अपने सगे संबंधी से, कर अच्छा व्यवहारझूठे पै न यकीन कर,
सच्चे पै अति विश्वास
इतना डर नही शत्रु से,
जितना डरावै खास।। 374।।
आयु धन यश ज्ञान में,
जो जन श्रेष्ठ कहाय।
मूरख अपमानित करे,
मन ही मन हर्षाय ।। 375।।
काम, क्रोध के वेग को,
रोकना नही आसान।
जो नर इनसे विरत हो,
समझो बुद्घिमान ।। 376।।
अत्याचारी मूर्ख हो,
वाणी दुष्टï उवाच।
दारूण दुख को प्राप्त हो,
करके देखो जांच ।। 377।।
धैर्य शांति जितेन्द्रिय,
करे पवित्र व्यवहार।
मित्रद्रोह करता नही,
रहता सदाबहार ।। 378।।
सदाबहार से अभिप्राय,
सुख समृद्घि से है, खुशहाली से है।
स्वजन दीन दरिद्र पर,
जो कृपा बरसाय।
अनन्त सुख को प्राप्त हो,
कभी नही पछताय।। 379।।
अपने सगे संबंधी से,
कर अच्छा व्यवहार।
इसमें ही कल्याण है,
मत कर सोच विचार ।। 380।।
स्वजनों के संग में,
करना सुख का भोग।
हक मारै जो और का,
लगै बैर का रोग ।। 381।।
ऋग्वेद में भी कहा गया है-केवलाघो भवति केवलादी (ऋ 10/117/6)
उपदिष्टï ज्ञान भी व्यर्थ है,
गर आचरण न हो।
गर्म तवे पर बूंद ज्यों,
वृथा तन को खोय ।। 382।।
मूरख मंत्री दूत पर,
जो करता विश्वास।
ऐसे राजा के राज्य का,
निश्चित होवै नाश ।। 383।।
अनुभवी और हितैषी की,
अनसुनी करे जो बात।
धर्म अर्थ जाने नहीं,
और पंडित बने बलात् ।। 384।।
धर्म, अर्थ जाने नहीं, से अभिप्राय है-जो धर्म और अर्थ के मर्म को मूलत: जानता नही है। पंडित अर्थात-विद्वान
बलात् -जबदरस्ती, मुठमर्दी से। कहने का भाव यह है कि ऐसा व्यक्ति विद्वान नही होता किंतु मुठमर्दी से अपने आपको विद्वान प्रदर्शित करता है।
सबके लिए उदार हो,
गुण में न देखै दोष।
सौम्यता की मूर्ति,
मिले न सौ-सौ कोस ।। 385।।
उद्योग में जो रत रहे,
दौलत बढ़ती जाए।
लाभ और कल्याण का,
मूलतंत्र कहलाए ।। 386।।
क्रमश: