डॉ. राकेश राणा
असली भारत गांवों में बसता है। देश के करीब छः लाख गांव में बसे लघु-सीमांत किसान अपने खून-पसीने की मेहनत से कृषि उद्यम कर देश को खाद्यान्न की दृष्टि से आत्मनिर्भर बनाने का सफल किर्तिमान स्थापित कर चुके हैं। एग्रीकल्चर सेंसस के अनुसार 67.04 प्रतिशत किसान परिवार सीमांत किसान हैं। जिनके पास एक हेक्टेयर से भी कम जमीन का स्वामित्व है। उनमें भी 17.93 प्रतिशत छोटे किसान परिवार हैं जिनके पास एक से दो हेक्टेयर जमीन का मालिकाना है। वहीं 10.05 प्रतिशत परिवारों के पास मात्र 2 से 4 हेक्टेयर जमीन है जिन्हें अर्द्ध-मध्यम श्रेणी का किसान माना जाता है और मध्यम श्रेणी में चार से दस हेक्टेयर के किसान आते हैं। 10 हेक्टेयर से अधिक जमीन वाले मात्र लगभग 5 प्रतिशत किसान ही देश में हैं। यह परिदृश्य साफ बताता है कि भारत लघु-सीमांत किसानों का विशाल देश है। भारतीय ग्रामीण समाज में छोटी जोत वाले आम गरीब कृषक परिवार ही ज्यादा है। देश में कृषि जोत का आकार लगातार घटता जा रहा है। परिणामस्वरूप आय कम और बढ़ते खर्चों से ग्रामीणों का जीवन स्तर निरन्तर गिर रहा है।
कोरोना वैश्विक महामारी से उपजे आर्थिक संकट से देश को उबारने में भी ग्रामीण भारत ही महती भूमिका निभायेगा। सरकार के आत्मनिर्भर भारत अभियान को गति देने का काम देश का किसान वर्ग ही करेगा। आत्मनिर्भर भारत अभियान के अंतर्गत केंद्र सरकार द्वारा 20 लाख करोड़ रुपए जो देश की जीडीपी का लगभग 10 प्रतिशत है, निर्धारित किया गया। देश में लॉकडाउन के प्रभावों को न्यूनतम करने के लिए सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों एवं किसान तथा मजदूरों को लाभ पहुंचाने के लिए आर्थिक पैकेज तैयार किया गया है। जिसका उद्देश्य 130 करोड़ भारतवासियों को आत्मनिर्भर बनाना है। एक समृद्ध और संपन्न भारत के निर्माण में आत्मनिर्भर भारत अभियान निश्चित ही मील का पत्थर बनेगा। इससे सभी सेक्टरों की कार्य क्षमता व दक्षता बढ़ेगी और गुणवत्ता भी आयेगी। इस योजना का लक्ष्य किसानों की आय को दोगुणा करना है। किसानों की आर्थिक स्थिति सुधरे, इसके लिए एग्रीकल्चर इंफरास्ट्रक्चर हेतु 11 लाख करोड़ रुपये के कोष की व्यवस्था की गयी है। सूक्ष्म खाद्य उद्यमों के लिए एक हजार करोड़ रुपए की एवं मछली उद्योग के लिए दो हजार करोड़ रुपए आवंटित किए है। पशुपालन के लिए बुनियादी ढांचा विकसित हो सके इस हेतु 15,000 करोड़ रुपए की अरिरिक्त व्यवस्था इस पैकेज में की गयी है। ग्रामीण किसानों को आधुनिक खेती की ओर प्रवृत्त किया जाय इस दृष्टि से हर्बल खेती को प्रोत्साहन देने के लिए 500 करोड़ रुपए की अरिरिक्त व्यवस्था अभियान के तहत की गई है। साथ ही पांच सौ करोड़ रुपए की धनराशि फल-सब्जियों के खाद्य प्रसंस्करण हेतु आप्रेशन गीन के विस्तार हेतु रखी गई है। वहीं मनरेगा के तहत ग्रामीणों को आर्थिक संबल प्रदान करने की दिशा में चालीस हजार करोड़ रुपए की व्यवस्था की गयी है।
