भारतीय क्षत्रिय धर्म और अहिंसा (है बलिदानी इतिहास हमारा ) अध्याय – 17 (क) बाबा औघड़नाथ अर्थात महर्षि दयानंद और 18 57 की क्रांति

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1857 का ‘अंग्रेजो ! भारत छोड़ो आन्दोलन’

सर चार्ल्स ट्रेवेलियन ने सन 1853 की संसदीय समिति के सामने ‘भारत की अलग-अलग शिक्षा प्रणालियों के अलग-अलग राजनीतिक परिणाम’ – शीर्षक से एक लेख लिखकर प्रस्तुत किया था । इस लेख में उसने लिखा था कि :- “भारतीय राष्ट्र के विचारों को दूसरी ओर मोड़ने का केवल एक ही उपाय है , वह यह है कि उनके भीतर पाश्चात्य विचार उत्पन्न किए जाएं , जो युवक हमारे स्कूलों व कॉलेजों में पढ़ने लगते हैं , वह अपनी उस जंगली तानाशाही को जिसके अधीन उनके पूर्वज रहा करते थे , घृणा की दृष्टि से देखने लगते हैं और फिर अपनी राष्ट्रीय संस्थाओं को अंग्रेजी ढंग पर डालने की आशा करने लगते हैं।”

अंग्रेजों ने भारतवासियों के लिए नई शिक्षा प्रणाली आत्मरक्षा और भारतीयों के भीतर राष्ट्रीयता के विचारों को मारने के लिए लागू की थी। भारत के विषय में अपनी सोच को स्पष्ट करते हुए ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ के अध्यक्ष मिस्टर बैंगल्स ने सन 1857 में इंग्लैंड की संसद में बोलते हुए कहा था :-“परमात्मा ने भारतवर्ष का विशाल साम्राज्य इंग्लैंड को सौंपा है, इसलिए कि भारतवर्ष के एक सिरे से दूसरे सिरे तक ईसामसीह का विजयी झण्डा फहराने लगे। हमें अपनी पूर्ण सामर्थ्य इस काम में लगा देनी चाहिए । जिससे कि सारे भारत को ईसाई बना लेने के महान कार्य में देशभर के भीतर कहीं पर भी किसी कारण तनिक सी भी शिथिलता न आने पाए।”

क्रान्ति का बनाया गया गुप्त संगठन

जब अंग्रेज शासक भारत को ईसाई बनाने की घृणित चालें चल रहे थे और भारतवर्ष में रहकर अनन्त काल तक यहाँ पर शासन करने की नीतियों में लगे हुए थे तब भारतवर्ष के लोग भी चुपचाप नहीं बैठे थे । यहाँ पर जनता ने बड़ी कुशलता और सावधानी से एक गुप्त संगठन तैयार कर लिया था ।जिसके माध्यम से क्रांति के 5 केंद्रों का चिह्नीकरण भी कर लिया गया था । इन पांच केंद्रों के रूप में दिल्ली , बिठूर ,लखनऊ, कलकत्ता ,सतारा का नाम अनुमोदित किया गया था । अंग्रेज लेखक जैकब ने इस संगठन के बारे में लिखा है :- “जिस आश्चर्यजनक ढंग से यह गुप्त षड़यंत्र चलाया गया , जितनी दूरदर्शिता के साथ योजनाएं बनाई गईं , जिस प्रकार सावधानी के साथ इस संगठन के विभिन्न समूह एक दूसरे के साथ काम करते थे , एक समूह का दूसरे समूह के साथ सम्बन्ध रखने वाले लोगों का किसी को पता नहीं चलता था, और इन लोगों को केवल इतनी ही सूचना दी जाती थी जितनी उनके काम के लिए आवश्यक होती थी , उन सब बातों को ध्यान कर सकना कठिन है और यह लोग एक दूसरे के साथ सांझेदारी का व्यवहार करते थे।”
इस प्रकार की गुप्त योजना के माध्यम से कमल और चपाती को क्रान्ति का प्रतीक बना लिया गया। बहुत सावधानी बरतते हुए तत्कालीन नेतृत्व ने अर्थात क्रान्तिकारियों ने क्रान्ति को एक राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया। क्रान्ति की सफलता के लिए गम्भीर प्रयास किए गए । बहुत सावधानी के साथ अलग-अलग क्षेत्रों में देश के कई क्रान्तिकारी नेताओं को क्रान्ति की बागडोर सौंपी गई। अंग्रेजों की चाटुकारिता करते हुए कुछ भारतीय लेखकों ने भी 1857 की क्रान्ति को केवल कुछ मुट्ठी भर सैनिकों का विद्रोह मात्र कहा है, परन्तु ‘हिस्ट्री ऑफ आवर टाइम्स’ के लेखक मैकार्थी ने इस क्रांति के विषय में वास्तविकता का बयान करते हुए लिखा है :- “वास्तविकता यह है कि भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी एवं उत्तर पश्चिमी प्रान्तों में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध देशीय जातियों ने विद्रोह कर दिया था । केवल सिपाहियों ने ही विद्रोह नहीं किया इसे कोरी सैनिक क्रान्ति का नाम नहीं दिया जा सकता। यह भारत पर ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध सैनिक कठिनाइयों राष्ट्रीय घृणा और धार्मिक कट्टरता का सम्मिलित उभार था । इसमें देशी राजाओं और उनके सैनिकों ने भी भाग लिया था।”

बाबा औघड़नाथ का क्रान्ति में योगदान

क्रान्ति के प्रति हमारे क्रान्तिकारियों की गम्भीरता का पता इस बात से चलता है कि उन्होंने सारे देश में एक साथ क्रान्ति आरम्भ करने के लिए 31 मई का दिन निश्चित किया था। उस समय स्वामी दयानन्द जी महाराज बाबा औघड़नाथ के नाम से मेरठ में क्रान्ति के लिए भारतीय हिन्दू व मुस्लिम सैनिकों को क्रान्ति के लिए प्रेरित कर रहे थे।
महर्षि दयानन्द के स्वनिर्मित जीवन चरित्र के पृष्ठ 189 पर वह लिखते हैं :-“हरिद्वार में नील पर्वत पर ठहरा।एक दिन पांच आगन्तुक मेरी कुटी के सामने आकर खड़े हो गए ।यह थे द्वितीय बाजीराव पेशवा के दत्तक पुत्र धुन्धुपन्त ( नाना साहब )वित्तीय थे उनके बन्धु अजीमुल्ला , तृतीय थे उनके भाई बाला साहब , चतुर्थ थे तात्या टोपे और पंचम थे जगदीशपुर के जमींदार कुंवरसिंह । नाना के प्रश्न के उत्तर में मैंने कहा कि किसी विदेशी राजा को किसी भी देश पर हुकूमत चलाने का हक नहीं है ।भारत असभ्य देश नहीं है। अंग्रेज भारतीयों से अधिक सभ्य नहीं हैं । इनके राज्य को सहन करना अधिक महापाप है। बालाजी के दूसरे प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा कि रजवाड़ों की अनैक्यता और हमारा आत्मविरोध ही हमारी हुई दुर्दशा का कारण है । तात्या टोपे , अजीमुल्ला , कुंवर सिंह के प्रश्नों का उत्तर दिया था और कहा कि युद्ध 100 बरस तक चल सकता है।”
पृष्ठ 195 पर लिखते हैं :-“मैं इन लाखों साधुओं को संगठित कर लूँगा, तुम शेष जनता को संगठित करो। सामरिक जनता में प्रचार के लिए कमल पुष्प और असामरिक जनता में प्रचार के लिए चपातियों का व्यवहार होता है । पर विद्रोह की तिथि निश्चित कर देनी चाहिए । नाना ने मुझे बिठूर आने का निमन्त्रण दिया , जो मैंने स्वीकार किया।”

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति

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