1857 में चला था पहला ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’
1857 की क्रांति के इस प्रकार के विस्तृत योजनाबद्ध विवरण से पता चलता है कि उस समय भारत में पहला ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ प्रारम्भ हुआ था ।यह तभी सम्भव हुआ था जब हमारे भीतर आजादी की ललक काम कर रही थी। कुछ लोगों ने 1857 की क्रान्ति के बारे में यह भ्रान्ति फैलाई है कि यह कुछ – कुछ क्षेत्रों में फैला हुआ राजनीतिक विद्रोह मात्र था , परन्तु क्रान्तिकारियों ने उस समय जो अपना ‘क्रान्ति गीत’ तैयार किया था उसकी पहली पंक्तियों से ही उनका राष्ट्रीय चरित्र स्पष्ट हो जाता है :-
हम हैं इसके मालिक यह हिंदुस्तां हमारा।
पाक वतन है कौम का जन्नत से भी प्यारा।।
यह है हमारी मिल्कियत हिंदुस्तान हमारा ।
इसकी रूहानियत से रोशन है जग सारा ।।
मेरठ में गुर्जर धनसिंह कोतवाल व स्थानीय लोगों ने पुलिस बल की सहायता से मेरठ जेल पर आक्रमण कर दिया था। इस वीर योद्धा ने मेरठ जेल में बन्द 836 भारतीयों को मुक्त कराया । अंग्रेजों ने उनकी देशभक्ति को एक अपराध मान कर उन्हें जेल में डाला हुआ था। पुलिस कप्तान ने अपने मुख्यालय के लिए जो पत्र उस समय लिखा था उस समय उसके अध्ययन से पता चलता है कि अंग्रेज हमारे इस महान क्रान्तिकारी और उसके साथियों की क्रान्ति भावना से भयभीत हो उठे थे। यहाँ के गुर्जरों व अन्य बिरादरी के लोगों ने इस क्रान्ति में बढ़-चढ़कर योगदान किया था। थोक के भाव गुर्जरों को फांसी दी गई थी।
जनसाधारण में भी फैल गई थी क्रान्ति
क्रान्ति के बारे में यह भी सच है कि यह केवल कुछ नेताओं तक सीमित न रहकर जनसामान्य के लिए एक पर्व बन गई थी। इस समय एक ब्रिटिश अधिकारी ए.ओ.ह्यूम ने 131 क्रान्तिकारियों की हत्या की थी । यही हत्यारा ए. ओ. ह्यूम अपनी सेवानिवृत्ति के पश्चात कांग्रेस का जनक बना। उसने कांग्रेस की स्थापना इसलिए की थी कि भारत के लोग भविष्य में फिर 1857 को ना दोहरा सकें। जबकि भ्रान्ति यह पैदा की जाती है कि उसने भारत की आजादी के लिए कांग्रेस की स्थापना की थी।
क्रान्ति के समय देश के विभिन्न शहरों व हिस्सों में देश के अनेकों क्रान्तिकारियों ने अपना बलिदान दिया था। दिल्ली पर भी हमारे क्रान्तिकारी अपना अधिकार स्थापित करने में सफल हो गए थे । 3 जुलाई 1857 तक 20,000 की सेना भारतीय क्रान्तिकारियों के पास उपलब्ध होने के प्रमाण मिलते हैं । इस क्रान्ति के समय बहादुर शाह जफर को भी हमारे क्रान्तिकारियों ने अपने साथ मिला लिया था । उसने कुछ हिचक व झिझक के साथ क्रान्तिकारियों का साथ देना स्वीकार कर लिया था। बाद में रोते हुए बहादुरशाह ने अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था। वास्तव में बहादुरशाह की यह दुर्बलता क्रान्तिकारियों के लिए बहुत कष्टकर रही। उसने अंग्रेजों के सामने यह भी स्वीकार कर लिया कि क्रान्ति से उसका कोई सम्बन्ध नहीं था । उसे तो जबरन कुछ लोगों ने क्रान्ति के लिए तैयार किया था । वह तो किसी भी स्थिति में अंग्रेजों का विरोध करने की सोच भी नहीं सकता था।
क्रान्ति के महानायक
1857 की क्रांति के समय रानी लक्ष्मीबाई ने भी थोक के भाव अंग्रेजों को काटा था । रानी लक्ष्मीबाई उस समय भारत की वीरांगना शक्ति का प्रतीक बन गई थी । नाना साहब व पेशवा बाजीराव की वीरता भी भारतीयों के लिए बहुत प्रेरणादायक रही । कानपुर में क्रान्तिकारियों ने नाना साहब के नेतृत्व में जिस प्रकार अपनी देशभक्ति और वीरता का प्रदर्शन किया उससे अंग्रेज दांतो तले उंगली दबा गए थे।
एक अंग्रेज़ अधिकारी ने उन दिनों की परिस्थितियों का वर्णन करते हुए लिखा है :- “मैं जब वहाँ था तो मैंने देखा कि बग्घियों , गाड़ियों ,डोलियों आदि सवारियों की भीड़ सहसा ही लग जाया करती थी। उनमें लेखकों , व्यापारियों ,महिलाओं जो अपने बालकों को छाती से चिपकाए हुए होती थीं, बालकों धायों और अधिकारियों आदि सभी को पहुँचा दिया जाता था । सार रूप में कहा जाए तो यह कहना उचित होगा कि यूँ ही किसी प्रकार के उपद्रव की आशंका होती अथवा समाचार प्राप्त होता तो वहाँ हमारा अभिनन्दन करने वाला कोई भी नहीं होता था, क्योंकि उपर्युक्त दृश्यों से हम भारतीयों को यह स्पष्ट दिखा चुके थे कि हम कितने कायर हैं ,और हमारी दशा कितनी दयनीय है ?”