अब सवाल यह उठता है कि सरकार ने जो आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य रखा है वह हासिल कैसे किया जाय? एनएसएसओ की रिपोर्ट बताती है कि देश में खेती छोड़कर पलायन करने वाले ग्रामीणों में सर्वाधिक संख्या सीमांत किसानों की है। ऐसे चुनौतीपूर्ण माहौल में जब किसान वर्ग खेती-बाड़ी से विमुख हो रहा है। कैसे सरकार आत्मनिर्भर भारत अभियान को सफल बनाए। इस चुनौतीपूर्ण परिदृश्य में सरकार को समाज के साथ मिलकर कुछ प्रेरक मॉडल कृषि क्षेत्र के लिए विकसित करने की जरूरत है। कृषि की छोटी-छोटी जोतों को जोड़कर प्रयोगधर्मी आकार के कृषक समूहों का निर्माण करने जरूरत है। जो सहकारी खेती का एक सामाजिक मॉडल बन सकता है। जिसमें जमीनों को संगठित किया जाय और खेती में कुछ नए ढंग के प्रयोग किए जाएं। कृषि को योजनाबद्ध तरीके से आधुनिक बनाने की जरूरत है। इसके लाभ विभिन्न स्तरों पर तो दिखायी देंगे ही, किसानों की आय दोगुनी करने में भी यह मॉडल बहुत कारगर सिद्ध होगा।
सहकारी खेती यानी छोटे किसानों का आपस में मिल-जुलकर खेती करना है। यह खेतीबाड़ी करने का ग्रामीण भारत में परम्परागत सामाजिक मॉडल है। पश्चिमी उत्तर-प्रदेश और हरियाणा में साझी खेती करने के इस मॉडल को ’डंगवारा’ कहा जाता रहा है। परम्परागत भारतीय समाज की इस सहयोगात्मक व्यवस्था को केरल और आंध्र प्रदेश में महिला कृषक समूहों के जरिए सरकार ने आधुनिक रूप प्रदान किया है। केरल सरकार का ‘कुडुम्बश्री’ कार्यक्रम इसी पैटर्न पर 10 किसानों को जोड़कर एक समूह बनाता है और खेती के लिए लीज़ पर ज़मीन उपलब्ध कराता है। यह केरल में बेहद लोकप्रिय कार्यक्रम है। ग्रामीण विकास हेतु रोजगार उपलब्ध कराने से लेकर जीवन स्तर सुधारने तक यह अहम् भूमिका निभा रहा है। इसी तरह आंध्र प्रदेश में महिलाओं के समूह को-आपरेटिव खेती कर रहे हैं। पश्चिमी उत्तर-प्रदेश में पारस कृषि संस्थान ऐसे प्रयोगों का नया मॉडल खड़ा कर रहा है। देश के सीमांत किसानों की अधिकांश समस्याओं का हल खेती की इस साझा प्रणाली में छिपा है।
आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत कृषि क्षेत्र पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। क्योंकि वहां रोजगार और विकास की सर्वाधिक गुंजाईश तो है ही दूसरा भारत का कृषि क्षेत्र जिन समस्याओं से जूझ रहा है उनका समाधान भी यह अभियान कर सकता है। भारतीय गांव जैविक खेती के महान प्रयोग स्थल बनकर उभर सकते हैं। जिससे किसान का सशक्तिकरण तो होगा ही, देश और दुनिया के सम्मुख खड़ी पर्यावरणीय चुनौतियां भी कम होंगी। अधिक पैदावार और शीघ्र उत्पादन के लिए फसलों में जो अंधाधुंध रसायनिक खाद, कीटनाशक और खरपतवार नाशक दवाओं का प्रयोग हो रहा है। नतीजतन मिट्टी, जल, हवा और खाद्यान सब प्रदूषित हो रहे हैं। जिनके जरिए बीमारियां मानव शरीर में पहुॅंच रही हैं। परिणामस्वरूप ग्रामीणों की आय का बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च हो रहा है और उनकी आय व जीवन स्तर दोनों निम्न बने हुए हैं।
मानव स्वास्थ्य का प्रभाव देश की अर्थव्यवस्था और समाज पर सीधा पड़ता है। इसलिए पर्यावरणीय और स्वास्थ्य की दृष्टि के साथ आर्थिक नजरिए से भी जैविक खेती समाज को सशक्त बनाने का एक कारगर माध्यम है। कृषि उत्पादों और उनसे संबंधित लघु-कुटीर उद्योग गावों में लगेंगे तो ग्रामीणों की आय में गुणात्मक वृद्धि होगी। जैविक उत्पाद से आय बढ़गी और लागत खर्च कम होगा। आत्मनिर्भर भारत अभियान इसका आधार बने और इसी में दोनों की सफलता भी निहित है। आत्मनिर्भर भारत की राह किसान ही बनाएगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)