मनोज तिवारी
स्वीडन की यूनिवर्सिटी ऑफ मॉल्मो में आजे कार्लबॉम सोशल एंथ्रोपोलॉजी के एसोसिऐट प्रोफेसर हैं और इस लेख में उन्होंने बताया कि स्वीडन की आज क्या हालत है? एक स्वीडन समाचार दागेंस सैमहाले का कहना है कि स्वीडिश समाज को इस्लामी बनाने के लिए सऊदी अरब किस तरह इस्लाम का प्रचार-प्रसार कर रहा है।
सत्तर के दशक के बाद से ही सारी दुनिया में सऊदी अरब सारी दुनिया में वहाबीवाद या सलाफीवाद को बढ़ाने में लगा है। स्वीडन की विदेश मंत्री मार्गोट वौलस्ट्रॉम ने सऊदी अरब की इस बात के लिए आलोचना की है कि यह उनके देश के अंदरूनी मामलों में भी हस्तक्षेप करने लगा है। सऊदी अरब के इस मिशन में मुस्लिम वर्ल्ड लीग को इसका नेतृत्व सौंपा गया है। यह दुनिया का सबसे बड़ा गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) है जिसके पांच महाद्वीपों में तीस कार्यालय हैं। हाल ही में, कुरान का स्वीडिश अनुवाद ‘कोरानेंस बुडस्केप’ (द मैसेज ऑफ द कुरान) प्रकाशित किया गया है जिसे रियाद से मिले पैसों से प्रकाशित किया गया है।
इस मिशन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू है मस्जिदों के निर्माण में सहायता करना। माल्मो में बनी द ग्रेट मॉस्क जैसे इस्लामिक सेंटर को सउदी अरब और लीबिया ने मिलकर बनवाया था। इसे अस्सी के दशक की शुरुआत में बनवाया गया था। अरब स्प्रिंग से कुछ समय पहले यहां वर्ल्ड इस्लामिक काल सोसायटी ने इस मस्जिद को खरीद लिया और अब यह लीबियाई मस्जिद है। इसे खरीदने वाले संगठन को लीबिया के पूर्व तानाशाह मुअम्मर गद्दाफी ने स्थापित किया था।
मुस्लिम वर्ल्ड लीग (एमडब्ल्यूएल) में द आर्गनाइजेशन वर्ल्ड असेंबली ऑफ मुस्लिम यूथ (डब्ल्यूएएमवाई) भी शामिल है। यह संगठन विभिन्न भाषाओं में इस्लामी प्रचार को फैलाने का काम करता है। और इंटरनेट मे प्रचार-प्रसार से पहले यह इस्लाम के प्रचार और कुरान के अनुवाद का एक बड़ा मंच बन गया।
इस संगठन ने हाल के दशकों में इस्लाम का प्रचार और इसका अध्ययन मुहैया कराने के लिए जानकारी देने वाली पुस्तिकाएं छपवाईं और सारी दुनिया में बंटवाईं। एमडब्ल्यूएल और डब्ल्यूएएमवाई ने लंदन में अपने कार्यालय खोले और ब्रिटेन से इस्लाम को परिचित कराया और उनका कहना है कि वे विभिन्न देशों के समाजों से ‘सार्थक संवाद’ करना चाहेंगे।
इन संगठनों ने जो पुस्तिकाएं छपवाई हैं, उनके विविध उद्देश्य हैं लेकिन कुल मिलाकर एकमात्र उद्देश्य यही है कि वे लोगों को इस्लाम के प्रति प्रेरित करें और इस्लाम की ‘गलत छवि’ को सुधारें। स्वीडन में युवाओं के मध्य मुस्लिम धर्म बहुत लोकप्रिय हुआ है और यह आसपास के अन्य यूरोपीय देशों में भी घुसपैठ कर रहा है। इनका मानना है कि पश्चिमी देशों के युवा एक पहचान के संकट (आइडेंटिटी क्राइसिस) से गुजर रहे हैं और वे इस बात को लेकर भ्रमित हैं कि उनकी पहचान क्या है, उनके सांस्कृतिक और धार्मिक मूल्य क्या हैं और वे स्वीडन की उदारवादी शैली को पसंद नहीं करते हैं।
स्वीडन और नॉर्डिक देशों के युवा अपनी समस्याओं का हल इस्लामी गुटों और उनके संजाल (नेटवर्क्स) में तलाश रहे हैं। वे इन कट्टरपंथी गुटों को अधिक धार्मिक और सामाजिक सौहार्द वाला समझने लगे हैं। इन युवाओं के लिए मुस्लिम ब्रदरहुड या हिज्ब ए तहरीर की कट्टरपंथी शिक्षाओं की बजाय सुन्नी वहाबीवाद अधिक आकर्षक लगने लगा है।
हाल में, स्वीडन में ‘हिंसक कट्टरपन’ का बहुत प्रभाव पड़ा है। इस्लामी आतंकवादी इन्हें उग्रवादी दिशा की ओर मोड़ते हैं और सलाफियों की यह विचारधारा उन्हें जिहादी बना रही है। अपने राजनीतिक अवतार में सलाफीवाद भी ऐसे गुटों में बंटा है जो कि हिंसा की वकालत करते हैं।
