भारतीय क्षत्रिय धर्म और अहिंसा ( है बलिदान इतिहास हमारा ) अध्याय -16 ( ख) भारत में अंग्रेजों के शासन काल के 100 वर्षों में हुए विद्रोहों की सूची

महाराष्ट्र मण्डल की स्थापना

1757 में हुए पलासी के युद्ध के पश्चात किस प्रकार अंग्रेज भारत में जम गए और उन्होंने अपना साम्राज्य विस्तार करना आरम्भ किया ? – इतिहास का यह निराशाजनक तथ्य तो हमें बताया व पढ़ाया जाता है परंतु इसी समय सिंधिया , होलकर , गायकवाड और भौसले जैसे चार राजघरानों के द्वारा बनाए गए ‘महाराष्ट्र मंडल’ के बारे में हमें नहीं बताया जाता। निश्चय ही इस ‘महाराष्ट्र मंडल’ का उद्देश ‘हिंदू राष्ट्र’ का निर्माण करना था । जिसके माध्यम से इन चारों राजघरानों ने मुस्लिम शासकों और अंग्रेजों की जनविरोधी नीतियों का विरोध कर भारत को स्वतंत्र करने का निर्णय लिया था। कुल मिलाकर ये चारों राजवंश उस समय भारत के स्वाधीनता की लड़ाई के केंद्र बन गए थे। इसी समय पेशवा , नाना फडणवीस, राघोबा , माधोराव आदि के भीतर देशभक्ति की जो ज्वाला धधक रही थी , उसने भारतीयों के भीतर वीरता के भाव संचरित किये रखे और भारत विदेशी शासकों से लोहा लेने के लिए ऊर्जान्वित होता रहा।

भारत की इसी जीवंत और ऊर्जावान लड़ाकू शक्ति ने हैदरअली , टीपू सुल्तान और अंग्रेज जैसी तीन लुटेरी और भारत विरोधी शक्तियों का उस समय जमकर विरोध किया था।
अंग्रेजों के शासनकाल के सम्बन्ध में हमें यह तथ्य भी ध्यान रखना चाहिए कि जब अंग्रेज यहाँ पर तथाकथित न्यायिक सुधार कर रहे थे या भूमि सम्बन्धी सुधारों करने का नाटक रच रहे थे या शिक्षा के क्षेत्र में तथाकथित व्यापक सुधार करने की योजना बना रहे थे – तब हर भारतीय ने उनके इन सभी तथाकथित सुधारों का विरोध करने का निर्णय लिया था । क्योंकि हमारी न्याय प्रणाली अंग्रेजों की न्याय प्रणाली से कहीं अधिक स्वच्छ और भ्रष्टाचार मुक्त थी । जबकि हमारी शिक्षा पूर्णतया सेवा का एक माध्यम मानी जाती थी। जबकि अंग्रेजों की शिक्षा प्रणाली लुटेरी शिक्षा प्रणाली थी । जो आज तक भारत को लूट रही है । इसी प्रकार उनकी न्याय प्रणाली भी पहले दिन से ही भ्रष्टाचार फैलाने में सहायक बन गई थी । उनके न्यायालयों में जाना या उनकी शिक्षा लेना भारतीय अपने लिए अपमान समझते थे । भारतवासियों की इस प्रकार की भावना को भी उनकी स्वतंत्रता प्रेमी भावना का एक प्रमाण समझकर हमें महिमामण्डित करना चाहिए।

अंग्रेजी न्याय प्रणाली का भी हुआ विरोध

अंग्रेजों की न्याय पद्धति कितनी निकृष्ट थी और क्यों भारत के लोग उसका विरोध कर रहे थे ? इसको समझने के लिए अंग्रेज विद्वान एस लॉब की यह टिप्पणी पर्याप्त है :- “हमारी न्याय पद्धति कितनी जलील है , वकालत की जैसी यूरोपियन प्रथा को हम इस देश में प्रचलित करने का भरसक प्रयास कर रहे हैं क्या उससे अधिक सदाचार से गिरी हुई
किसी दूसरी प्रथा का अनुमान भी किया जा सकता है ? क्या हमारी अदालत रिश्वत के अड्डे नहीं है और क्या मुकदमे बाजी का शौक कौम के दिमाग पर लगती बीमारी की तरह असर करके उसे पूरी तरह सदाचार भ्रष्ट नहीं कर रहा है ? जहाँ तक हो सके वहाँ तक लोगों को अपने मुकदमे आपस में ही तय करने का अवसर क्यों न दिया जाए ?”
अंग्रेजों के शासन काल में महाराजा रणजीतसिंह जैसे भारत प्रेमी देशभक्त शासकों का भी शासन रहा। जिनके इतिहास को भारत के गौरव पूर्ण इतिहास में बेशक चाहे उचित स्थान न मिला हो परन्तु उनकी देशभक्ति भी भारतवासियों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है।

