इतिहास अमृत होता है। सतत विकासशील। जय-पराजय में समभाव। तथ्य-सत्य को ही अंगीकृत करता है। वह किसी के प्रभाव में नहीं आता, लेकिन सबको प्रभावित करता है। कालगति का तटस्थ दर्शक होता है, इसलिए इतिहासकारों को भी निष्पक्ष रहना चाहिए, लेकिन भारतीय इतिहास लेखन में अधिकांश इतिहासकारों ने स्वार्थवश मनमानी की है। कई महत्वपूर्ण घटनाओं और नायकों की उपेक्षा हुई है। तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने का अपकृत्य भी किया है। इतिहास केवल भूत ही नहीं होता। यह भूत के साथ अनुभूत भी होता है। इस विवरण में जय-पराजय का लेखा होता है। हर्ष-विषाद के विवरण होते हैं। राष्ट्र जीवन को उमंग से भरने वाले प्रेरक प्रसंग भी होते हैं। शक्तिशाली पूर्वजों की स्मृति साहसी बनाती है। इतिहास में गर्व करने लायक प्रसंग होते हैं और पराजय के दंश भी। गर्वोक्ति के प्रसंग राष्ट्रीय सामर्थ्य को बढ़ाते हैं और पराजय के प्रसंग गलती न दोहराने की शिक्षा देते हैं। सशक्त और संपन्न् राष्ट्र के लिए वास्तविक इतिहास बोध अनिवार्य है, लेकिन यूरोपीय विद्वानों और उनके समर्थक भारतीय विद्वानों ने साम्राज्यवादी स्वार्थ की पूर्ति के लिए इतिहास को तहस-नहस किया। वामपंथी इतिहासकारों ने भी भारत को सदा पराजित सिद्ध करने का काम किया। इसीलिए भारत के इतिहास को नए सिरे से जांचने और प्रामाणिक बनाने की बहस काफी समय से चल रही है।
भारत सदा पराजित देश नहीं रहा। भारतीय इतिहास के नायकों ने विदेशी हमलावरों और उनके उत्पीड़क शासन को कभी स्वीकार नहीं किया। बंकिम चंद्र ने लिखा था- ‘अरब एक तरह से दिग्विजयी रहे हैं। उन्होंने जहां आक्रमण किया, वहां जीते, लेकिन फ्रांस और भारत से पराजित होकर लौटे। उन्होंने मिस्र, सीरिया, ईरान, अफ्रीका, स्पेन, काबुल और तुर्किस्तान पर अधिकार किया, लेकिन 100 वर्ष में भी वे भारत को हासिल नहीं कर सके। यह तथ्य भारत की नई पीढ़ी को अल्पज्ञात है, क्योंकि भारतीय पौरुष पराक्रम की घटनाओं और इतिहास के महानायकों की उपेक्षा की गई है।
जेएस मिल ने ‘हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया लिखी थी। इंग्लैंड से भारत आने वाले अधिकारियों के लिए इसका अध्ययन उपयोगी बताया गया था। मिल जैसे लेखकों ने भारतीय इतिहास को ब्रिटिश इतिहास का हिस्सा बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। प्राचीन काल को हिंदू इतिहास, मध्यकाल को मुस्लिम और आधुनिक काल को ब्रिटिश इतिहास बताया गया। सच यह है कि संपूर्ण भारत पर न कभी अंग्रेजों की सत्ता रही और न ही मुगलों की। मुहम्मद बिन कासिम मध्यकाल में पहला विदेशी हमलावर था। सिंध के राजा दाहिर ने उसे सीधे संघर्ष में पराजित किया। बाद में षड्यंत्र हुआ। दाहिर भी इतिहास में प्रशंसा के पात्र नहीं हैं। उत्तर प्रदेश में बहराइच के राजा सुहेलदेव ने महमूद गजनी के निकट संबंधी सैयद सालार गाजी और उसकी फौज को हराया था। इतिहास में सुहेलदेव के पराक्रम का उल्लेख नगण्य है। केरल के मार्तंड वर्मा कई भाषाओं के विद्वान थे। उनके पौरुष पर भी इतिहासकारों का ध्यान नहीं गया। राजेंद्र चोल ने दक्षिण-पूर्व एशिया के बड़े भाग पर अपने पराक्रम का प्रदर्शन किया। बंगाल की खाड़ी को चोल खाड़ी कहा जाने लगा था। उनके पास समुद्री सेना भी थी। गर्व करने लायक इस नायक को भी भुला दिया गया। भूले-बिसरे नायकों की सूची में बंगाल के भास्कर वर्मन भी हैं। विजयनगर का साम्राज्य अपनी शासन व्यवस्था के लिए