में किया और इस ग्रंथ के सूत्रों पर आधारित चिकित्सकीय प्रयोग कर इटली में वह बहुत ही विख्यात हो गए। गुलिलियो चेसारे अरांजियों ने इस ग्रंथ के अनुदित हिस्सों को यूरोप के मेडिकल कॉलेज में पढ़ाना शुरु किया, और पहली बार यूरोप में इसी ग्रंथ के आधार पर राइनोप्लास्टी के प्रयोग किए गए। यूनिवर्सिटी ऑफ बोल्गाना में 15वीं-16वीं सदी में शल्य चिकित्सा के जो प्रयोग गुलिलियो चेसारे अरांजियो ने किए वह सुश्रुत संहिता के आधार पर ही किए। अमेरिका के सुप्रसिद्ध कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने इरविंग मेडिकल कॉलेज ने प्रथम सर्जन के रूप में सुश्रुत के योगदान को स्वीकार किया है।
हेसलर ने लैटिन भाषा में सुश्रुत संहिता का अनुवाद 17वीं सदी में किया तो मूलर ने 18वीं सदी में जर्मन भाषा में इसे अनुदित किया। फ्रेंच, जर्मन, स्वीडिश समेत प्रत्येक यूरोपीय भाषा में सुश्रुत संहिता का अनुवाद 18वीं सदी में ही पूरा हो चुका था। मतलब यह है कि जिस दौर में भारत गुलामी की जंजीरों से आजादी के लिए संघर्ष कर रहा था, उसी दौर में उसकी ज्ञान परंपरा के आधार पर शल्य चिकित्सा यूरोप में नया आकार ले रही थी। हालांकि वनस्पतियों से औषधीय प्रयोगों को करने में पश्चिमी जगत उतना सफल नहीं हो सका क्योंकि आयुर्वेद के ग्रंथों में वर्णित औषधीय महत्व के भारतीय वृक्षों का वहां की कठिन जलवायु में पनपना असंभव था, इसलिए दवाओँ यानी कायचिकित्सा यानी फिजिशियन के विकास में पश्चिम ने अपनी अलग विधा विकसित की और सर्जरी में सुश्रुत के बताए मार्ग पर चलकर ही यूरोप ने शुरुआती शल्य यात्रा प्रारंभ की। यहां यह जान लेना आवश्यक है कि यूरोप में पहले सर्जरी के काम को दोयम दर्जे का माना जाता था, चिकित्सक फिजिशियन बनना ही पसंद करते थे, कोई सर्जरी के काम में नहीं जाना चाहता था। इसके लिए कुछ खास समूह अलग-अलग बनाए गए थे जो इस विद्या को सीखते थे। संज्ञाहरण तकनीकी अर्थात एनेस्थिसिया यानी बेहोशी की चिकित्सा और प्रोद्योगिकी के विकास ने उन्हें इस विधा में बेहद अहम मोड़ पर पहुंचा दिया। हालांकि मानव के लिए हितकारी दवाओं के सवाल पर आज भी पश्चिम का रास्ता संदेहों से परे नहीं है।
सुश्रुत संहिता यूरोप को जिस रूप में मिली थी, उसमें महर्षि सुश्रुत ने 300 प्रकार की शल्य विधियों का वर्णन किया है। 120 से अधिक प्रकार के शल्य यंत्रों की बनावट और उनके प्रयोग के बारे में विस्तार से जानकारी दी गई है। नाक से लेकर आंख और चेहरे की विकृति को दूर करने के लिए शल्यसूत्रों की विधिवत जानकारी इस ग्रंथ में वर्णित है। इसी के साथ सुश्रुत ने इस ग्रंथ में आयुर्वेदिक औषधियों के प्रयोगों पर विस्तार से चर्चा है। सुश्रुत के इस योगदान को यूरोप के कुछ प्रारंभिक शल्य विद्वानों ने गहरे मन से स्वीकार भी किया है। ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ आए अनेक अंग्रेजी अफसरों और चिकित्सकों ने दक्षिण भारत के अऩेक केंद्रों पर रहकर भारतीय वैद्यों से शल्य चिकित्सा के बारीक गुर जाने और सीखे, जिसका ब्यौरा अनेक शोध विवरणों में दर्ज है।
