आज का चिंतन-24/10/2013
दुःखों को आदर सहित स्वीकारें
वरना आते रहेंगे बार-बार
– डॉ. दीपक आचार्य
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हर इंसान की जिन्दगी में एक निश्चित अनुपात में सुख और दुःख के आते-जाते रहने का क्रम निरन्तर बना रहता है। यह सुख या दुःख आने का समय व क्रम निर्धारित हो सकता है अथवा इनके रहने और खत्म हो जाने की अवधि निश्चित रहती है। इन दोनों में से एक का निर्धारण व्यक्ति के पाप-पुण्यों की स्थिति के अनुसार बना रह सकता है।
वर्तमान जन्म में हम जो प्राप्त कर रहे हैं वह हमारे पूर्वजन्म के कर्मों का प्रतिफल है। पाप होने पर दुःख तथा पुण्य होने पर सुख का आगमन व अहसास होता है और फिर कुछ समय हमें प्रभावित करने के बाद इनका प्रभाव समाप्त भी हो जाता है। किसी भी व्यक्ति की पूरी जिन्दगी में दुख या सुख का एकाधिकार कभी नहीं हुआ करता, पूर्व जन्म के किन्हीं क्रूर कुकर्मों से ऎसा हो सकता है लेकिन यह अपवादस्वरूप ही देखा जाता है।
पर इतना तो तय है कि किसी भी इंसान के जन्म लेने के समय ही यह निश्चित हो जाता है कि यह पूरी जिन्दगी कितने सुखों या दुःखों का उपभोग करने वाला है। किसी साधना या पुण्य से इनके समय या घनत्व को कम-ज्यादा जरूर किया जा सकता है मगर इन्हें खत्म नहीं किया जा सकता, इनका असर अवश्यंभावी है।
पूरे जीवन में सुखों और दुःखों के आवागमन के रहस्य को स्वीकार कर लिया जाए तो हम उस स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं जहाँ सुख और दुख दोनों ही परिस्थितियों में हम समत्व को प्राप्त कर लें और इन दोनों से ही ऊपर उठे रहें। इस स्थिति का भी अपना अलग ही आनंद होता है, यही शाश्वत आनंद भी है लेकिन यह अवस्था कोई-कोई बिरले लोग ही प्राप्त कर सकते हैं, सामान्य लोगों के बस का नहीं है यह।
एक औसत आदमी की पूरी जिन्दगी में एक निश्चित परिमाण में सुख और दुःखों का आयतन व क्रम निश्चित होता है और ऎसे में दोनों को ही भुगतने का हमें तैयार रहना चाहिए। सुख हर कोई चाहता है और यह कामना करता है कि उसकी जिन्दगी में हमेशा सुख ही सुख बने रहें, दुःखों का मुँह कभी न देखना पड़े। लेकिन ऎसा होता नहीं।
सुख और दुःख का जो स्टॉक हमारी जिन्दगी के लिए बना है उसका पूरा इस्तेमाल करना जरूरी है। यह अपने समय के अनुरूप आते-जाते रहते हैं। लेकिन कई बार हम किसी भी प्रकार दुःख आ जाने पर उसे किसी भी रूप में स्वीकार करना ही नहीं चाहते और इसी उधेड़बुन में उद्विग्न होते रहते हैं कि कैसे इसे हटाया जाए और सुख प्राप्त किया जाए।
किसी दैवीय बाधा लेने या मुद्रा के लेन-देन अथवा और किसी जायज-नाजायज माध्यम से इस दुःख को हटाने की जब हम कोशिश करते हैं और कभी-कभार सफल भी हो जाते हैं तब हम दुःख निवृत्ति की अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव करने लग जाते हैं जबकि यह सिर्फ आभासी निवृत्ति ही कही जा सकती है। इस दुःख की आने वाले समय में फिर कभी भी आवृत्ति हो सकती है। हो सकता है हमारी आयु के उत्तराद्र्ध में यह फिर आ धमके, और उस समय हमारा मन-मस्तिष्क और शरीर इस दुःख को सहन करने में समर्थ नहीं हो।
इसलिए जो दुःख हमारे सामने आए, उसे प्रसन्नतापूर्वक और सादर स्वीकार कर लें इसी में अपनी भलाई है। दुःख को प्रसन्नता से स्वीकारने पर दुःख का आभास कम होेगा, दुःखी मन से स्वीकार करने व इसका अनादर करने पर पीड़ा का अनुभव ज्यादा होता है। इससे भी बेहतर यह होगा कि हम अपने दुःखों को सादर आमंत्रित करते हुए यह स्थिति लाएं कि यौवन काल में ही जीवन के सारे दुःखों की इतिश्री कर लें ताकि जीवन का उत्तराद्र्ध अच्छा गुजरता रहे।
कई बार हमारी स्थिति यह हो जाती है कि हम सुख ही सुख प्राप्त करने के लिए कई सारे जतन करते हैं, बाधाएँ लेते हैं, देवी-देवताओं, बाबाओं और देवरों तक दौड़ लगाते हैं, तंत्र-मंत्र और यंत्रों से लेकर सारे टोने-टोटकों का प्रयोग करते हैं। पर ये दुःख निवारण का स्थायी समाधान नहीं है। जो दुःख आज टल गया है, वह मौका देखकर फिर आ धमकने वाला है।
दुःख या सुख दोनों में से कुछ भी शेष रह जाने पर फिर जन्म लेकर इसे भुगतने आना ही पड़ता है, इस सत्य को सामने रखकर जीवन व्यवहार और कर्मयोग को अपनाएं। उस स्थिति को प्राप्त करने का प्रयास हम सभी को करना चाहिए जहाँ सुख और दुःख दोनों से हम ऊपर रहें। वास्तव में यही जीवन्मुक्ति की राह है।