वैदिक संस्कृति में गायत्री महामंत्र एवं साधना का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। इसलिए संत, महात्मा, ऋषि मुनि और विद्वानों ने इस मंत्र का यथामति विस्तृत और गहन चिंतन, मनन एवं विवेचन किया है। परंतु यहां हमारे द्वारा सर्वसाधारण व्यक्ति के स्तर और समय को ध्यान में रखकर साधना के तीन रूप उपस्थित किये गये हैं। जितना जिसके पास समय हो उसी के अनुसार उसे गायत्री साधना सिद्घ करनी चाहिए।प्रथम रूप-जब अत्यल्प समय हो तो साधक को श्रद्घापूर्वक गायत्री महिमा का गान कर शुद्घरूप में गायत्री मंत्र का जाप (संख्या स्वेच्छानुसार) करना चाहिए। तत्पश्चात अर्थचिंतन करते हुए ओंकार कीर्तन और गायत्री स्तुति करके शांतिपाठ करना ही समीचीन है।
द्वितीय रूप-जब साधक के पास लगभग एक घंटे का समय हो तो गायत्री महिमा, गायत्री गुणमान के पश्चात गायत्री मंत्र का पाठ अर्थ सहित करना चाहिए। तदनंतर ओंकार महिमा का गायन करके ओंकार कीर्तन करें। फिर महाव्याहृति एवं इसके अंतर्गत आए हुए ईश्वर के नाम और गुणों का चिंतन करके गायत्री जाप करें। पश्चात गायत्री स्तुति करके शांतिपाठ करना चाहिए।
तृतीय रूप-जब साधक के पास काफी समय हो तो संपूर्ण विधि पुस्तक के अनुसार चिंतन, मनन, जाप और साधना द्वारा संपन्न करनी चाहिए।गायत्री महिमा और गायत्री गुणगान का विधान गायत्री जाप से पूर्व इसलिए किया गया है कि जिससे गायत्री से होने वाले लाभों का ज्ञान हो सके और उसके प्रति हमारी श्रद्घा सुदृढ़ से सुदृढ़तर होती चली जाए। अंत में गायत्री स्तुति विषय का उपसंहार समझना चाहिए।
वस्तुत: गायत्री की सच्ची स्तुति यही है क्योंकि यथार्थ गुणों का कीर्तन करना ही स्तुति कहलाती है। और गायत्री महिमा, गायत्री गुणगान एवं गायत्री स्तुति के अंतर्गत गायत्री के गुणों का ही वर्णन किया गया है। अत: गायत्री जाप से पूर्व और पश्चात गायत्री का गुण कीर्तन करना अनर्गल प्रलाप नही समझना चाहिए। ओंकार महिमा के संबंध में भी यही जानना चाहिए। ईश्वर के गुणों का चिंतन साधारण व्यक्ति के लिए सामान्यत: कठिन है। अत: मंत्र में विद्यमान ईश्वर के उन गुणों के आधार पर भजनों का संकलन करके यथास्थान संयोजित करने का प्रयत्न किया गया जिससे साधक भजन के माध्यम से ईश्वर चिंतन कर सके। क्रमश: