भारतीय-संस्कृति में समाज, राष्ट्र और मानवाधिकार
राकेश कुमार आर्य
अमेरिका ब्रिटेन और फ्रांस जैसे विकसित राष्ट्रों सहित विदेशों में भारतीय संस्कृति के प्रति लोगों का आकर्षण अप्रत्याशित रूप से बढ़ रहा है। बताया जा रहा है कि अमेरिका के समाज में वहां की कुल आबादी का 24 प्रतिशत भाग भारत और भारत की संस्कृति राम और कृष्ण के प्रति श्रद्धा रखने वाला बन गया है। इसका कारण भारत की समष्टिवादी संस्कृति ही नही है अपितु भारतीय संस्कृति में मिलने वाला वह मधु रस है जिसे लोग शांति के न ाम से जानते हैं। इस शांति के लिए यूरोप और अमेरिका सहित सारा संसार ही तड़प और तरस रहा है। वह प्यासे मृग की भांति भारतवर्ष की ओर देख रहा है कि उसे भी शांति की दो बूंदें मिल जाएं। जिन्हें भारतीय लोग सभ्य, विकसित और मानवाधिकारों का संरक्षक मान रहे हैं उनकी भीतरी स्थिति कितनी खोखली है, यह इसी बात से सिद्ध हो जाता है कि यह शांति के लिए आज भी भारत की ओर टकटकी लगा रहे हैं। उन्हें ज्ञात है कि संसार में जब कभी भी धर्ममेघ उठेगा तो वह भारत से ही उठेगा और उस धर्म मेघ से रस टपकेगा वह शांति के सिवाय और कुछ नही होगा। जिसे ईसाई और इस्लाम वाले पिछली कितनी ही सदियों से आमीन और अमन कहकर पुकारते चलते आये हैं वह आमाीन और अमन शांति भारत के चमन में हैं।
उपभोक्तावाद में शाति नही आजकल सारा संसार उपभोक्तावाद की चपेट में है। राजनीति में नेता ग्राहक है मतदाता माल है और वोट मूल्य है। कहने का अभिप्राय है कि राजनीति के बाजार में नेता और मतदाता के मध्य वोट खड़ी है। उसी के लिए मारामारी है। इस वोट का जन्म तो हुआ था मतदाता को स्वामी बनाने के लिए लेकिन यह मतदाता का मूल्य बन गयी है। राजनीति के प्रति और मतदान के प्रति लोगों में निराशा का जो भाव देखने को मिल रहा है उसका कारण यही है कि मतदाता का वोट उसका मूल्य बना दिया गया है। देश का अधिकांश मतदाता अशिक्षित है जिसके वोट को हमारे नेता नोट से या शराब से खरीद लेते हैं। जब माल बाजार में हो और उसके क्रेता विक्रेता भी हों और ये क्रेता विके्रता एक दूसरे से अधिक से अधिक लाभ उठाना चाह रहे हों तो ऐसी व्यवस्था को ही उपभोक्तावाद कहा जाता है। आज नेता मतदाता से और मतदाता नेता से लाभ उठाने की युक्ति में लगे रहते हैं। नेता का दृष्टिकोण चुनाव जीतना और मौज मस्ती करना है। अगले चुनाव के लिए धन एकत्र करना है। जबकि मतदाता का उद्देश्य नेता से कुछ अपने कार्य निकालना है या जाति, बिरादरी, नाती, रिश्तेदारी का संबंध निभाना है। जो लोग इन बातों से प्रभावित नही हो पाते वो नेताजी से शराब और नोट का आकर्षण पाल लेते हैं। राष्ट्रहित दोनों के ही मध्य नही हैं।
बाजार में आप आईए वहां ग्राहक और व्यापारी के मध्य नोट है। वस्तु कम से कम, मात्रा और गुणवत्ता अति न्यून हो और नोट पर्याप्त मिलें यह तो व्यापारी का दृष्टिकोण रहता है और वस्तु मात्रा और गुणवत्ता में उत्तम हो परंतु नोट कम से कम हों यह सोच ग्राहक की रहती है। वहां भी नैतिकता का उसी प्रकार अभाव है जिस प्रकार राजनीति में है। राजनीति में राष्ट्रचिंतन नही है तो व्यापारी और ग्राहक के मध्य समाज चिंतन नही है।
इसी प्रकार छात्र और अध्यापक के संबंध में कहा जा सकता है। वहां इन दोनों के मध्य ‘ट्यूशनÓ आ गया है। जिससे गुरू के प्रति श्रद्धा और शिष्य के प्रति स्नेह का भाव समाप्त हो गया है। श्रद्धा और स्नेह के सम्मिश्रण से राष्ट्र का भविष्य तैयार होताा है। इस प्रकार स्कूलों में भविष्य चिंतन नही है। छात्र और अध्यापक के मध्य अध्यापक की नीयत का खोट कुंडली मारे बैठा है। यह वोट, नोट और खोट भारतीय समाज का कोढ बन गया है। जिस शांति की बात हमने लेख के प्रारंभ में उठाई है वह हमें मिलेगी नेता के राष्ट्र चिंतन से, व्यापारी और ग्राहक के समाज चिंतन से, गुरू के प्रति छात्र की श्रद्धा से एवं छात्र के प्रति गुरू के स्नेहभाव से निर्मित भविष्य चिंतन के भाव से। क्योंकि राष्ट्रचिंतन, समाज चिंतन और भविष्य चिंतन ही इन सबका पवित्र कर्त्तव्य है, अर्थात धर्म है।
इस प्रकार सिद्ध हुआ कि शांति के मूल में भी धर्म खड़ा है। यह धर्म ही तत्व है जो भारतीय ऋषियों ने मानवाधिकारों का सुरक्षा कवच बनाकर समाज को ओढाया। यदि विदेशी लोग हमारी ओर आकर्षित हो रहे हैं तो उसका कारण भारतीय धर्म ही है। वह हमारे धर्म को अंगीकृत करना चाहते हैं। उनकी इच्छा है कि भारत का धर्म समझा जाए और उसे स्वीकार किया जाए।
क्या है भारतीय धर्म? तिलक जनेऊ, लाल स्वापी और हाथ में कमंडल ले लेना और प्रात:काल उठकर गंगा में या किसी अन्य नदी में जाकर राधे-राधे, सियाराम जपते जपते या ओ३म-ओ३म कहकर डुबकी लगा लेना भारतीय धर्म नही है। धर्म राष्ट्रवादी भी होता है और मानवतावादी भी। ईसाईयत को यदि हम लें तो इसमें राष्ट्रवाद तो है पर मानवतावाद नही है। यही स्थिति इस्लाम के विषय में है। सम्प्रदाय राष्ट्र की जनता को रियाया समझता है परंतु धर्म उसे प्रजा मानता है और उसके कल्याण को शासक का सबसे पवित्र कर्त्तव्य मानता है। यह गुण हिंदुत्व का है। क्योंकि यह राष्ट्रवादी भी है एवं मानवतावादी भी है। यह राष्ट्रवाद और मानवतावाद ही भारतीय धर्म है। जो कि संसार के लिए सदा ही कौतूहल और जिज्ञासा का विषय रहा है। यह भारत का धर्म ही है जो समय आने पर मानवता के हित में राष्ट्रवाद को भी कई बार भूल जाता है। ताजा उदाहरण पंडित नेहरू का है, जो अपने मानवतावाद के समक्ष राष्ट्रवाद को भूल गये। नेहरू जी आलोचना के पात्र हो सकते हैं। हमारी लेखनी भी उन निशाना साध सकती है परंतु नेहरू जी कतई गलत नही थे। उनसे गलती यह हो रही थी कि वह भारतीय धर्म के एकांगी तत्व मानवतावाद को ही अपनाने की भूल कर रहे थे। जबकि भारत के शत्रु सदा राष्ट्रवाद को ही अपना धर्म मानते आए हैं। लड़ाई इसी बात की है कि भारत का मानवतावाद बड़ा या उनका राष्ट्रवाद बड़ा है। उनका राष्ट्रवाद सम्प्रदायवाद का समानार्थक है।
भारतीय नेतृत्व को चाहिए कि वह राष्ट्रवाद और मानवतावाद में उचित समन्वय स्थापित करे और नेहरू जी की गलती की पुनरावृत्ति को रोके। जबकि विश्व को चाहिए कि वह भारत के मानवतावाद का अपने राष्ट्रवाद के साथ उचित सामंजस्य स्थापित करे। विश्व में शांति स्वयं ही स्थापित हो जाएगी। इसी शांति में से जन्म लेंगे मानव के शाश्वत शांति प्रदायक मौलिक अधिकार। यही है भारतीय धर्म की ‘सत्यमेव जयते’ की महान परंपरा। जिसे समझना सरल नही है। परंतु जिन्होंने इसे समझ लिया वह इसके दीवाने होकर रह जाते हैं। आज के विश्व को भारतीय संस्कृति के इस उज्जवल पक्ष पर सभी पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर चिंतन करना चाहिए। विश्व शांति की स्थापनार्थ यह नितांत आवश्यक है।
‘युद्ध मानव की हार हैÓ विश्व शांति की स्थापना के नाम पर ही आज तक युद्ध होते रहे हैं। हर युद्घोन्मादी शासक ने जनता का यह कहकर ही मूर्ख बनाया है कि उसके द्वारा जो युद्ध किया जा रहा है वह शांति की स्थापनार्थ किया जा रहा है। साथ ही यह भी कि इस युद्ध के पश्चात भविष्य में कोई अन्य युद्ध नही होगा। सिकंदर से लेकर नादिरशाह तक हर आक्रमणकारी ने अपनी सेना को ऐसी ही बातें समझा कर या ओजस्वी भाषण देकर उसे युद्घोन्मादी बनाया। लेकिन युद्ध नही थमे। एक के बाद दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा युद्ध होता रहा। युद्ध किसी भी समस्या का समाधान नही है, अपितु यह समस्या का उफान है। शक्ति और सत्ता का मद ढीला होते ही यह उफान ढीला पड़ जाता है। समय आने पर पतीली में उबल रहे दूध की भांति पुन: उफान पर आता है। क्योंकि मानव के अहंकार की अग्नि इसके नीचे निरंतर जलती रहती है। मानव का अंतर्मन भीतर से शांति की पुकार कर रहा है, उसकी खोज में लगा रहना चाहता है, जबकि बाहर वह युद्ध की भाषा बोलता है। मानव जो चाहता है वह उसे मिल नही रहा और जिसे नही चाहता वह उसे मिल रहा है। इस प्रकार युद्ध मानव की खोज नही है, खोज का विषय भी नही है। यह तो एक दुर्घटना है जो उसे दुर्भाग्य से मिल जाती है। जिससे वह बचकर निकलना चाहता है पर बच नही पाता। इसलिए युद्ध मानव की हार है, जीत नहीं। क्योंकि युद्ध से मानव के अधिकारों का हनन होता है। मानवाधिकारों की सुरक्षा युद्ध से कभी भी संभव नही है। आज अमेरिका विश्वशांति के लिए युद्ध की भाषा बोल रहा है। चीन की अपनी साम्राज्यवादी नीति है परंतु उसके पीछे भी वह विश्व शांति की स्थापना को ही अपना मुख्य उद्देश्य मानता है।
मुख्य संपादक, उगता भारत