वेद प्रकाश शास्त्री
गायत्री-महत्व-इस संसार में कीट, पतंग, सरीसृप, पशु, पक्षी, मनुष्य आदि अनेक प्राणी है परंतु इनमें मानव योनि से श्रेष्ठ अन्य कोई नहीं-
नहि मानुषात श्रेष्ठतरं हि किञ्चित् ।।
महाभा. शा. 180। 12
क्योंकि मनुष्य योनि कर्म और भोग दोनों के लिए ही है। जबकि मनुष्येतर सारी योनियां भोग योनियां हैं। मनुष्य शुभ कर्मों के द्वारा अपने जीवन को श्रेष्ठ बना सकता है। अन्य प्राणी ऐसा करने में असमर्थ है। मानव जीवन की सार्थकता ईश्वर-चिंतन में है। ईश्वर-चिंतन का सर्वश्रेष्ठ और सरलतम साधन गायत्री साधना है-
सर्ववेदसमाभूता गायत्रयास्तु समर्चना।
ब्रह्मदयो सन्ध्यायां तां ध्यायन्ति जपन्ति च।।
देवीभाग. 11। 16। 15
गायत्री की आराधना सब वेदों का सार रूप है। सन्ध्या काल में ब्रह्मïा आदि भी उसका ध्यान, जप करते रहे हैं।
सावित्रयास्तु परं नास्ति।।
गायत्री से बढ़कर अन्य कुछ भी नही है।
अकारं चाप्युकारं च मकारं च प्रजापति:।
वेदत्रयान्नरदुहद भूर्भुव: स्वरितीति च।।
ब्रह्म ने तीनों वेदों से अकार, उकार, मकार और भूर्भुव: स्व: ये तीन व्याहतियां सार रूप में ग्रहण की हैं-
एतदक्षरमेतां च जपन व्याह्तिपूर्विकाम।
सन्ध्ययोर्वेदविद विप्रो वेदपुण्येन युज्यते।।
इस (ओंकार रूप) अक्षर और तीन व्याहतियां पूर्व में लगा कर त्रिपादयुक्त सावित्री को वेदवेत्ता विप्र दोनों संध्याओं में जपता हुआ वेदपाठ के फल को प्राप्त होता है।
ओंकारपूर्विका: तिस्रो महाव्याहृतयोअव्यया:।
त्रिपदा चैव सावित्री विज्ञेयं ब्रह्णो मुखमं।।
ओम से आरंभ होने वाली तीन व्याहृतियों वाली और तीन पाद वाली गायत्री को वेद का मुख जानना चाहिए।
मनुष्य अपने जीवन में अनेक प्रकार के दुष्कर्म करता है। उनके प्रायश्चित और शोधन के लिए गायत्री जाप रामबाण है-
सहस्रकृत्वं: त्वभ्यस्य बहिरेतत त्रिकं द्विज:
महतोअप्येनसो मासात्वचेवाहिर्विमुच्यते।।