ओ३म्
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वैदिक धर्म एवं संस्कृति में मर्यादा पुरुषोत्तम राम का जीवन आदर्श, अनुकरणीय एवं प्रेरक उदाहरणों से युक्त जीवन है। वह आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति, आदर्श राजा, आदर्श शत्रु, आदर्श मित्र, ईश्वर, वेद एवं ऋषि परम्पराओं को समर्पित, उच्च आदर्शों एवं चरित्र से युक्त महापुरुष व महामानव थे। त्रेता युग में चैत्र मात्र के शुक्ल पक्ष की नवमी को उनका जन्म पिता दशरथ तथा माता कौशल्या जी के यहां कौशल देश की राजधानी अयोध्या में हुआ था। राजा दशरथ की तीन रानियां कौशल्या, कैकेयी तथा सुमित्रा थी। राम चार भाईयों में सबसे बड़े थे। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उन्होंने वेदों के मर्म को जाना व समझा था तथा उसके अनुसार अपने जीवन को बनाया था। वह प्रजा वत्सल आदर्श राजा थे। उनमें न लोकैषणा थी और न ही वित्त व पुत्र एषणा। उन्होंने एक राजा होकर अपने जीवन में अपने पिता की आज्ञा का पालन का एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत जिसकी उपमा विश्व के इतिहास में दूसरी नहीं मिलती। हम सब जानते हैं कि राजा दशरथ ने अपनी प्रिय रानी कैकेयी को युवावस्था में युद्ध में उनकी प्राणरक्षा करने के लिये दो वरदान दिये थे। राजा दशरथ ने जब वृद्धावस्था में प्रवेश करते हुए वानप्रस्थी होने का विचार किया था और मंत्री परिषद की सम्मति से राम को राजा घोषित किया तो कैकेयी ने इस निर्णय से खिन्न होकर अपने दो वरदान मांग लिये थे। इन वरदानों को मांगने की प्रेरणा उनकी एक प्रमुख दासी मन्थरा ने की थी। यह वरदान थे राम को चैदह वर्ष का वनवास और भरत को अयोध्या का राज्य का राजा बनाना।
महाराजा दशरथ के सम्मुख कैकेयी को वरदान रूप में दिये अपने वचनों को पूरा करने में धर्म संकट उत्पन्न हो गया था। कारण उनका राम के प्रति मोह होना था। दूसरा कारण यह भी था कि राम सर्वथा निर्दोष थे और कुल परम्परा व योग्यता की दृष्टि से अयोध्या के राजा बनने के योग्य थे। यह तो हो सकता था कि राम को राजा न बनाया जाये, उनके स्थान पर भरत अयोध्या के राजा बन जायें, परन्तु कैकेयी अपनी दोनी ही बातों को पूरा करने के लिये हठ कर रही थी। इस अभूतपूर्व पारिवारिक परिस्थिति का समाधान राम ने स्वयं को साधु वेश में 14 वर्ष के लिये उसी दिन वन जाने की घोषणा वा निर्णय कर दिया। एक राजा होकर व उसके वैध तरीके से अध्यक्ष व राजा बनाये जाने पर भी उन्होंने राज्य का ही त्याग नहीं किया अपितु अपनी पिता के वचनों को सत्य सिद्ध करने, माता कैकेयी की आकांक्षा पूरी करने और अपने छोटे भाई भरत को राजा बनाने के लिये इस अपूर्व त्याग का अद्वितीय आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया। ईश्वर की कृपा हुई कि बाद में ऋषि बाल्मीकि जी ने राम का जन्म से लेकर राज्याभिषेक तक का इतिहास लिखा जो बाल्मीकि रामायण के रूप में उपलब्ध होता है। इस इतिहास