राष्ट्रवाद हिलोरें मारता रहा

अंग्रेजों ने पूर्णतया एक अनुत्तरदायी पूर्ण शासन भारत में स्थापित किया। किसी अंग्रेज शासक ने अपमानजनक सन्धियों के माध्यम से भारत के राज्यों को हड़पने का षड्यंत्र किया तो किसी ने सहायक सन्धियों का बेतुका नाटक रचा और किसी ने शिक्षा में तथाकथित सुधार कर भारत की प्राचीन शिक्षा प्रणाली को समाप्त करने का घिनौना प्रयास किया तो किसी ने भारत की न्याय व्यवस्था को उजाड़ने के सपने बुने । इन सारी अनीति पूर्ण नीतियों ने 1857 की क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया । देश के लोगों ने अंग्रेजों की राज्य विस्तार की कपटपूर्ण नीति को समझ लिया। साथ ही यह भी समझ लिया कि हमारे देश के राजाओं के साथ अंग्रेजों का कितना अधिक अन्यायपूर्ण व्यवहार है ? लोगों ने अंग्रेजों की भारत को मिटाने की षड्यंत्रकारी नीतियों को भी गहराई से समझने का प्रयास किया । जिससे भारत का राष्ट्रवाद हिलोरे मारने लगा । इसको कई इतिहासकार इस प्रकार लिखते हैं कि जैसे भारत में राष्ट्रवाद का उदय अंग्रेजों के आने के बाद होना आरम्भ हुआ । विशेष रूप से जब भारतवासियों ने अंग्रेजों की शिक्षा प्रणाली के माध्यम से शिक्षित होना आरम्भ किया तो उन्हें अपना राष्ट्रवाद याद आया । जबकि ऐसा नहीं था। आपको अभी तक के हमारे लेखन से यह है स्पष्ट हो गया होगा कि भारत प्राचीन काल से ही राष्ट्रवाद, राष्ट्रीयता और राष्ट्र जैसे पवित्र शब्दों से पूर्णत: परिचित था । उसने अन्याय व अत्याचार का सदैव विरोध किया था । आज जब अंग्रेजों की दमनकारी नीतियां सर चढ़कर बोलने लगी तो फिर भारत ने 1857 में अपने ‘पुनरुज्जीवी पराक्रम’ का परिचय देने के लिए कमर कस ली ?

100 वर्षीय कालखण्ड के क्रान्तिकारी आन्दोलन

हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि 1757 से लेकर 1857 की क्रांति के मध्य के 100 वर्षीय कालखण्ड में भी हमारे देश में अनेकों क्रान्तिकारी आन्दोलन चलते रहे । उनमें से कुछ मुख्य आन्दोलनों के नाम इस प्रकार हैं :-
1757 के बाद शुरू हुआ संन्यासी विद्रोह (1763-1800), मिदनापुर विद्रोह (1766-1767), रगंपुर व जोरहट विद्रोह (1769-1799), चिटगाँव का चकमा आदिवासी विद्रोह (1776-1789), पहाड़िया सिरदार विद्रोह (1778), रंगपुर किसान विद्रोह (1783), रेशम कारिगर विद्रोह (1770-1800), वीरभूमि विद्रोह (1788-1789), मिदनापुर आदिवासी विद्रोह (1799), विजयानगरम विद्रोह (1794), केरल में कोट्टायम विद्रोह (1787-1800), त्रावणकोर का बेलूथम्बी विद्रोह (1808-1809), वैल्लोर सिपाही विद्रोह (1806), कारीगरों का विद्रोह (1795-1805), सिलहट विद्रोह (1787-1799), खासी विद्रोह (1788), भिवानी विद्रोह (1789), पलामू विद्रोह (1800-02), बुंदेलखण्ड में मुखियाओं का विद्रोह (1808-12), कटक पुरी विद्रोह (1817-18), खानदेश, धार व मालवा भील विद्रोह (1817-31,1846 व 1852), छोटा नागपुर, पलामू चाईबासा कोल विद्रोह (1820-37), बंगाल आर्मी बैरकपुर में पलाटून विद्रोह (1824), गूजर विद्रोह (1824), भिवानी हिसार व रोहतक विद्रोह (1824-26), काल्पी विद्रोह (1824), वहाबी आन्दोलन (1830-61), 24 परगना में तीतू मीर आन्दोलन (1831), मैसूर में किसान विद्रोह (1830-31), विशाखापट्टनम का किसान विद्रोह (1830-33), मुण्डा विद्रोह (1834), कोल विद्रोह (1831-32) संबलपुर का गौंड विद्रोह (1833), सूरत का नमक अनफालन (1844), नागपुर विद्रोह (1848), नगा आन्दोलन (1849-78), हजारा में सय्यद का विद्रोह (1853), गुजरात का भील विद्रोह (1809-28), संथाल विद्रोह (1855-56), ।
यह सारे साक्ष्य बताते हैं कि भारत में इस काल में सर्वत्र स्वराज्य का गुलाल बिखरा रहा।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनरलेखन समिति

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