लोकतांत्रिक समाजों में हिंसक युवा लोगों की समन्वय की समस्या होती है और वे मुस्लिम उग्रवादी एक ऐसी ‘मानसिक अल्पसंख्यक बस्ती’ (घेटो) में रहते हैं जो कि ऐसे लोगों से कट जाते हैं या उनसे घृणा करते हैं जो कि उनके गुट की विचारधारा को नहीं मानते हैं या अलग विचार रखते हैं। कट्टरपंथी इस्लाम एक ऐसी तरह का आंदोलन है जो कि सकारात्मक सोच वाले बहुसंख्यक समुदाय से अलग रहना पसंद करता है।
यह युवा ‘सच्चा इस्लाम’ पाने के लिए सलाफीवाद या वहाबीवाद की वैचारिक दुनिया में रहना पसंद करते हैं। इस विचारधारा से प्रभावित यह मानते हैं कि इस्लाम की सऊदी विचारधारा उनको बिल्कुल स्पष्ट और ईश्वर के निर्देश देती है। यह विचारधारा उन्हें बताती है कि वे एक मुस्लिम के तौर पर कैसे व्यवहार कर सकते हैं?
इस वातावरण को इन युवाओं को और अधिक आकर्षक बनाने के लिए सलाफीवादी (शुद्धतावादी) ऐसी सामान्य गतिविधियों को भी निषिद्ध बता देते हैं। सऊदी अरब और यमन में सलाफीवाद के पनपने और फैलने का एक बड़ा कारण यह है कि इन देशों में धार्मिक शिक्षा पर जोर दिया जाता है और इन देशों में यह शिक्षा पूरी तरह से मुफ्त दी जाती है। इस तरह की धार्मिक पढ़ाई-लिखाई के बाद युवाओं को इस संदेश के साथ पूरी दुनिया में घूमने के साथ कहा जाता है कि इस्लाम का विश्लेषण किस तरह किया जाना चाहिए।
आमतौर पर मुस्लिमों में सलाफियों को अपने समाज में ऊंचा दर्जा दिया जाता है क्योंकि वे अपने विचारों और कार्यों में पूरी तरह से कट्टर होते हैं। यह लोग धर्म के नाम पर किसी किस्म की कोई छूट या रियायत बर्दाश्त नहीं करते हैं और कट्टर परम्पराओं का अक्षरश: पालन करते हैं।
सलाफी गुटों में सक्रिय युवा लोग मानते हैं कि उनका समाज ही इस्लामीकरण है और यही अंतिम सच है। स्वीडिश यूनाइटेड दावा सेंटर (एसयूडीसी) सड़कों और इंटरनेट, दोनों पर ही, अपने मिशनरी काम करती है और अपने संभावित अनुयायियों को एक विशेष किस्म की ‘सेल्स तकनीकों’ के बल पर उन्हें अपने जाल में फंसा लेते हैं। इन लोगों को वे इस्लाम फैलाने का जिम्मा देते हैं और इन लोगों को इस कला में माहिर करते हैं कि बातचीत पर अपना पूरा नियंत्रण रखो और कठिन स्थितियों के सामने आने पर बचते रहो।
इस तरह इस्लामी संदेश की पैकेजिंग कर इन नव दीक्षित कट्टरपंथियों को समझाया जाता है कि उनका धर्म, सलाफीवाद या वहाबीवाद किस तरह से इस्लाम के ही अन्य गुटों और अन्य धर्मों की तुलना में सबसे अच्छा है। इन नए सलाफियों या वहाबियों को समाज में महिलाओं की भूमिका को लेकर पूरी तरह गलत या भ्रामक जानकारी दी जाती है क्योंकि सलाफी और वहाबी जानते हैं कि इस मामले पर अविश्वास करने वाले पश्चिमी देशों ने नागरिकों को पूरी तरह संतुष्ट कराना बहुत कठित होता है। इसलिए सलाफी या वहादी जिन नैतिक मूल्यों को महिलाओं पर लादते हैं, उन्हें महिलाओं के लिए विशेषाधिकार बताते हैं और चाहते हैं कि महिलाएं भी इन बातों का पूरी सख्ती से पालन करें।
केवल सऊदी या सलाफी या वहाबी ही नहीं वरन बहुत सारे मुस्लिम संगठन इस्लाम के नाम पर चैरिटी या धर्मार्थ संस्थाएं चलाते हैं। इस्लाम के लिए मिशनरी काम करने वाले संगठन को दावा कहते हैं और स्वीडन के एसयूडीसी ने अपने मिशन को स्वीडिश प्रवासी बोर्ड, स्कूलों, राजनेताओं, पुलिस और सामान्य जनता तक प्रचारित करते हैं। इस्लामी प्रचार के इन दावाओं को लेकर किसी तरह का अंतर, प्रतिक्रिया या भेदभाव नहीं होता है।