वास्तव में हमारे क्रान्तिकारियों की देशभक्ति और वीरता के सामने अंग्रेज टिक नहीं पा रहे थे और कई स्थानों से अंग्रेज भारत छोड़कर भागने लगे थे। नाना साहब ने उसे समय कानपुर को स्वतन्त्र करा लिया था। तब नाना साहब ने 1 जुलाई को सम्पूर्ण स्वाधीनता दिवस मनाया था । उन्होंने इसे भारत का स्वाधीनता दिवस कहा था ना कि कानपुर का स्वाधीनता दिवस। दरबार की कार्यवाही आरम्भ होने से पहले दिल्ली के सम्राट के नाम पर 101 तोपों से वन्दना की गई । नाना साहब के पधारने पर उनके जयकार से सारा आकाश गूँज उठा । उनके सम्मान में 21 तोपें दागी गईं थी। इसी प्रकार अवध में भी स्वतन्त्रता की पताका फहरा दी गई थी । इसके साथ-साथ बहराइच , सिकोटा , फैजाबाद और अवध भी स्वतन्त्र हो गए थे।
क्रान्ति का विस्तार
राजशाही का विरोध करने के लिए जन क्रान्ति की ज्वाला देश में सर्वत्र धधक रही थी । अपने राजाओं की आज्ञा के बिना ही जनता सड़कों पर आ गई थी। इस प्रकार 1857 की क्रान्ति जनक्रान्ति बन गई थी। जिसमें सभी देशवासियों का केवल एक ही नारा था -” फिरंगी भारत छोड़ो।”
जिस प्रकार उत्तर भारत में हमारे कई क्रान्ति नायक उस समय क्रान्ति का नेतृत्व कर रहे थे वैसा ही इंदौर में होलकर क्रान्ति का नेतृत्व कर रहे थे। कोलकाता में भी अनेकों रणबांकुरे मैदान में उतर कर अंग्रेजों का वध कर रहे थे । उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ से आजमगढ़ तक क्रान्ति की ज्वाला दिखाई दे रही थीं । अंग्रेजों का साहस नहीं हो रहा था कि वह इन ज्वालाओं का सामना कर सकें । पूरा का पूरा रोहिलखण्ड उस समय क्रान्ति का गढ़ बन गया था और अपनी स्वतन्त्रता का परचम लहराने में भी सफल हो गया था। इसी प्रकार काशी भी स्वतन्त्रता की उस महान लड़ाई में अपना योगदान देने से पीछे नहीं थी। यद्यपि वहाँ के राजा ने ब्रिटिश राज भक्ति दिखाकर क्रान्तिकारियों की भावना पर तुषारापात किया था , परन्तु उसके देशद्रोही आचरण को नजरअंदाज कर जनता फिर भी देशभक्त क्रान्तिकारियों के साथ दिखाई देती रही।
यदि बात बिहार की करें तो वहाँ पर कुंवर सिंह क्रान्तिकारियों का नेतृत्व कर रहे थे , अंग्रेजों का हर स्तर पर जाकर विरोध किया जा रहा था । उस समय आसाम के राजा ने क्रान्तिकारियों के साथ सहानुभूति का व्यवहार करते हुए अपना सहयोग दिया था। मणिपुर के एक राजकुमार नरेंद्रजीत सिंह ने क्रान्तिकारियों से मिलकर चटगांव में विद्रोह किया था। त्रिपुरा के राजा को अंग्रेजों ने क्रान्तिकारियों से सहानुभूति रखने के सन्देह में बन्दी बनाया था । इस राजा ने चटगांव और ढाका के क्रान्तिकारियों से सम्पर्क बनाकर अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करना चाहा था । इस प्रकार सारा पूर्वोत्तर भारत क्रान्ति के समर्थन में उतर कर मैदान में आ गया था ।
सर्वत्र दीख रही थीं क्रांति की ज्वालाएं
उड़ीसा का राजा नीलमणिसिंह भी जब क्रान्तिकारियों की योजना से अवगत हुआ तो उसके भीतर भी देशभक्ति की भावना मचल उठी । उसने अपने महल में क्रान्तिकारियों के लिए अस्त्र – शस्त्रों के एक बड़े भण्डार को तैयार कर लिया था। अंग्रेजों ने राजा पर कड़ी नजर रखी और राजा पर सन्देह होते ही उसे बन्दी बना लिया गया।
