निर्लिप्त होकर जियें
अपने हर किरदार को
– डॉ. दीपक आचार्य
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हर व्यक्ति का अपना कर्मयोग होता है और अन्यतम जीवन शैली। इसी के अनुरूप वह पूरी जिन्दगी को गुजारता है। कइयों को मिलने वाला काम-धंधा और नौकरी उनके अनुकूल हुआ करती हैं जबकि कई सारे ऎसे होते हैं जिन्हें विवशता में आजीविका निर्वाह के लिए यह सब कुछ करना पड़ता है।
अनुकूलताओं और प्रतिकूलताओं के साथ अनचाहे और मनचाहे का होना ही जिन्दगी का दूसरा नाम है। हर व्यक्ति के काम करने के तौर-तरीके अलग हुआ करते हैं, लोक व्यवहार के रंग-ढंग अलग होते हैं और जीवनयात्रा कई सुनहरे रंगों से भरी होती है।
एक आदमी अपनी पूरी जिन्दगी में कितने अधिक किरदारों के साथ जीता है, यह उसे खुद को भी कभी पता नहीं होता है। दुनिया के रंगमंच पर जो कुछ हो रहा है वह अभिनय से ज्यादा कुछ नहीं है। जो जागृत में होते हैं उन्हें जो दुनिया दिखाई देती है वह कुछ क्षणों के बाद इतिहास हो जाती है। और लगता है जैसे कोई स्वप्न आया और इतनी जल्दी चला गया।
उसी प्रकार सुप्तावस्था में दिखने वाली स्वप्निल दुनिया भी नींद से जगने पर जाने कहाँ खो जाती है। तभी कहा गया है – ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या। स्वप्नावस्था और जागृत अवस्था दोनों में जो कुछ दिखता है वह कुछ समय बाद भूत हो जाता है। इस मायामोह को समझने की जरूरत है।
हम जहाँ हैं वहाँ अपनी तत्कालीन भूमिका को बेहतर ढंग से निभायें। कोई भी एक किरदार को दूसरे में मिश्रित न करें बल्कि जिस समय जिस भूमिका में हों, सौ फीसदी उसी में रमें और किरदार का पूरा मजा लें। इसके बाद जब दूसरी भूमिका में आएं, तब पुराने किरदार को पूरी तरह भूल जाएं और नए किरदार को निभायें। यह कला किसी को आ गई तो फिर उसकी जिन्दगी निहाल हो उठती है।
आज की सबसे बड़ी और आत्मघाती समस्या यह है कि आदमी सारे किरदारों को एक साथ जीना और भोगना चाहता है। इस वजह से किरदारों का इतना घालमेल हो जाता है कि वह अपने जीवन में कोई सा किरदार मस्ती के साथ नहीं निभा पा रहा है।
किरदारों के इस मिक्स्चर ने ही आदमी को मटियामेट कर डाला है। कोई भी आदमी आजकल इसीलिए अपने आपको सुखी और आनंदित महसूस नहीं कर पा रहा है। वह कहीं भी प्रसन्न नहीं है। न घर में, न अपनी दुकान या दफ्तर में। कारण यह है कि वह घर में होता है तब भी दुकान-दफ्तरी किरदार साथ होता है।
इसी प्रकार जब कार्यस्थल पर होता है तब घर-परिवार के किरदार भी साथ जुड़े होते हैं। जब कहीं मनोरंजन के लिए जाता है तब उसके साथ घर-दुकान, दफ्तर,फैक्ट्री, मिल, प्रतिष्ठान और मित्र मण्डली से जुड़ी बातों का जखीरा साथ होता है।
यही कारण है कि आदमी न कहीं शून्य हो पा रहा है, न कहीं पूर्ण। जहाँ जाता है वहाँ आधा-अधूरा या मिक्स्चर। इस हालात में आदमी को कभी भी आनंद की प्राप्ति नहीं हो सकती क्योंकि वह किरदारों को एकान्तिक एवं अपने ढंग से पूर्णता में जीने का स्वभाव पूरी तरह भुला चुका है। जहाँ कहीं हम रहें सिर्फ अपने तत्क्षणीय किरदार को जानें, समझें और पूरी तरह जियें। तभी हर किरदार निभाने में आनंद आएगा। अपनी हर भूमिका को पूरे मन से सौ फीसदी समर्पण और निष्ठा के साथ निभाएं।