सुश्रुत संहिता पर भारतीय परंपरागत वैद्यों ने गहरा शोध क्यों नहीं किया, यहां यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है। दरअसल भारत में विदेशी शासन की स्थापना के साथ ही भारतीय ज्ञान केंद्रों पर जो आक्रमण और प्रहार हुए, उसने भारतीय आयुर्वेद और उसके साथ शल्य चिकित्सा के ज्ञान को गंभीर क्षति पहुंचाई। रही-सही कसर अंग्रेजों ने और बाद में उनके द्वारा यूरोप से आयातित एलोपैथ और सर्जरी की नई विद्या ने पूरी कर दी। अंग्रेजों ने एक ओर इसके मौलिक ज्ञान को चतुराई से भारतीय चिकित्सकों से प्राप्त किया और दूसरी ओर इस पर संस्थागत आक्रमण भी किया ताकि इस विद्या से उनकी विरोधी शक्तियां लाभ न ले लें। विदेशी राज में इस विद्या का सामाजिक स्तर पर संरक्षण जहां कमजोर हुआ वहीं परंपरागत वैद्यशालाएं राजकीय संरक्षण के अभाव में नष्ट होती चली गईं। भारतीय नेतृत्व ने आजादी के बाद भी आयुर्वेद के संरक्षण और इस पर गंभीर शोध के लिए धन आवंटन गैरजरूरी मान लिया। अंग्रेजी चिकित्सा को ही हर बीमारी का अंतिम और अचूक निदान समझकर भारत की ज्ञान परंपरा के इस अनूठे अवदान की उपेक्षा कर दी गई। परंपरा से चले आ रहे वैद्यों ने इसे किसी तरह से बचाकर समाज की शक्ति से संरक्षित करने का प्रयत्न तो किया किन्तु इन्हें अंग्रेजी पढ़े लिखे लोगों ने झोलाछाप नीम-हकीम-वैद्य कहकर इतना बदनाम किया कि अपनी विरासत के प्रति लोग धीरे धीरे विमुख होते चले गए। अंग्रेजी दवाइयों के आधार पर चिकित्सा को आयुर्वेदिक वैद्यों ने भी मजबूरी में श्रेष्ठ मानते हुए अपनाना शुरु कर दिया।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक भारत रत्न पूज्य महामना पंडित मदनमोहन मालवीय ने भारतीय आयुर्वेद को नवीन अऩुसंधान के द्वारा पुनर्जीवित करने का महान प्रयास किया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में उन्होंने सबसे पहले 1918 में प्राच्य विद्या एवं धार्मिक शिक्षा संकाय के अऩ्तर्गत आयुर्वेद विभाग की स्थापना की जिसे उन्होंने 1927 में आयुर्वेद महाविद्यालय का रूप प्रदान किया। इस आयुर्वेदिक महाविद्यालय का अपना मेडिकल अस्पताल था जिसमें गंभीर और असाध्य रोगों की चिकित्सा, काय और शल्य दोनों प्रकारों में आयुर्वैदिक पद्धति से की जाती थी। मालवीयजी ने मॉडर्न मेडिसिन को इसी आयुर्वेद कॉलेज के एक विभाग के रूप में शुरु कराया ताकि आयुर्वेद और मॉडर्न मेडिकल ज्ञान का समन्वय कर भारत इलाज की एक अनूठी समन्वयात्मक विधा खड़ी करे जिसमें सर्जरी के साथ-साथ आयुर्वेदिक ज्ञान परंपरा की तकनीकी को नया तेवर और नया स्वरूप मिल सके। लेकिन जैसे ही देश को आजादी मिली और मालवीयजी का देहांत हुआ, भारत सरकार के नीति नियंताओं ने आयुर्वेद को पीछेकर मॉडर्न मेडिसिन को ही आगे कर दिया। उसके बाद आयुर्वेदिक कॉलेज को बदलकर इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिसिन और बाद में इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस नाम से चलाया जाने लगा। जो मॉडर्न मेडिसिन आयुर्वेद के अऩ्तर्गत महज आयुर्वेद को सहयोग देने के लिए एक विभाग के रूप में जोड़ा गया था अब वह नियंता होकर आगे हो गया, आयुर्वेद पीछे हो गया। आयुर्वेद को मॉडर्न मेडिसिन के अन्दर ला खड़ा किया गया। उसे बाद में एक अलग संकाय की मान्यता मिली लेकिन आयुर्वेद में शोध के लिए बजट में हिस्सेदारी के सवाल पर उसे म़ॉडर्न मेडिसिन के मुकाबले कहीं भी बेहतर समझा ही नहीं गया। हालांकि संसाधनों की कमी के बावजूद बीएचयू के आयुर्वेद संकाय ने अद्भुत प्रसिद्धि प्राप्त की और क्षार सूत्र समेत शल्य की अनेक विधाओं और इलाज की पद्धतियों में आज भी इसका कोई जवाब नहीं।
आज वैश्विक आपदा और महामारी की इस संकटपूर्ण घड़ी में समग्र संसार का साधारण आदमी यह देखकर हैरान है कि मॉडर्न मेडिसिन के पास कोरोना वायरस से लडऩे के नाम पर कुछ है ही नहीं। वह कोरोना के खिलाफ युद्ध में लडऩे की जगह खुद ही वेंटिलेटर पर पसर गया है। उसके पास एक भी दवा नहीं और एक भी टीका नहीं कि जो मानवता को ये भरोसा दे सके कि जबतक मैं हूं तब तक कोरोना क्या, किसी भी वायरस से डरने की कोई जरुरत नहीं। दूसरी ओर आयुर्वेद का परंपरागत ज्ञान चाहे जैसा भी हो, भोजन की थाली और नित्य उपयोग की नसीहत के चलते अपने नीम-हल्दी-तुलसी-लौंग-इलायची-चिरायता-जायफल-तेजपत्ता-गिलोय-आंवला आदि कितनी ही आयर्वेदिक महत्व की औषधियों के द्वारा भारतीय समाज की इम्यूनिटी को कसकर आज भी थामे हुए है। भारत की नसों में आयुर्वेद की घुट्टी उनके नित्य के खान-पान के कारण जो रच-बस गई है। इसलिए खान-पान भी अब बेहद महत्वपूर्ण हो गया है। खान के साथ पान शब्द अदुभुत है। उत्तर प्रदेश और खासकर वाराणसी में तो हर किसी का इससे गहरा नाता है। खान छोडि़ए पान की ही खूबी देख लीजिए। पान में चूना है, कत्था है, लौंग है, इलायची है, केसर है, सुपारी है, नारियल है, अनेक प्रकार की रजत भस्म, स्वर्ण भस्म, अनेक प्रकार के जर्दे और जाने क्या क्या, कितनी ही उपयोगी चीजें जरूरत और पसंद के अनुसार इसमें भरी जाती हैं। पत्ते की अलग औषधीय खूबी है, वात-पित्त और कफ का संतुलन बनाए रखने में मददगार। एलोपैथ ने तो वात-पित्त-कफ के असंतुलन को रोग पैदा होने का कारण तो कभी माना ही नहीं। पान का एक बीड़ा कितने ही वायरस का खात्मा सदियों से करता आया है। लेकिन आजतक जाने क्यों इनके गुणों पर कभी शोध की आवश्यकता महसूस नहीं की गई क्योंकि मॉडर्न मेडिसिन ने हमारे विवेक और बुद्धि पर, सोचने के तरीके पर इस तरह ताला चढ़ाया कि एक समय हमें अपनी हर परंपरागत विद्या मॉडर्न के सामने बेकार और बेबुनियाद लगने लगी थी।