यह इस्लामी प्रचार की रणनीति का हिस्सा है कि वे आक्रामक से आक्रामकतम तरीकों से विचारों को फैलाते हैं और लोगों में इस्लाम के प्रति सद्भावना पैदा करते हैं। सभी इस्लामवादियों का मानना है कि धर्म के लिए मिशनरी काम करना उनका धार्मिक कर्तव्य है इस्लामवादियों का मानना है कि उनका धर्म एक वैश्विक संदेश है और इससे दुनिया के प्रत्येक आदमी को लाभान्वित कराना चाहिए।
इस्लामवादी मानते हैं कि दुनिया में मानवता के सामने आने वाली अधिकतर समस्याओं का खात्मा हो सकता है, अगर प्रत्येक आदमी इस्लाम को अपना ले। स्वीडिश इमीग्रेशन बोर्ड (स्वीडिश प्रवासी बोर्ड) की आर्थिक मदद से प्रकाशित होने वाली पुस्तिकाओं में कहा गया है कि इस्लाम को जानने के लिए धार्मिक पुस्तकों में यह बात कही गई है कि इस्लाम का पालन करने वाले मुस्लिमों (या इस्लामबादियों) के लिए दो जरूरी कर्तव्य हैं कि दूसरे देशों में प्रवास के लिए मुस्लिम समुदाय के हितों को पूरा करना और उन्हें सुरक्षित रखने की पूरी कोशिश करो। और दूसरा बड़ा कर्तव्य है कि मुस्लिमों और गैर-मुस्लिम आबादी में अपने विचारों को लगातार फैलाते रहो।
इस काम के लिए वैश्विक स्तर पर (कि इस्लाम क्या है, जैसे प्रश्न का जवाब देने के लिए) इस्लामी गतिविधियों को बढ़ावा दिया जाए और इसकी ज्यादा से ज्यादा लोगों के सामने व्याख्या की जाए। इस संबंध में एक बहुत अहम बात का ध्यान रखा जाता है कि इस्लाम की एक बहुत ही सकारात्मक और मूल्य आधारित धर्म की छवि का प्रसार किया जाए और इस काम में अधिकाधिक शिक्षाशास्त्रियों, पत्रकारों, इस्लामवादी जानकारों, राजनीतिज्ञों और कार्यकर्ताओं को इस वैचारिक गतिविधियों में शामिल किया जाए। इस काम में ऐसे लोगों को भी शामिल किया जाए जिनका धर्म से कोई लेना देना न हो या जो कि इस्लाम की ‘वास्तविकता’ से परिचित न हों।
वैश्वीकरण के इस दौर में इस्लामवाद का भी वैश्वीकरण हुआ है और यह धर्मनिरपेक्ष देशों- राज्यों (जैसे भारत में) में यह बात राजनीतिक वास्तविकता बन गई है। अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर के संगठन भी इन विचारों को गैर-मुस्लिमों और मुस्लिमों में फैलाने के लिए प्रभाव का इस्तेमाल करें। भारत में यह एक कटु वास्तविकता है कि धर्म वोट खरीदने का हथियार बन गया है और समूची कथित धर्मनिरपेक्ष और तथाकथित समाजवादी व्यवस्था, शासन प्रणाली भी इस बीमारी से अछूती नहीं रही है। सबसे बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि बड़े-बडे शिक्षण संस्थानों, और राष्ट्रीय महत्व की संस्थाओं का राजनीति का अखाड़ा बनने के लिए क्या धर्म और जाति के नाम पर होने वाली राजनीति पर पत्रकारों और तथाकथित विद्वानों की निगाह नहीं जाती है।
यह समय है कि जब हम पैगंबर के कथित अपमान को लेकर होने वाले राष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शन के नाम पर अराजकता और इनके समर्थन में राजनीति दलों का गोलबंद होने की प्रक्रिया को समझें। अगर हम सलादी और वहाबी तथा अन्य प्रकार से प्रेरित इस स्वीडिश इस्लाम के कैशोर्य की चल रही राजनीतिक और सामाजिक प्रक्रियाओं को समझने की कोशिश करें। अंत में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय उपमहाद्वीप के विभाजन की जड़ में धर्म और राजनीति ही थी। जो बुद्धिजीवी स्वतंत्रता से पहले ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’ लिखा करते थे, वे भी अंत में पाकिस्तान में जाकर बस गए। जब बुद्धिजीवी माने जाने लोगों का यह हाल है तो एक आदमी देश या समाज के बारे में कितनी चिंता कर सकने काबिल रह गया है?