राजनीति में प्रणब मुखर्जी से जुड़ी अनगिनत यादें हैं। ऐसा ही एक किस्सा बताते हैं, जब टीएन शेषन की जिद के कारण प्रणब दा की मंत्री की कुर्सी चली गई थी।
मई का महीना था और 1991 का साल। तब लोकसभा का चुनाव चल रहा था। चुनाव के दरम्यान ही 21 मई को तमिलनाडु के श्रीपेरुम्बुदूर में कांग्रेस (इ) के अध्यक्ष राजीव गांधी की एक मानव बम द्वारा हत्या कर दी गई। इसके बाद आन्ध्र प्रदेश के कांग्रेस (इ) नेता पीवी नरसिंह राव को पार्टी अध्यक्ष बनाया गया। बाद में नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने और पूरे पांच साल सरकार चलाई।
नरसिम्हा राव ने अपना मंत्रिमंडल गठित करने के लिए प्रणब मुखर्जी के साथ खूब-सलाह मशविरा किया, लेकिन उन्हें मंत्री नही बनाया। प्रणब मुखर्जी को योजना आयोग का उपाध्यक्ष बनाकर संतुष्ट किया गया था।लेकिन 1993 की शुरुआत में हर्षद मेहता कांड और प्रतिभूति घोटाला सामने आ गया। इस मामले पर खूब सियासी उठा-पटक हुई और इसी उठा-पटक के दौरान वाणिज्य राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) पी. चिदंबरम ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। हालांकि उन पर कोई सीधा आरोप नही था।
अब नरसिंह राव ने एक नए वाणिज्य मंत्री की खोज शुरू की। डंकल प्रस्ताव और गैट समझौते (जिसके बाद विश्व व्यापार संगठन अस्तित्व में आया था) जैसे कई बड़े मसले सरकार के सामने पड़े थे। उनसे निबटने के लिए एक ऐसे वाणिज्य मंत्री की जरूरत थी, जो आर्थिक मामलों की जानकारी के साथ-साथ राजनीतिक समझदारी भी रखता हो। ऐसे में नरसिंह राव की नजर योजना आयोग के उपाध्यक्ष प्रणब मुखर्जी पर पड़ी। प्रणब को वाणिज्य मंत्री बनाया गया लेकिन चूँकि वे संसद के किसी भी सदन के सदस्य नही थे।इसलिए संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक, उन्हें मंत्री पद की शपथ लेने के दिन से 6 महीने के भीतर संसद के किसी भी सदन का सदस्य बनना अनिवार्य था।
इसी दौरान पश्चिम बंगाल से राज्यसभा का द्विवार्षिक चुनाव होना था। उस चुनाव के लिए पश्चिम बंगाल की विधानसभा में कांग्रेस(इ) की हैसियत इतनी थी कि वह कम से कम अपने एक कैंडिडेट को राज्यसभा भेज सके। इसलिए प्रणव मुखर्जी कांग्रेस (इ) के राज्य सभा उम्मीदवार बन गए।
लेकिन यहां एक बड़ा विवाद फंस गया। उस वक्त देश के मुख्य चुनाव आयुक्त के पद पर टीएन शेषन थे।वही टीएन शेषन, जिन्होंने देश के आम आदमी को चुनाव आयोग की ताकत का अहसास कराया था और जिनके नाम से नेताओं की हवाईयां उड़ा करती थीं। जो कहते थे कि ‘मैं अपने ब्रेकफास्ट में नेताओं को खाता हूं।‘ ढाई बरस पहले दिसंबर 1990 में चंद्रशेखर सरकार ने उन्हें मुख्य चुनाव आयुक्त के पद पर नियुक्त किया था। टी.एन.शेषन जैसे सख्त प्रशासनिक को चुनाव आयोग में लाने से लगता है, तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर स्वयं कितने सख्त रहे होंगे।
उस दौर में चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र को लेकर नरसिम्हा राव सरकार और टीएन शेषन में ठनी हुई थी। शेषन का मानना था कि ‘चुनाव आयोग की संवैधानिक हैसियत सुप्रीम कोर्ट और नियंत्रक व महालेखा परीक्षक यानि CAG जैसी है, जिसमें सरकार का कोई दखल नही होता। इसलिए स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव संपन्न कराने के लिए चुनाव आयोग कोई भी कदम उठाने के लिए आज़ाद है।‘
लेकिन सरकार और राजनीतिक दलों को शेषन के इस रुख से परेशानी थी और मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँच गया था। शेषन ने भी ऐलान कर दिया कि ‘जब तक सुप्रीम कोर्ट चुनाव आयोग की संवैधानिक स्थिति को स्पष्ट नहीं कर देता, तब तक इस देश में मैं कोई चुनाव नही होने दूंगा।‘ और इसके साथ ही उन्होंने बंगाल की राज्यसभा सीटों का चुनाव स्थगित कर दिया।
राज्यसभा चुनाव स्थगित होने से प्रणब मुखर्जी के सामने समस्या खड़ी हो गई। मंत्री बने लगभग 6 महीने होने को थे और अब तक उन्हें संसद की सदस्यता मिल नहीं पाई थी। लिहाजा मजबूरन प्रणब दा को मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। टीएन शेषन की जिद ने अंततः प्रणब दा को मंत्री पद छोड़ने पर मजबूर कर दिया। इस घटना से पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु इतने नाराज हुए कि टीएन शेषन की आलोचना करते-करते भाषा की सारी मर्यादाएं लांघ गए। बसु ने शेषन को पागल कुत्ता तक कह दिया।
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