मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के जीवन चरित्र और कार्यप्रणाली पर विशेष लेखमाला
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महर्षि वाल्मीकि जो न केवल आदिकवि ,आदि इतिहासकार भी हैं उनके द्वारा प्रणीत रामायण महाकाव्य भारतवर्ष ही नहीं संसार के महाकाव्यों में सर्वोच्च स्थान रखता है| रामायण आर्य सभ्यता और संस्कृति का दर्पण है| वाल्मीकि रामायण के अध्ययन से हम रामायण कालीन ज्ञान विज्ञान कला कौशल धार्मिक पारिवारिक सामाजिक मूल्यों लोकाचार नर नारी की पवित्रता का तो बोध होता ही है |साथ ही रामायण कालीन पर्यावरण बोध चेतना के भी दर्शन मिलते हैं| वाल्मीकि कवि हृदय ऋषि थे| एक कवि अपनी उत्कृष्ट रचना में प्रकृति के अनुपम सौंदर्य को स्थान ना दें यह कैसे संभव हो सकता है?
वाल्मीकि रामायण में 6 कांड हैं जिनका नाम करण स्थान विशेष , घटना विशेष के आधार पर किया गया है| रामायण के दो कांड अरण्य कांड , किष्किंधा कांड कांडों में सॉरी राम के जीवन में घटित वनवास के दौरान घटित घटनाएं वन्य जीवन की परिस्थितियों से प्रभावित हैं अर्थात आदि कवि वाल्मीकि ने बड़ी सुंदरता के नदी पर्वत वन उपवन वाटिका के वनों में स्थित ऋषियों के मनोरम आश्रमों का नाम उल्लेख कर लेकर मर्यादा पुरुषोत्तम राम की कीर्ति के साथ-साथ उनको भी अमर कर दिया| हम कह सकते हैं रामायण महाकाव्य मर्यादा पुरुषोत्तम राम का पावन जीवन चरित्र ही नहीं यह रामायण कालीन प्राकृतिक सौंदर्य श्री राम माता सीता भारतीय जनमानस के प्राकृतिक प्रेम पर्यावरण बोध का भी परिचय कराता है | रामायण जैसे ऐतिहासिक महाकाव्य को लिखने की साहित्यिक पद शैली की प्रेरणा महर्षि वाल्मीकि को भी ऐसी एक प्राकृतिक मिश्रित घटना से मिली जब वह तमसा नदी के खूबसूरत तट पर स्नान संध्या वंदन के किए जाते हैं वह उन्हीं की आंखों के सामने एक शिकारी मिलन को आतुर सारस पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी को मार देता है| व्याध द्वारा मारे गए उस पक्षी को देखकर धर्मात्मा महर्षि का हृदय द्रवित हो गया…. अनायास ही उनके मुख से निकल गया!
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम् ।।
(रामायण, बालकाण्ड, द्वितीय सर्ग, श्लोक 9)
हे निषाद ! तूने इस प्रणयरत पक्षी को मारा है ,तुझे बहु काल पर्यंत सुख एवं शांति प्राप्त ना हो|
यह घटनाक्रम महर्षि वाल्मीकि अपने आश्रम पर लौट कर अपने शिष्य भारद्वाज को बताते हैं| भारद्वाज! शोक पीड़ित अवस्था में मेरे मुख से अनायास जो श्लोक निकला है इसमें 4 पद हैं प्रत्येक बाद में समान अक्षर हैं और वीणा पर भी गाने योग्य हैं यह रचना कीर्ति बढ़ाने वाली हो इसमें कुछ भी अन्यथा ना हो|
रामायण के समस्त कांडों में उद्धृत श्लोकों से यह विषय आपको भली भांति स्पष्ट हो जाएगा| आदि कवि वाल्मीकि बालकांड में अयोध्या नगरी के प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन करते हुए कहते हैं………|
उघानाम्रवनोपेता महती सालमेखलाम् |
“उद्यान और आम के वन अयोध्या नगरी की शोभा को बढ़ा रहे हैं| अयोध्या नगरी के चारों ओर साखुओ के लंबे वृक्ष थे”
ऐसा ही उल्लेख मिथिला पुरी के विषय में बालकांड के 23 वे सर्ग में आया है| मिथिला पुरी के चारों ओर उपवन थे| ऐसे ही एक उपवन में अहिल्या गौतम ऋषि का आश्रम था| इन प्रसंगों से यह पता चलता है रामायण कालीन राजे महाराजे नगरी के चारों तरफ सुंदर फल फूलों औषधियों से युक्त उपवन स्थापित कराते थे| आज के भारत में नगरों के बाहर मनोरम उपवन नहीं कूड़ा घर डंपिंग ग्राउंड नजर आते हैं| उपवन एक मानव निर्मित प्राकृतिक परिवेश है इसका महत्व प्राकृतिक वन की तरह ही होता है,उपवन राजकीय वन ही होते थे | रामायण में अनेक राजा महाराजाओं के उपवन का उल्लेख मिलता है| वाटिका और उपवन अलग ही विषय वस्तु है, उपवन पर प्रत्येक नगर निवासियों का अधिकार होता था जबकि वाटिका नितांत निजी राज परिवार के मनोरंजन के लिए होती थी| अर्थात उपवन राज महल के बाहर ,वाटिका राज महल के भव्य परिसर के अंदर ही बनाई जाती थी| रामायण में किस्किंधा कांड में महाराज सुग्रीव के मधुवन का विस्तृत उल्लेख मिलता है जिसमें मधु फल खाने की आज्ञा केवल सुग्रीव है उसके अतिथियों को ही थी| माता सीता की खोज कर जब हनुमान महेंद्र पर्वत की चोटी पर उतरते हैं तो समस्त वीर वानर खुशी से झूम उठते हैं उत्साह में वह उछल कूद मचाते हुए मधु वाटिका के फलों को खाने के लिए युवराज अंगद जामवंत आधी बूढ़े वानर से याचना करते हैं | आज्ञा पाते ही वानर मधु वाटिका को अस्त-व्यस्त कर देते हैं वह देखकर वाटिका के संरक्षक दधिमुख नामक वानर क्रुद्ध होकर महाराज सुग्रीव को आकाश मार्ग से तुरंत किष्किंदा पहुंचकर समाचार देते हैं |
सुग्रीव से कहते हैं…….|
सन्निपत्य दधिमुखः सुग्रीवमब्रवीद्वचः|
वनं निसृष्टपूर्वं हि भछितं तक्तु वानरै:|| सुंदरकांड)
हे राजन जिस मधुबन को आपने कभी किसी को इच्छा अनुसार भोगने नहीं दिया उसी वन को वानरों ने खा डाला | जब मेरे वनरक्षक अनुचर उन्हें रोकने लगे तब उन वानरों ने उन्हें डरा धमकाकर वन से बाहर निकाल दिया|
इस घटनाक्रम से पता चलता है लाखो वर्ष प्राचीन रामायण कालीन भारत में पर्यावरण वन संरक्षण के कानून कठोरता से लागू होते थे| वनों की दो श्रेणियां थी राजकीय ,अराजकीय जैसे आज आरक्षित वन गैर आरक्षित वनों की श्रेणियां है |
ऐसी ही पर्यावरण बोध के महत्व की दूसरी घटना पर दृष्टिपात करते हैं| वनों में ऋषि मुनियों के आश्रम यज्ञ वनों की रक्षा के लिए महर्षि विश्वामित्र श्रीराम व लक्ष्मण को महाराजा दशरथ से मांग कर ले गए थे| एक बूढ़े महाराज जिसे वृद्धावस्था में बड़े जतन से पुत्र प्राप्ति हुई वह वैदिक धर्म संस्कृति की खातिर अपने प्राण प्रिय अल्प किशोर आयु के पुत्र श्री राम लक्ष्मण को महर्षि विश्वामित्र को सौंप देते हैं| दोनों भाइयों ने महर्षि विश्वामित्र के सानिध्य में विधिवत शिक्षा अर्जित की 10 वर्ष वनों में गुजारे| सरयु गंगा के संगम को पार कर दोनों राजकुमार नदी के दक्षिण तट पर उतरते हैं उत्सुकता से श्रीराम महर्षि विश्वामित्र से पूछते हैं|
अहो वनमिदं दुर्गं झिल्लिकागणनादितम्|
भैरवै: श्वापदै कीर्णं शकुन्तैदार्रूणारवै:||(6 बालकांड)
धवाश्वकर्णककुभैबिर्ल्वतिन्दुकपाटलै:|
संकीर्णं बदरीभिश्च कि न्वेतद्दारूणं वनम्|| 8 (बालकांड)
अहो! यह वन तो बड़ा भयानक प्रतीत होता है इसमें झींगुर झंकार रहे हैं बड़े-बड़े भयंकर जीवो के नाद से परिपूर्ण है और भास पक्षी भीषण शब्द कर रहे हैं|
हे ऋषि! असगंध, अर्जुन , बिल्व ,तेंदुआ , पाढल और बेरी के वृक्षों से व्याप्त यह वन कौन सा है|?
विश्वामित्र श्री राम को बताते हैं| राम सुनो मैं बताता हूं यह वन किसका है| पहले यहां पर देवलोक के समान स्थिति वाले धन-धान्य से भरपूर और समृद्ध मलद और करुष नाम के दो देश( नगर) बसे हुए थे| ताटका नाम की सुंदर यक्षिणी स्त्री जिसमें अनेक हाथियों का बल है उसने अपने पुत्र मारीच जो इंद्र के समान पराक्रमी है उसके साथ मिलकर इस वन नगर को उजाड़ दिया है…..|
पर्यावरण बोध की दृष्टि से इस घटना क्रम का बड़ा ही सुंदर विशलेषण निकलता है| रामायण कालीन भारत में वनों के बीच नगर थे ना कि नगर में वन जैसा आज है| वनों को नष्ट करने वाली प्रकृति जैव विविधता की दुश्मन दुष्ट शक्ति मानवीय रूप में रामायण काल में भी विद्यमान थी| उन्हें कठोर दंड मिलता था| श्री राम ने ऐसी ही दुष्ट शक्तियों राक्षसों का वध किया जो वन्य जीवन वन ऋषि यज्ञ कि दुश्मन थी| राम ऊपर के प्रसंग में वन के वृक्षों से तो परिचित हैं लेकिन वन के नाम से नितांत अपरिचित हैं| इससे यह संदेश मिलता है किसी भी प्राकृतिक क्षेत्र के वृक्षों का महत्व है उनके नाम ही मुख्य है | किसी स्थान के भौगोलिक ऐतिहासिक सांस्कृतिक महत्व से पूर्व उस स्थान के पर्यावरण महत्व वृक्षों की पहचान जरूरी है| श्री राम का पहला बनवास वैदिक धर्म की रक्षाअर्थ था यज्ञ ऋषि-मुनियों वनों की रक्षा उन्होंने की| दूसरा 12 वर्ष का वनवास जो उन्हें सपत्नीक पिता के वचन की रक्षा के लिए उन्होंने पूर्ण संतोष संयम धर्म के पालन नित्य हवन संध्या कर ऋषि मुनियों के सत्संग में व्यतीत किया है |
राम के पहले वनवास का अनुभव उनके दूसरे वनवास में काम आया| विश्वामित्र जैसे ऋषि उनकी तमाम शंकाओं का समाधान करते हैं प्रकृति पर्यावरण यज्ञ संध्या उपासना योग का महत्व उनके ह्रदय में स्थापित करते हैं|
शेष आगे के अनेक अंको में|
आर्य सागर खारी ✍✍✍