से राम चन्द्र जी के जीवन की प्रत्येक बात को यथार्थ में जानने में आज लगभग 10 लाख वर्षों बाद भी हम समर्थ व सफल हैं। पूरा विश्व वा मानव जाति राम चन्द्र जी के अयोध्या राजा के पद के त्याग करने सहित पिता की आज्ञा पालन करने के लिये वन जाने, वहां साधु वेश की मर्यादाओं का पालन करते हुए जीवन व्यतीत करने, नगरों में न जाना, पिता दशरथ की मृत्यु के बाद माता कैकेयी व भाई भरत के शुद्ध हृदय से की गई विनती को भी स्वीकार न कर पिता के वचनों को सत्य सिद्ध करने के लिये अडिग रहने आदि उनके निर्णयों के निश्चय ही प्रशंसक हैं। कुछ अज्ञानी व विकृत मानसिकता के मनुष्य यदि राम के आदर्श चरित्र को स्वीकार न भी करें तो इससे राम के त्याग व आदर्श कम नहीं होते। अतः राम का आदर्श पूरी मानव जाती के लिए प्रेरक एवं अनुकरणीय है। उनका अनुकरण कर मनुष्य सच्चा ईश्वर भक्त, विद्वानों का भक्त व अनुचर, पितृभक्त, त्यागी, तपस्वी, देशभक्त, धर्म व संस्कृति का प्रेमी, आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति, आदर्श राजा व आदर्श शत्रु के गुणों से युक्त हो सकता है। रामचन्द्र जी के बारे में यह कहावत सत्य चरितार्थ होती है कि जब तक संसार में सूर्य व चन्द्र आदि विद्यमान है, राम का यश व कीर्ति संसार में अक्षुण रहेगी।
रामचन्द्र जी के जीवन में अनेक विशेषतायें थी। उन्होंने अत्यन्त विपरीत परिस्थितियों में अपने पिता, अपनी तीनों माताओं तथा भाईयों का सम्मान प्राप्त किया। भरत ने तो उनको इतना सम्मान दिया कि राम की आज्ञा का पालन करते हुए उन्होंने राम के समान त्याग का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए राजधानी अयोध्या से कुछ दूर ग्राम व वन के समान वातावरण में रहकर साधुओं का जीवन व्यतीत करते हुए अपने राज्य का संचालन किया। उनके शासन काल में भी अयोध्या में राम राज्य के समान प्रजा समस्त सुखों व सन्तोष से युक्त थी। राम के वनगमन पर वन में रहकर ईश्वर का ध्यान तथा देश व समाज की सुख व समृद्धि आदि के लिये किये जाने यज्ञों का करने वाले ऋषियों, मुनियों व साधुओं को राक्षसों द्वारा परेशान करने व उनकी हत्या आदि तक करने जैसी समस्यायें सामने आयीं। यहां भी उन्होंने वेदों से प्रेरणा लेकर सभी राक्षस शक्तियांे व समुदायों से अकेले व अपने भाई लक्ष्मण के साथ युद्ध किये व सभी शत्रुओं को परास्त ही नहीं किया अपितु सभी प्रमुख राक्षसों का वध कर वनों में ईश्वर की उपासना व भक्ति करने वाले ऋषियों व तपस्वियों को सुखी व निश्चिन्त किया। राम चन्द्र जी का यह कार्य हमारी वर्तमान सरकारों व देशवासियों के लिये प्रेरक है। हमें लगता है कि प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी यथासम्भव राम की नीतियों का पालन कर रहे हैं। 14 वर्षों तक वनों में विचरण करते हुए रामचन्द्र जी ने प्रायः सभी स्थानों को राक्षसों से विहीन कर दिया था।
वनों में भ्रमण करते हुए रामचन्द्र जी अनेक वृद्ध व सिद्ध योगियों सहित अनेक ऋषियों के सम्पर्क में आये थे। उन सबका सान्निध्य भी श्री राम, सीता जी व लक्ष्मण जी ने प्राप्त किया था तथा उनसे सदुपदेश प्राप्त किये थे। यह सदुपदेश वेदों की आज्ञाओं पर प्रकाश डालते थे और उनका मानना व पूरा करना ही रामचन्द्र जी ने एक क्षत्रिय राजा होने के कारण अपना धर्म व कर्तव्य निर्धारित किया था। ऋषियों का आशीर्वाद तथा उनके द्वारा युद्ध विषयक ज्ञान व अस्त्र शस्त्र प्रदान करने का परिणाम यह हुआ कि रामचन्द्र जी प्रत्येक युद्ध में अकेले ही विजय पाते रहे। उनके पास शारीरिक बल, वीरता, अपने कर्तव्यों का ज्ञान, उन्हें पूरा करने के प्रति निष्ठा तथा आवश्यक अस्त्र शस्त्र उपलब्ध थे। इसका परिणाम ही खर दूषण प्रतापी राक्षसों के वध, बाली वध, ताड़का वध, कुम्भकरण-मेघनाथ-रावण वध आदि के रूप में हम देखते हैं। रामचन्द्र जी को जिन छोटे राजाओं ने किंचित भी सहयोग दिया, उन्होंने उन्हें अपना मित्र बनाया व आजीवन मित्रता को आदर्श रूप में निभाया भी। उनके कुछ मित्र केवट, सुग्रीव, हनुमान, अंगद, विभीषण आदि के प्रति उनका व्यवहार आदर्श उपस्थित करता है। श्री राम के जीवन में हम उन्हें नारी जाति को सम्मान देते हुए भी देखते हैं। रामचन्द्र जी के युग में नारियों को वेदाध्ययन करने तथा स्वयंवर विवाह करने के अधिकार प्राप्त थे। कौशल्या, कैकेयी, सुमित्रा तथा सीता आदि ने वेदों का अध्ययन किया था। सीता जी को तो वैदेही की संज्ञा प्राप्त है। माना जाता है कि वह चारों वेदों की विदुषी थी। रामचन्द्र जी भी वेदों के विद्वान थे और यजुर्वेद में उनको विशेष प्रवीणता प्राप्त थी। राम चाहते तो उन दिनों सुग्रीव व रावण की लंका को अपने राज्य का अंग बना सकते थे परन्तु उन्होंने वेदों की शिक्षाओं से प्रेरणा लेकर किसी राज्य की स्वतन्त्रता का हरण नहीं किया अपितु वहां धर्म पारायण राजाओं को स्थापित कर उनको स्वतन्त्र बनाये रखा और उनकी प्रजा को भी सुख व उन्नति के अवसर प्रदान किये।
रामचन्द्र जी को बाली, रावण व अनेक प्रतापी राक्षसों से इस कारण युद्ध करना पड़ा कि ये सब अधर्म का प्रतिनिधित्व करते थे। इन राजाओं में से किसी का चरित्र उज्जवल व वेदानुकूल नहीं था। उनके राज्य की जनता इनके कुशासन से त्रस्त थी। माता सीता का अपहरण होने पर भी राम ने महाबली राजा बाली से सन्धि नहीं की। ऐसा करके वह सरलता से माता सीता को रावण की कैद से छुड़ा सकते थे। उन्होंने धर्मपालक विस्थापित राजा सुग्रीव का साथ दिया और उसकी सहायता से रावण को अपनी भूल सुधार वा क्षमायाचना करने का अवसर भी दिया। रावण को अपनी शक्तियों का मिथ्या अभिमान था। वह अपने इस अभिमान, अधर्म व दुश्चरित्रता के कारण ही अपने समस्त बन्धुओं व पुत्रों सहित नाश को प्राप्त हुआ। रावण को पराजित कर राम ने उनके भाई विभीषण को जो धर्म तत्व को जानता व मानता था तथा रामचन्द्र जी का सहयोगी भी था, उसे लंकाधिपति बनाया और वनवास की अवधि पूरी होने पर अयोध्या लौट आये। अयोध्या लौटकर वह अपने भ्राता भरत व शत्रुघ्न तथा माताओं सहित प्रजाजनों व ऋषि मुनियों से मिले थे। सभी ने उनका सम्मान किया था। कुछ ही समय बाद उनका सर्वसम्मति, उत्साह व प्रसन्नता से राज्याभिषेक हुआ और उसके बाद वर्षों तक वह अयोध्या के आदर्श राजा बने रहे। उनका राज्य आदर्श वैदिक राज्य था। रामचन्द्र जी वेदों की सभी शिक्षाओं को मानने वाले विश्व के सबसे महान राजा व महापुरुष थे। उन्होंने अपने पूर्वजों की कीर्ति को बढ़ाया है।
मर्यादा पुरुषोत्तम राम का जीवन चरित्र सभी देशवासियों को पढ़ना चाहिये। स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती द्वारा सम्पादित प्रक्षेप रहित बाल्मीकि रामायण स्वाध्याय का उत्तम ग्रन्थ है। महाभारत युद्ध के बाद वेदाध्ययन में अवरोध होने के कारण अपने देश व समाज में अन्धविश्वास एवं कुरीतियां उत्पन्न र्हुइं। मूर्तिपूजा, मृतक श्राद्ध व फलित ज्योतिष इसी मध्यकाल की देन हैं। इन अन्धविश्वासों व कुरीतियों के कारण ही देश छोटे छोटे राज्यों में विभक्त हुआ और ईसा की आठवीं शताब्दी में यवनों ने देश के कुछ भागों को गुलाम बनाया। बाबर आदि क्रूर राजाओं ने देश के कुछ भागों पर शासन किया। उसी के शासन में अयोध्या का राम मन्दिर तोड़ा गया था। देश की आजादी के बाद से राम जन्म भूमि मन्दिर की मुक्ति का मुकदमा चल रहा था। इस कानूनी लड़ाई में आर्य हिन्दुओं को अयोध्या में राम जन्म भूमि मन्दिर की विवादित भूमि मिली है। बाबर के समय से ही राम जन्म भूमि को विधर्मियों से मुक्त कराने के लिये लाखों आर्यों ने बलिदान दिये हैं। विधर्मियों को मजहब के नाम पर पाकिस्तान भी मिल गया और उन्होंने हमारे देश में आर्यों की मन्दिर आदि की सम्पत्तियों पर भी अवैध कब्जा किया हुआ है। मोदी जी के 6 वर्षों के शासन की अनेक उपलब्धियों में एक यह अयोध्या मन्दिर विवाद का शान्तिपूर्ण हल होना भी सम्मिलित है। राम जन्मभूमि मन्दिर के निमार्ण की प्रक्रिया आरम्भ हो गई है। मोदी जी और योगी जी के नेतृत्व में कार्य योजनाबद्धरूप से चल रहा है। आने वाले दो तीन वर्ष में अयोध्या में जन्मभूमि स्थान पर विश्व का एक भव्य एवं विशाल मन्दिर बनेगा। मन्दिर निर्माण के कार्य में उ.प्र. के मुख्य मंत्री श्री आदित्यनाथ योगी जी का भूमिका भी प्रशंसनीय है।
राम मन्दिर को महापुरुष भगवान रामचन्द्र जी की गरिमा के अनुरूप बनाना चाहिये। रामचन्द्र जी अविद्या, अन्धविश्वास तथा कुरीतियों से कोसों दूर थे। वह निष्ठावान वैदिक धर्मी व ऋषियों के अनुयायी थे। निमार्णाणीन मन्दिर में भी अन्धविश्वासरहित वेदों व वैदिक धर्म की ही प्रतिष्ठा होनी चाहिये। भविष्य में उसे विधर्मियों व आर्य हिन्दू संस्कृति विरोधी सेकुलरों से किसी प्रकार की क्षति न हो, इस पर समस्त आर्य हिन्दू जाति को ध्यान देना है और उसके उपाय करने चाहियें। ईश्वर करे कि इस देश का हर बच्चा राम के आदर्श को अपनाये और अपने जीवन को सफल करें। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत