अभी हाल ही में जनसंख्या एवं विकास पर भारतीय सांसदों की एक समिति (Indian Association of Parliamentarians on Population and Development – IAPPD) ने देश में बुज़ुर्गों की स्थिति पर एक विस्तृत प्रतिवेदन तैयार किया है। इस प्रतिवेदन के अनुसार, इस समय भारत में 10.5 करोड़ बुजुर्ग व्यक्ति हैं और वर्ष 2050 तक इनकी संख्या 32.4 करोड़ तक पहुंच जाने की सम्भावना है। पूरे विश्व में वर्ष 2050 तक हर पांचवा व्यक्ति बुजुर्ग व्यक्ति होगा और भारत सहित 64 ऐसे देश होंगे जहाँ की 30 प्रतिशत आबादी 60 वर्ष से अधिक उम्र की होगी। आज, भारत में बुज़ुर्गों की कुल संख्या का 70 प्रतिशत हिस्सा ग्रामीण इलाक़ों में रहता है। गांव में वरिष्ठ नागरिकों की आबादी में वृद्धि का मुख्य कारण युवा आबादी का बड़े पैमाने पर गावों से शहरों की ओर पलायन करना है। ग्रामीण इलाकों में इनमें से कुछ बुजुर्ग, उम्र के इस पड़ाव में, उनके बच्चों द्वारा इन्हें गावों में छोड़कर जाने के बाद, भेदभाव, बेदखली, अकेलेपन और दुर्व्यवहार का सामना कर रहे हैं। यह भारत जैसे देश के लिए निश्चित ही गम्भीर चिंता का विषय है, क्योंकि हमारे संस्कार इस प्रकार के क़तई नहीं हैं कि बुजुर्गों का निरादर होने दिया जाय। उक्त समिति ने प्रतिवेदन में यह भी एक चौकाने वाला तथ्य बताया है कि देश में बुज़ुर्गों की कुल आबादी में से 70 प्रतिशत यानी करीब आठ करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे है।
भारत सरकार के नियमों के अनुसार 60 साल से ऊपर की उम्र वाला व्यक्ति बुज़ुर्ग कहलाता है। बुज़ुर्ग जनसंख्या भारत में तेज़ी से बढ़ रही है। विकसित देशों में जहाँ 60/70 वर्षों में बुज़ुर्गों की संख्या दुगुनी होती हैं वहीं भारत में बुज़ुर्गों की संख्या 30 वर्षों से कम समय में ही दुगुनी हो जाएगी। देश में बुज़ुर्गों को तीन श्रेणियों में बाँटा जाता है। एक, वो बुज़ुर्ग जो बिस्तर पर केंद्रित हैं एवं बिस्तर से उठ ही नहीं सकते। चाहे किसी बीमारी के चलते अथवा किसी अन्य कारण से बिस्तर से जुड़े हुए हैं। दूसरे, वो बुज़ुर्ग जिनकी गतिशीलता प्रतिबंधित है। किसी शारीरिक कमी के चलते पूरे तौर पर चल फिर नहीं पाते हैं। इस श्रेणी के बुज़ुर्ग सामान्यतः बिस्तर पर तो नहीं पड़े हैं लेकिन अपने घर से कुछ ही दूरी तक आ जा सकते हैं अथवा घर में ही घूम फिर सकते हैं। तीसरे, वो बुज़ुर्ग जो गतिशील हैं एवं अपनी रोज़ाना की दिनचर्या का कार्य आसानी से कर सकते हैं और चल फिर सकते हैं एवं अपनी स्वास्थ्य सेवाएँ लेने के लिए स्वास्थ्य केंद्र तक भी जा सकते हैं।
केंद्र सरकार बुज़ुर्गों की मदद करने का भरपूर प्रयास कर रही है। वर्ष 2010 में बुज़ुर्गों के स्वास्थ्य की देखभाल के लिए एक राष्ट्रीय कार्यक्रम (National Programme for Health care of Elderly) प्रारम्भ किया गया था। परंतु, इस कार्यक्रम के क्रियान्वयन में संतोषप्रद गति नहीं आ पाई थी। जिस गति से भारत में बुज़ुर्गों की संख्या बढ़ती जा रही है वो हमारे लिए एक बहुत बड़ी चुनौती खड़ी होने जा रही है। अभी तक तो देश में युवा जनसंख्या (demographic dividend) की बात ही चल रही थी कि इस वर्ग को ट्रेनिंग, आदि प्रदान कर देश में उत्पादकता बढ़ाने में इस वर्ग का भरपूर योगदान लिया जा सकता है। लेकिन यहाँ तो अब बढ़ती बुज़ुर्गों की संख्या एक चुनौती के रूप में मुँह बाये खड़ी होने जा रही है।
देश में केवल बुज़ुर्गों की संख्या ही नहीं बढ़ रही है बल्कि इसमें भी एक ट्रेंड देखने में आ रहा है और वह यह है कि इस संख्या में महिलाओं की संख्या पुरुषों की तुलना में ज़्यादा तेज़ी से बढ़ रही है। वर्ष 2011 की जनगणना में महिलाओं का अनुपात 935 से बढ़कर 943 प्रति 1000 पुरुष हो गया था। लेकिन, बुज़ुर्गों की आबादी में यह अनुपात 1033 महिलाएँ प्रति 1000 पुरुष है। भारत में महिलाओं का अपेक्षित जीवन काल पुरुषों की तुलना में अधिक पाया गया है। हमारे देश में 29/30 करोड़ कुल परिवार हैं, इसमें क़रीब 2 करोड़ परिवार केवल एक ही व्यक्ति के परिवार हैं। एक ही व्यक्ति के परिवारों में भी यह पाया गया है कि अधिकांश परिवारों में केवल महिलाएँ ही निवास कर रही हैं। इस प्रकार हमारे देश में जेंडर का आयाम भी बदल रहा है।
एक और महत्वपूर्ण बिंदु है बुज़ुर्गों के अपने परिवार के सदस्यों के ऊपर आश्रित होने का। बुज़ुर्ग तीन प्रकार से आश्रित हो सकते हैं – पूरे तौर पर आश्रित, केवल कुछ देखभाल के लिए आश्रित अथवा आर्थिक दृष्टि से आश्रित। इस प्रकार कुल मिलाकर देखा जाय तो भारत में लगभग 65 प्रतिशत बुज़ुर्ग किसी न किसी रूप में अपने परिवार पर अथवा किसी दूसरे व्यक्ति पर आश्रित हैं। इन बुज़ुर्गों में भी ज़्यादातर बूढ़ी औरतें हैं।
बुज़ुर्गों के स्वास्थ्य का मुद्दा देश में एक ज्वलंत समस्या बनता जा रहा है। देश में बुज़ुर्गों की कुल संख्या में 69 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो अपने को स्वस्थ नहीं मानते हैं एवं इन्हें स्वास्थ्य सम्बंधी कोई न कोई समस्या है। लगभग 31 प्रतिशत बुज़ुर्गों को गम्भीर प्रकार की बीमारीयाँ हैं।
सरकार ने बुज़ुर्गों के स्वास्थ्य की देखभाल के लिए विशेष बुज़ुर्ग स्वास्थ्य देखभाल कार्यक्रम प्रारम्भ किया है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत तीन स्तर हैं। प्रथम, प्राइमरी स्वास्थ्य देखभाल स्तर। जैसे कि, गाँवों में जहाँ कम्यूनिटी स्तर पर स्वास्थ्य महिलाएँ (आशा कार्यकर्ता) उपलब्ध हैं या जहाँ आयुषमान भारत योजना लागू की जा चुकी है या जहाँ स्वास्थ्य एवं वेल्लनेस केंद्र बन रहे हैं वहाँ पर सरकार ये कोशिश कर रही है कि जहाँ पहिले से ही कुछ निर्धारित बुज़ुर्ग हैं एवं जिनके बारे में यह पता है कि इन्हें डायबिटीज़ अथवा हाइपरटेन्शन है, या कुछ ऐसे बुज़ुर्ग है जिनके बारे में लगता है कि इन्हें स्वास्थ्य सम्बंधी समस्या है परंतु इस विशेष बीमारी की पहिचान नहीं की जा सकी है। इस स्थिति में प्राइमरी स्वास्थ्य देखभाल स्तर पर कोशिश की जा रही है कि बुज़ुर्गों की स्क्रीनिंग हो पाए। बुज़ुर्ग यदि बिस्तर पर है तो उन्हें घर पर ही स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध कराई जाएँ।
परंतु प्राइमरी स्वास्थ्य देखभाल स्तर पर बुज़ुर्गों को स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध कराना इतना आसान नहीं है क्योंकि कई बुज़ुर्गों में सामान्यतः यह सोच रहता है कि जो भी शारीरिक समस्या हो रही है वह उसके बुज़ुर्ग हो जाने के कारण ही है और बुज़ुर्ग होने के चलते शरीर में कुछ न कुछ तो चलता ही रहेगा, इस सोच के चलते शरीर में उभरने वाले बीमारी सम्बंधी लक्षणों को कई बुज़ुर्ग नज़र अन्दाज़ कर देते हैं। जबकि हो सकता है कि शरीर में ये लक्षण किसी गम्भीर बीमारी के चलते उभर रहे हों। साथ ही, बहुत सारे बुज़ुर्ग ऐसे भी पाए जाते हैं जो अपने रोग की जाँच पड़ताल करवाने के लिए न तो किसी डॉक्टर को दिखाने जाते हैं और न ही अपने रोग की पहचान कराने के लिए किसी प्रकार की टेस्टिंग करवाते हैं। कुल मिलाकर कई बुज़ुर्गों की तरफ़ से बीमारी को गम्भीरता से लिया ही नहीं जाता है। अतः इस समस्या का निदान करने के लिए “आशा” कार्यकर्ताओं को लगाया जाना चाहिए ताकि वे सर्वे कर यह पता लगाएँ कि इनके इलाक़ों में कौन सा बुज़ुर्ग किस प्रकार की बीमारी से ग्रसित है एवं किस प्रकार उसकी बीमारी के इलाज की व्यवस्था की जा सकती है। साथ ही, आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को लेकर बुज़ुर्गों की एक सूची भी बनायी जा सकती है इसमें इस बात का वर्णन हो कि किस बुज़ुर्ग को किस चीज़ की ज़रूरत है, यह ज़रूरत स्वास्थ्य समस्या सम्बंधी हो सकती है, अथवा आर्थिक मदद से सम्बंधित हो सकती है, अथवा समाजिक समस्या सम्बंधी हो सकती है।
दूसरा, सेकंडेरी स्वास्थ्य देखभाल स्तर। ज़िला स्तर पर अस्पतालों आदि में बुज़ुर्गों के लिए अलग OPD का विशेष प्रावधान किया गया है। साथ ही, 10 बिस्तरों का एक वार्ड अलग से बुज़ुर्गों के लिए हर ज़िला अस्पताल में बनाया गया है। अगर किसी भी प्रकार का संक्रमण रोग फैलता है तो इन विशेष वार्डों में इन बिस्तरों का इस्तेमाल केवल बुज़ुर्गों के लिए करना आवश्यक कर दिया गया है।
तीसरे स्तर पर क्षेत्रीय स्वास्थ्य देखभाल केंद्र स्थापित किए गए हैं। 19 मेडिकल महाविद्यालयों में बुज़ुर्गों के लिए एक विशेष विभाग स्थापित करने की स्वीकृति प्रदान की गई है। साथ ही कोशिश की जा रही है कि कम से कम हर मेडिकल कॉलेज में बुज़ुर्गों के लिए एक विशेष विभाग बनाया जा सके ताकि देश में बुज़ुर्गों के स्वास्थ्य सम्बंधी समस्यायों का निदान किया जा सके। राष्ट्रीय स्तर पर भी अखिल भारतीय मेडिकल सायंस संस्थान, दिल्ली (AIIMS) एवं मद्रास मेडिकल कॉलेज, चेन्नई में बुज़ुर्गों के लिए राष्ट्रीय केंद्र बनाए जाने की स्वीकृति प्रदान की जा चुकी है। इन केंद्रों में विशेष रूप से बुज़ुर्गों के लिए OPD की सेवाएँ शुरू होंगी और बुज़ुर्गों के लिए ही 200 बिस्तरों का एक विशेष वार्ड भी स्थापित किया जाएगा।
उक्त प्रयास तो केंद्र सरकार द्वारा किए जा रहे हैं। समाज की भी कुछ ज़िम्मेदारी बनती है। भारतीय संस्कार ऐसे नहीं हैं कि हम हमारे बुज़ुर्गों को बग़ैर किसी देखभाल के ही छोड़ दें। अतः हमें हमारे समाज में ऐसी स्थिति निर्मित करनी होगी कि हम लोग एवं हमारे बच्चे बुज़ुर्गों की देखभाल करें। हमारे बच्चों में भी हमें यह संस्कार डालने ही होंगे। साथ ही, बुज़ुर्गों को आर्थिक रूप से सक्षम बनाए जाने के प्रयास भी किए जाने चाहिए, ताकि बुज़ुर्ग केवल “बेचारा ही है” की भावना से ऊपर उठा जा सके एवं बुज़ुर्गों को भी आदर की दृष्टि से देखा जा सके। बुज़ुर्गों को भी समाज के एक सम्माननीय हिस्से के रूप में स्वीकार करना होगा। केवल बुज़ुर्ग हो गए, और जीने का जैसे अधिकार ही नहीं रहा अथवा समाज में इज़्ज़त कम हो जाए, ऐसी सोच को विकसित ही नहीं होने देना चाहिए।।
देश में कुल बुज़ुर्गों का केवल 8 प्रतिशत हिस्सा ही पूरे तौर पर बिस्तर पर जीवन यापन करने को मजबूर है अन्यथा बाक़ी 92 प्रतिशत हिस्सा तो अपनी दिनचर्या का निर्वहन करने में सक्षम है। अतः बुज़ुर्गों को भी अपने परिवार को सहयोग करते रहना चाहिए। बुज़ुर्गों को अपने परिवार पर एकदम आश्रित नहीं हो जाना चाहिए। जब तक सम्भव हो और शरीर चल रहा है तो शरीर को चलायमान रखकर परिवार की जिस प्रकार की भी मदद हो सके वह करते रहना चाहिए एवं इस प्रकार अपने आप को व्यस्त बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए।
हालाँकि हमारे देश में एक सिल्वर लाइनिंग भी है क्योंकि आगे आने वाले समय में जो व्यक्ति वृद्ध होने वाले हैं वे शायद दूसरों पर आश्रित नहीं होंगे क्योंकि आर्थिक रूप से ये लोग तुलनात्मक रूप से शायद ज़्यादा सक्षम हैं। आजकल तो देश में महिलाएँ भी नौकरी कर रही हैं एवं आर्थिक दृष्टि से किसी पर आश्रित नहीं हैं। आज की परिस्थियों को देखते हुए यह एक अलग आयाम हो सकता है कि आने वाले समय में शायद हमारे बुज़ुर्ग इतने गम्भीर माहौल में न रहें।
लेखक भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवर्त उप-महाप्रबंधक हैं।