क्रान्ति के अनेकों नायकों और वीरांगनाओं ने अपना बलिदान देकर क्रान्ति की ज्वालाओं को सर्वत्र पहुँचाने या फैलाने का काम किया । अनेकों बलिदान दिए गए और अंग्रेजों को यह आभास कराने में क्रान्ति नायक सफल रहे कि भारत की अंतश्चेतना जीवित है, और वह अपनी आजादी के लिए लम्बी लड़ाई लड़ने के लिए भी तैयार है । इसके पश्चात क्रान्ति को प्रतिक्रांति के माध्यम से अंग्रेजों ने चाहे दबाने में सफलता प्राप्त कर ली , पर उनकी यह सफलता क्षणिक ही थी , क्योंकि क्रान्ति का क्रम रुका नहीं । कहा जा सकता है कि 1947 में जब देश को आजादी मिली तो बीजारोपण 1857 की क्रान्ति ने कर दिया था । क्योंकि उसके पश्चात निरन्तर हमारा क्रान्तिकारी आन्दोलन देश में चलता रहा । जिससे देश का युवा जुड़ा रहा ।लोगों ने 1857 की क्रान्ति के समय राजाओं की निष्क्रियता को देखकर उनसे अधिकांश रियासतों में मुँह फेर लिया और स्वयं अपने भाग्य का निर्धारण करने के लिए अर्थात अपनी स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए अंग्रेजों के विरोध में मैदान में उतर आए।
हमारे ऐसे अनेकों क्रान्तिकारी रहे जिन्हें अंग्रेजों ने जब फांसी लगाई तो उनके मुँह से केवल एक ही वाक्य निकला कि – ‘यह फांसी का फन्दा मेरे गले में नहीं , बल्कि अंग्रेजी शासन के गले में पड़ रहा है।’ समय ने सिद्ध किया कि उनका यह कहना सत्य व सार्थक ही था।
हमने अपनी पुस्तक ‘भारत के 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास’ , भाग – 5 ‘अंग्रेजों का दमन चक्र – भारत का सुदर्शन चक्र’ के पृष्ठ संख्या 406 पर लिखा है कि :-“वर्तमान प्रचलित इतिहास में 1857 की क्रान्ति की असफलता वाले अध्याय को पूर्णतया समाप्त किया जाना चाहिए । उसके स्थान पर यह आना चाहिए कि क्रान्ति के फलितार्थ क्या हुए? और क्रान्ति ने आगे चलकर भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन को कौन सी नई दिशा दी या उसे किस प्रकार प्रभावित किया ? – जब इस प्रकार से इस क्रान्ति का उल्लेख किया जाएगा या अध्ययन किया जाएगा या इसकी इस दृष्टिकोण से समीक्षा की जाएगी तो नए अनुसन्धानों की प्रक्रिया भी चलेगी। जिससे हमारा स्वतन्त्रता आन्दोलन सही रूप में स्थापित हो पाएगा। इतिहास के विषय में यह ध्यान रखना चाहिए कि जैसे किसी नींव की ईंट पर दीवार उठती है और फिर अपने ऊपर की ईंट का आधार बनती है वैसे ही इतिहास में एक घटना आने वाली घटना का आधार बनती है । इतिहास की कोई घटना व्यर्थ नहीं जाती। वह क्रिया बनकर प्रतिक्रिया को जन्म देती है ।जंगल में आवाज गूंजती है तो इतिहास में क्रांति गूंजती है। यह सारी बातें ध्यान रखने योग्य हैं।”
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक: उगता भारत
एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष: भारतीय इतिहास पुनरलेखन समिति
मुख्य संपादक, उगता भारत