गतांक से आगे…
भारत में भी अपने पापों को छिपाने के लिए और समाज में सम्मान पाने के लिए तस्कर इसी प्रकार का मार्ग अपनाते रहे हैं। मुंबई के लोग वे दिन भूल नही सकते जब कुछ तस्कर समाज अपनी में पैठ बनाने के लिए ऊंचे दामों पर बकरे खरीदते थे, जिनके समाचार स्थानीय अखबारों में प्रकाशित होते थे। बकरा ईद के दिवस कोई 21 तो कोई 41 बकरे काटकर स्वयं को धर्मनिष्ठ साबित करने की चेष्ट करते थे। इन बकरों का मांस वे गरीब मुसलिमों में बांटकर स्वयं को दानी और कट्टर इसलामपरस्त साबित करने की कोशिश करते थे। आज भी ऐसे लोगों की कमी नही है, लेकिन इस पाखण्ड के प्रति कोई मुंह खोलना नही चाहता।
भारत के बड़े नगरों में अब तो बकरा ईद के दिन पशु सार्वजनिक मार्गों पर कटने लगे हैं। नियम तो यह है कि उन्हें बूचड़खाने में काटा जाए। लेकिन वोट बैंक के संरक्षक उन्हें इस कृत्य के लिए उत्साहित भी करते हैं और संरक्षण भी देते हैं। किसी बड़े जानवर को उसके सींग पकड़कर किस तरह से जमीन पर गिरा दिया जाता है और फिर उसे हलाल किया जाता है, यह दृश्य कोई अहिंसा में विश्वास रखने वाला व्यक्ति देख ले तो वह दो तीन दिन तो भोजन न ही कर सकता। अब तक तो यह सब काम कत्लखाने में होते थे, इसलिए उनकी चर्चा बहुत अधिक नही होती थी, लेकिन अब त्योहार के नाम पर सड़कों पर होने लगे हैं, जो चिंता और चिंतन का विषय है। इससे क्रूरता को बढ़ावा मिलता है, इसमें दो राय नही हो सकती।
क्या इसलाम जैसा महान धर्म हस क्रूरता और धर्म के पाखंड के नाम पर की जा रही स्पर्धा की आज्ञा देता है? क्या किसी अन्य धर्मावलंबी की आस्था को ठेस पहुंचाना उचित है? जब यह सवाल उठता है तब इसलाम के नियम और आत्मा को समझने वाला चिल्ला उठता है-कदापि नही। इसलाम ने कुरबानी की बात कही है, पशुओं के कत्लेआम की बात नही कही है। कुरबानी करने के कुछ नियम और सिद्घांत हैं, यदि उसे कोई तोड़े मरोड़े तो इसमें इसलाम का क्या दोष है?
मोरक्को के राजा हसन के कार्यकाल में भयंकर सूखा पड़ा। पशुओं की संख्या घट गयी। उस समय शाह के सामने अ पने देश की जनता और धर्म की आस्था दोनों को बचाने का प्रश्न था। शाह हसन ने इसका मार्ग खोज निकाला। उन्होंने अपने मुफ्तियों से यह घोषणा करवाई कि संपूर्ण देश में बकरा ईद की कुरबानी के प्रतीक स्वरूप स्वयं राजा एक बकरे की कुरबानी करेंगे और मोरक्को की जनता की ओर से एक बकरे की कुरबानी होगी। यानी दो बकरे का वध करके ईद की परंपरा का सम्मान कर लिया जाएगा। इस प्रकार उस वर्ष केवल दो पशु की कटे और देश की अकाल से जो स्थिति हुई थी, उसमें पशुधन को बचा लियाा गया। यदि इस प्रकार की परंपरा मोरक्को जैसे इसलामी देश में हो सकती है तो अन्य में क्यों नहीं? शरीअत किसी को मजबूर नही करती है कि वह व्यर्थ में ऐसा काम करे, जिससे देश का पर्यावरण खतरे में पड़ जाए? धर्म का दूसरा नाम प्रकृति प्रेम और विवेक है। यदि कोई मनुष्य उसे त्याग देता है तो वह कभी धार्मिक नही कहला सकता, बल्कि धर्म को बदनाम करने वाला ही कहलाएगा।
याद रहे इसलाम का नाम सलामती और सुरक्षा है।
बकरा ईद पर कुरबानी का अवसर हो या सामान्य जीवन में मांसाहार
के नाम से प्रसिद्घ है। क्रमश: