बातूनी लोग बिगाड़ते हैं
– डॉ. दीपक आचार्य
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काम के प्रति ईमानदार और वफादार लोग हमेशा धीर-गंभीर रहते हुए अपने कामकाज में व्यस्त और मस्त रहा करते हैं जबकि जो लोग अपने कामों की बजाय आनंद को तरजीह देते हैं उनकी वृत्तियां बहिर्मुखी हो जाती हैं और ऎसे लोग अपने कामों के प्रति लापरवाह या हर काम को हल्के-फुल्के में लेकर पूरी कर देने की औपचारिकता भर से भरे होते हैं।
इनके लिए काम की गुणवत्ता की बजाय जैसे-तैसे काम की बला को अपने सर से टालकर औरों के मत्थे मढ़ना होता है। आजकल लोगों की वह किस्म ज्यादा देखने में आ रही है जिसे बोलने और वाग्विलास का दम-खम दर्शाने में खूब आनंद आता है और ऎसे में इनका जीवन अधिकतर समय बोलते रहने में ही लगा रहता है।
इस कारण से ये लोग अपने क्षेत्र के उन लोगों में गिने जाते हैं जो सर्वाधिक बोलने वाले हैं। आमतौर पर बोलने वालों में भी दो किस्में होती हैं। एक वे हैं जो प्रोफेशनल किस्म के हैं और अपने स्वार्थ के अनुसार ही बोलते हैं। इनका बोलना तभी होता है जब इन्हें अपने स्वार्थ सधते नज़र आएं। स्वार्थ पूरे न हों तो इनसे मुँह खुलवाने का काम दाँतों के डॉक्टर भी नहीं कर सकते।
दूसरी किस्म का प्रसार खूब ज्यादा है। इस प्रजाति के लोग बिना काम के बोलने के आदी होते हैें और इन्हें इससे कोई सरोकार नहीं होता कि कोई उनकी बात को सुन भी रहा है या नहीं। इनका मकसद सिर्फ अपनी अभिव्यक्ति की धाराओं को बाहर की ओर उण्डेलते रहना है फिर चाहे कोई समझे या न समझे।
इनके लिए बोलना सामयिक न होकर असामयिक होता है और कब, कहां तथा क्या बोलना है इससे उन्हें कोई मतलब नहीं है। बोलना है, मतलब बोलते रहना है और वह भी नॉन स्टॉप। ऎसे लोग पेढ़ियों से लेकर उन सभी गलियारों और कमरों में पाए जाते हैं जिनमें कोई न कोई आदमी हमेशा बना रहता है।
इन्हें चाहिए सिर्फ सुनने वाले, भले ही वे इनकी बातों पर कान न दें मगर कोई न कोई चेहरा जरूर सामने होना ही चाहिए। ताकि इन्हें ये भ्रम बना रहे कि आखिर कोई तो है जो उन्हें इत्मीनान से सुन रहा है। लोग बोलें या न बोलें, कम बोलें या ज्यादा बोलें…. इससे उन लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता जिनकी रुचि अपने निर्धारित दायित्वों में होती है मगर जो बेवजह बोलने और बोलकर इसकी प्रतिक्रिया जानने के लिए हमेशा उतावले रहते हैं उन लोगों के कारण से समाज की रचनात्मक गतिविधियों और दूसरे लोगों के कर्मयोग पर घातक असर पड़ता है।
जहाँ कहीं, जिन संस्थानों और संगठनों में बोलने वालों की भरमार हुआ करती हैं वहाँ कार्य की गुणवत्ता पर तो बुरा असर पड़ता ही है, कार्य संपादन की गति धीमी हो जाती है और कार्य का उतना प्रभाव सामने नहीं आ पाता जितना आना चाहिए।
कई बार बातूनी लोगों के कारण से कामों की गति उलटी भी शुरू हो सकती है। जैसे कि आजकल कई वाहन चालकों को वाहन चलाते समय बातें करते रहने की बुरी आदत पड़ी हुई होती है और ऎसे में इन्हें केबिन में इनके सरीखे ही बातूनी मिल जाएं तो वाहन की गति तो धीमी होगी ही, कभी ध्यान भटककर दुर्घटनाएं हो जाने की संभावनाएं भी बनी रहती हैं। फिर इन बातूनियों के भाग्य से हर वाहन में दो-चार ऎसे टाईमपास लोग मिल ही जाते हैं जो ऎसे लोगों को तलाशते रहते हैं।
इसी प्रकार कई काम गंभीर प्रकृति के होते हैं जिनमें एकान्त और शांति की जरूरत पड़ती है। खासकर बौद्धिक कार्य करते समय। ऎसे में बातूनी लोगों से पाला पड़ जाए, तो उस कर्मयोग में गुणात्मकता तथा प्रभावोत्पादकता का ह्रास आम समस्या बनकर उभर आता है।
इसलिए जहाँ कहीं बातूनी लोगों का जमावड़ा हो, यह मानकर चलें कि वहां गुणात्मकता की बजाय मात्र औपचारिकता का निर्वाह ही हो रहा है और इसका सारा दोष उन लोगों के भाग्य में लिख दिया जाता है जो बातूनी हैं। ऎसे बातूनी किस्म के लोग समाज और देश के बहुमूल्य क्षणों और उत्पादकता के लिए सबसे बड़े हत्यारे हैं।