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के आयुर्वेदिक कॉलेज में प्रो. भट्टाचार्य की कहानी इस बारे मे बेहद अहम है जिसका ब्यौरा बीएचयू के पुराने चिकित्सक ही सुनाते हैं। 1960 के दशक में जब केंद्र सरकार के इशारे पर मालवीय जी द्वारा स्थापित आयुर्वेदिक कॉलेज को मॉडर्न मेडिसिन की गोद में बिठाने की तैयारी हो गई तो प्रो. भट्टाचार्य इस फैसले के खिलाफ खुलकर खड़े हो गए। आयुर्वेदिक कॉलेज के तत्कालीन प्रिसिपल प्रो. केएन उडुप्पा ने तो जैसा सरकार चाहती थी, वैसा प्रस्ताव पारितकर यूनिवर्सिटी की एक्जीक्यूटिव काउंसिल को भेज दिया, और काउंसिल ने इसे मंजूरी देकर भारत सरकार को भेज दिया। कुछ ही दिनों में नए मेडिकल कॉलेज की बिल्डिंग, मशीनों आदि के लिए करोड़ों रूपये भी आ गए। अब एकेडमिक ब्लॉक बने कहां तो इस सवाल पर विवाद खड़ा हो गया।
आज जहां बीएचयू का सर सुन्दर लाल अस्पताल है, उसका एक बड़ा हिस्सा तो आयुर्वेदिक चिकित्सा में लगा था, उसके पीछे के हिस्से में मॉडर्न मेडिसिन की ओपीडी आदि के भवन बनाए गए। हाल ही में एम्स स्टेटस और सुपर स्पेशियालिटी बिल्डिंग आदि का भवन विस्तार इसी हिस्से में अभी चल ही रहा है, इसी के पास कैंसर अस्पताल भी बन गया है। लेकिन सवाल था एकेडमिक ब्लॉक और चिकित्सकों और प्रोफेसरों के बैठने के कमरों का तो प्रोफेसर उडुप्पा ने बड़ा फैसला लेते हुए तय किया कि एकेडमिक ब्लॉक अस्पताल से इतनी ही दूरी पर बनेगा ताकि डॉक्टर पैदल ही ओपीडी और ओटी और वॉर्ड तक आ-जा सकें। उनका सोचना सही था लेकिन इसके लिए जो फैसला उन्होंने लिया, उसने आयुर्वेद के महान विद्वान और प्रख्यात भैषजविद् प्रो. भट्टाचार्य को हिलाकर रख दिया। फैसला यह किया गया था कि आयुर्वेद की ओषधियों के लिए जो दुर्लभ जड़ी-बूटी उगाने वाला, आयुर्वेदिक महत्व की वनस्पतियों के संरक्षण का उद्यान मालवीयजी ने खड़ा किया था, उस उद्यान का आधा हिस्सा इस कार्य के लिए समर्पित किया जाएगा। आयुर्वैदिक उद्यान को नष्टकर उसी पर एकेडमिक ब्लॉक खड़ा किया जाना था। मालवीयजी के समय यह भैषजोद्यान कई एकड़ में हॉस्टल रोड से मधुवन रोड के मध्य तक फैला हुआ था और इसके परिसर में कोई भवन नहीं था सिवाय भैषज यानी ओषधि बनाने की वैद्यशाला के। इस भैषजोद्यान में आयुर्वेदिक महत्व की शायद ही कोई वनस्पति न हो जो उस समय न उगाई जा रही थी। अचानक सभी पौधों को काटा और उखाड़ा जाने लगा तो प्रो. भट्टाचार्य बिलख उठे। कहते हैं कि वह खुद ही आरी के सामने आकर खड़े हो जाते थे, एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर यह कहते हुए लिपट जाते थे, कि मालवीय जी ने बड़े अरमानों से आयुर्वेदिक कॉलेज शुरु किया था, ये आयुर्वेद का बगीचा, इसका एक-एक पौधा उनके हाथों से लगाया गया था, ये पौधे मालवीयजी के बच्चे हैं, मालवीय जी ने इसे खून और पसीने से सींचा था। वे इस बाग में रोज टहलने आते थे, एक एक पौधे का हाल जानते थे, कोई सूख तो नहीं गया, इसकी चिन्ता करते थे। प्रशासन ने बाद में प्रो. भट्टाचार्य को घर में बंद कर दिया और तब जाकर इंस्टीट्यूट ऑफ चिकित्सा विज्ञान यानी आईएमएस-बीएचयू की बिल्डिंग बन सकी।
कहते हैं कि बाद में प्रो. भट्टाचार्य रिटायर कर दिए गए। वह जीवन भर प्रो. उडुप्पा को कोसते रहे, खरी-खोटी सुनाते रहे कि उन्होंने आयुर्वेद को बरबाद कर दिया। कालांतर में प्रो. उडुप्पा जो बीएचयू में मॉडर्न मेडिसिन के भीष्म पितामह बने, उन्हें त्वचा का कैंसर-स्किन कैंसर हो गया। कई और असाध्य रोगों ने उन्हें घेर लिया। पुराने प्रोफेसर बताते हैं कि जैसे प्रो. भट्टाचार्य का शाप ही प्रो. उडुप्पा को लग गया। कोई मॉडर्न मेडिसिन काम नहीं आई। रोग इतना बढा कि पहले एक हाथ की उंगलियां काटनी पड़ी, फिर दूसरे हाथ पर नश्तर चला। जान बचाने की कोई कोशिश कामयाब नहीं हुई। आखिरकार प्रो. उडुप्पा संसार से अत्यंत कष्टप्रद हालत में विदा हो गए। जानकार बताते हैं कि आखिरी समय में प्रो. उडुप्पा आयुर्वेद को छोडऩे के अपने फैसले पर पश्चाताप प्रकट करते थे।
इस तरह से एक पूरी पीढ़ी देखते ही देखते आयुर्वेद के परंपरागत ज्ञान से बिछुड़कर माडर्न मेडिसिन की भूलभूलैया में कैद हो गई, जिसका खामियाजा आयुर्वेद ने भी भुगता और देश ने भी। आयुर्वेद एक दायरे से बाहर नहीं निकल सका अर्थात उसमें गंभीर अनुसंधान जो होने चाहिए थे, किसी भी कारण से उस गति से नहीं हो सके और भारत के करोड़ों लोगों को महंगी एलोपैथिक दवाओं और अंग्रेजी चिकित्सा प्रणाली की मदद लेना धीरे धीरे मजबूरी ही बनता चला गया। और इस मॉडर्न चिकित्सा के साथ जब कॉरपोरेट और वैश्विक दवा कंपनियों की जुगलबंदी हुई तो फिर कहने ही क्या। एमबीबीएस और मॉडर्न चिकित्सा विज्ञान सोने का अंडा देने वाली चिडिय़ा बन गई। भारतीय आयुर्वेद की दुर्दशा का केवल इतना ही कारण नहीं था, भारत में भारत के नाम पर अभारत और गैरभारत को बढ़ावा देने का जो सिलसिला आजादी के बाद शुरु हुआ, उसने जैसे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अंग्रेजी और अंग्रेजों के ज्ञान को ही सरमाथे लगाए रखा, वैसा ही आयुर्वेद में घटित हुआ, लेकिन इस अंधेरे में भी आयुर्वेद का दीपक बुझा नहीं बल्कि जैसे-तैसे दूर-दराज के इलाकों में, दादी-नानी के नुस्खों से लेकर संकल्पबद्ध वैद्यों की कुटिया में टिमटिमाता रहा। सुदूर केरल, बंगाल, कर्नाटक और हिमालय की कंदराओँ में से यह विद्या अपनी संजीवनी लेती रही। सात समंदर पार भी कुछ दीवाने पैदा हो गए जिन्होंने माडर्न मेडिसिन में इंसान की प्रतिरोधक क्षमता का सदा के लिए नाश करने वाली दवाइयों का सच जान लिया और सेहत-इम्यून सिस्टम पर एलोपैथिक दवाओं के हो रहे घातक असर का पर्दाफाश शुरु कर दिया तो अमेरिका, यूरोप सहित भारत में ही आयुर्वेद ने फिर से आशा की नई उम्मीद जगाई।