नेपाल को चीन से मित्रता निभाने से पहले तिब्बत की कहानी याद रखनी होगी
विमलेश बंसल ‘आर्या’
चीन ने तिब्बत को अपने आप नहीं हड़पा था बल्कि तिब्बत ने ही चीन को अपनी मदद के लिए बुलाया था । बाद में उसके लिए चीन का अपनी सरजमीं पर आना महंगा पड़ा । यही बात आज नेपाल को भी समझ लेनी चाहिए । वह भी भारत के तथाकथित भय के कारण जिस प्रकार चीन को अपनी सरजमीं पर बुला रहा है , उसका भी परिणाम कहीं उसे तिब्बत की भान्ति महंगा न पड़ जाए ?
चीन ने तिब्बत में आधुनिक समाजवाद की स्थापना का आह्वान किया है। चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग अलगाववादियों और प्रगतिवादियों के बीच अभेद्य दीवार खड़ी करने की बात भी कही है। उनका कहना है कि तिब्बत की बौद्ध विचारधारा को चीन की मान्यता के अनुरूप बनाया जाए। तिब्बत में बदलाव लाने की इस कोशिश में कहीं न कहीं उसका एक डर भी छलकता है। डर इसलिए क्योंकि वर्षों पहले चीन ने इस भूभाग पर धोखे से कब्जा जमाया था। इसलिए भी चीन तिब्बत को लेकर काफी सतर्क रहता है। चीन के दमनचक्र की ही बदौलत वहां के प्रशासक दलाई लामा को रातों रात अपनी जान बचाकर भागना पड़ा था। तिब्बत पर चीन के कब्जे की कहानी बेहद दिलचस्प है। तिब्बत पर उसका कब्जा चीन की उसी विस्तारवादी नीति का परिणाम है जिस पर उसके सारे शासक अमल करते आए हैं। इसका जीता जागता सुबूत ये भी है कि उसके अपने हर पड़ोसी देशों के साथ सीमा विवाद है।
मध्य एशिया की ऊंची पर्वत श्रंख्लाओं, कुनलुन और हिमालय के मध्य स्थित 16000 फीट की ऊंचाई पर स्थित तिब्बत का इतिहास कई शताब्दी पुराना है। 8वीं शताब्दी तक यहां बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार शुरू हो चुका था। 1013 ईस्वी में नेपाल से धर्मपाल तथा अन्य बौद्ध विद्वान तिब्बत गए। 1042 ईस्वी में दीपंकर श्रीज्ञान अतिशा तिब्बत पहुंचे और बौद्ध धर्म का प्रचार किया। शाक्यवंशियों का शासनकाल 1207 ईस्वी में प्रांरभ हुआ। मंगोलों का अंत 1720 ईस्वी में चीन के मांछु प्रशासन द्वारा किया गया। तत्कालीन साम्राज्यवादी अंग्रेंजों ने, जो दक्षिण पूर्व एशिया में अपना प्रभुत्व स्थापित करने में सफलता प्राप्त करते जा रहे थे, यहां भी अपनी सत्ता स्थापित करनी चाही, लेकिन 1788-1792 ईस्वी में गोरखाओं ने उन्हें करारी मात दी। 19वीं शताब्दी तक तिब्बत ने अपनी स्वतंत्रता को बरकरार रखा था। इसी बीच लद्दाख पर कश्मीर के शासक ने तथा सिक्किम पर अंग्रेंजों ने अधिकार जमा लिया।
तिब्बत के इतिहास पर नजर डालें तो पता चलता है कि तिब्बत के पूर्व शासकों ने कई बार नेपाल पर जीत हासिल करने की कोशिश की लेकिन उन्हें हर बार मुंह की खानी पड़ी। इस हार की उसको बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। नेपाल ने उसके ऊपर हर वर्ष पांच हजार रुपये बतौर जुर्माना भरने की सजा सुनाई। तिब्बत आर्थिक रूप से काफी कमजोर था, लिहाजा उसके लिए इतनी बड़ी रकम भरना मुमकिन नहीं था। कुछ समय तक इस सजा को भुगतने के बाद उसके आर्थिक हालात और खराब हो गए थे। इससे बचने के लिए तिब्बत ने चीन से सैन्य सहायता मांगी, जिससे नेपाल को युद्ध में हराया जा सके। चीन ने भी उसकी मदद से इनकार नहीं किया। नेपाल को सबक सिखाने के लिए तिब्बत और चीन की सेना ने मिलकर नेपाल को युद्ध में शिकस्त दी। इस तरह से तिब्बत नेपाल की दी गई सालाना सजा से तो बच गया लेकिन चीन से पार नहीं पा सका। 1906-7 ईस्वी में तिब्बत पर चीन ने अपना अधिकार जमा लिया और याटुंग ग्याड्से समेत गरटोक में अपनी चौकियां स्थापित कर लीं।
1912 ईस्वी में चीन से मांछु शासन का अंत होने के साथ तिब्बत ने अपने को दोबारा स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया था। सन् 1913-14 में चीन, भारत और तिब्बत के प्रतिनिधियों की बैठक शिमला में हुई, जिसमें इस विशाल पठारी राज्य को भी दो भागों में विभाजित कर दिया गया। इसमें पूर्वी भाग जिसमें वर्तमान चीन के चिंगहई एवं सिचुआन प्रांत हैं उसे इनर तिब्बत कहा गया। जबकि पश्चिमी भाग जो बौद्ध धर्मानुयायी शासक लामा के हाथ में रहा उसे आउटर तिब्बत कहा गया।
सन् 1933 ईस्वी में 13वें दलाई लामा की मृत्यु के बाद आउटर तिब्बत भी धीरे-धीरे चीन के घेरे में आने लगा था। 14वें दलाई लामा ने 1940 ईस्वी में शासन भार संभाला। 1950 ईस्वी में जब ये सार्वभौम सत्ता में आए तो पंछेण लामा के चुनाव को लेकर दोनों देशों में शक्तिप्रदर्शन की नौबत तक आ गई और चीन को आक्रमण करने का बहाना मिल गया। 1951 की संधि के अनुसार यह साम्यवादी चीन के प्रशासन में एक स्वतंत्र राज्य घोषित कर दिया गया। इसी समय से भूमिसुधार कानून एवं दलाई लामा के अधिकारों में हस्तक्षेप एवं कटौती होने के कारण असंतोष की आग सुलगने लगी जो 1956 एवं 1959 ईस्वी में जोरों से भड़क उठी, लेकिन बलप्रयोग द्वारा चीन ने इसे दबा दिया। चीन द्वारा चलाए गए दमन चक्र से बचकर किसी प्रकार दलाई लामा नेपाल से होते हुए भारत पहुंचे। तब से लेकर आज तक तिब्बत चीन के चंगुल में फंसा हुआ है। यहां पर यीन के खिलाफ होने वाले हर विरोध प्रदर्शन को चीन की सरकार बड़ी ही बेरहमी से कुचलती आई है।
यह सारे तथ्य स्पष्ट कर रहे हैं कि चीन की साम्राज्यवादी सोच और तिब्बत की उदारवादी सोच दोनों ने विश्व के मानचित्र पर एक स्वतंत्र देश के रूप में तिब्बत का नामोनिशान मिटा दिया। अब ऐसी ही मूर्खता के रास्ते पर यदि नेपाल निकल पड़ा है तो उसकी यह मूर्खता भी उसके लिए आत्मविनाशकारी हो सकती है।