चर्चा में रहा है। कृष्णदेव राय की शासन व्यवस्था आदर्श थी। उन्होंने भारतीय सभ्यता और संस्कृति का विकास किया। उन्होंने मुस्लिम समाज को बराबर का सम्मान दिया। भारतीय स्थापत्य की तीन शैलियां मानी जाती हैं- द्रविड़, नागर और वेसर। द्रविड़ शैली का चरम विकास विजयनगर में हुआ। मीनाक्षी मंदिर इसका प्रमाण है। नूनिज और पाईस आदि विद्वानों ने इस व्यवस्था की प्रशंसा की है, लेकिन इतिहास में राजा और राज्य की प्रतिष्ठा को भुला दिया गया। यही स्थिति महाराष्ट्र में बाजीराव और बालाजी बाजीराव के साथ भी है। उन्होंने दिल्ली के लाल किले पर हमला किया। जीता। हिंदू पद पादशाही उन्हीं की अवधारणा है और ‘अटक से कटक तक भारत के विस्तार की भी, लेकिन इतिहास में उनकी उपेक्षा हुई।
यूरोपीय, वामपंथी इतिहासकारों ने बाबर, गजनी, गोरी, औरंगजेब आदि को महत्व दिया। वे मध्यकाल को मुगल या मुस्लिम इतिहास सिद्ध करते रहे। मूर्तियों, मंदिरों के ध्वंसकर्ताओं और उत्पीड़कों को योद्धा नायक की तरह पेश किया गया। मुस्लिम समाज के एक वर्ग में इसका गलत प्रभाव पड़ा। इतिहासकारों के अपकृत्य से हिंदू और मुसलमानों के नायक अलग हो गए। एकताबद्ध, सुगठित राष्ट्र में सभी वर्गों का इतिहास-भूगोल एक होता है। आंबेडकर ने यह बात ध्यान दिलाई कि यहां हिंदुओं और मुसलमानों के नायक अलग-अलग हैं। वामपंथी, यूरोपपंथी इतिहासकारों को भारत के पराक्रम और संस्कृति दर्शन की भी श्रेष्ठता नहीं दिखाई पड़ी। ये इतिहासकार प्रेरक नायकों को अनदेखा कर रहे थे।
देश केवल दिल्ली ही नहीं है, लेकिन इतिहासकारों का ध्यान दिल्ली के आस-पास की घटनाओं पर ही गया। 1857 के स्वाधीनता संग्र्राम को भी इतिहास में सम्मानजनक जगह नहीं मिली। उसे ब्रिटिश प्रभावित विद्वानों और वामपंथियों ने सिपाहियों का विद्रोह बताया। वस्तुत: यह अंग्रेजों से सीधी लड़ाई थी। ब्रिटिश सत्ता कांप उठी थी। डरी अंग्र्रेजी सत्ता ने इसी के दो साल के भीतर भारत के लिए पुलिस अधिनियम जैसे कई कानून बनाए। सावरकर ने स्वाधीनता संग्र्राम का वास्तविक इतिहास लिखा था। अंग्र्रेजों ने इसे जब्त कर लिया। वीर सावरकर पर भी कई पुस्तकें हैं, लेकिन इतिहास विरूपक उन्हें महत्व नहीं देते। इसी मानसिकता के समर्थकों और वामपंथियों ने देश में पराजित मानसिकता बढ़ाने का काम किया। ये विद्वान भारत को अशिक्षित और पिछड़ा बता रहे थे। वामपंथी इतिहासकारों ने प्राचीन इतिहास पर भी हमला बोल दिया। पूर्वज आर्यों को भी विदेशी हमलावर बताया। आत्महीनता से ग्रस्त एक नई बौद्धिक नस्ल का विकास होता रहा।
आत्महीन समाज निराशा में रहते हैं। वे अब भी गलत तथ्यों के माध्यम से आत्महीनता का भाव भर रहे हैं। भारत को वास्तविक इतिहास बोध से समृद्ध करने के मार्ग में तथ्यहीन इतिहास बाधा है। भूले-बिसरे नायकों को पाठ्यक्रम सहित सभी अवसरों पर याद कराया जाना आवश्यक है। यह अच्छा हुआ कि लेखक अमीश त्रिपाठी ने सुहेलदेव पर किताब लिखी और उनके अद्भुत पराक्रम से देश को परिचित कराने का काम किया। ऐसे तमाम पराक्रमी योद्धा इतिहास में दफन हैं।
आज का भारत पूर्वजों के सचेत और अचेत कर्मों का परिणाम है। संप्रति सचेत कर्म द्वारा उपेक्षित महानायकों को प्रतिष्ठित करने की जरूरत है। आत्महीन समाज में राष्ट्रीय उमंग नहीं होती। अपनी संस्कृति, सभ्यता और दर्शन पर गर्व का अनुभव नहीं होता। राष्ट्रीय गौरव बोध के लिए वास्तविक इतिहास बोध जरूरी है। साभार
(लेखक उप्र विधानसभा के अध्यक्ष हैं)