सब कुछ हो गया कामचलाऊ न
– डॉ. दीपक आचार्य
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व्यक्तित्व विकास में परफेक्शन अर्थात पूर्णता वह शब्द है जो हर पहलू से जुड़ा है और इसी के आधार पर हमारे व्यक्तित्व का समग्र मूल्यांकन किया जाता है। व्यक्तित्व का विकास हमारी शिक्षा-दीक्षा, संस्कारों और गुणों पर निर्भर करता है। इनमें से एक की भी आनुपातिक कमी होने पर व्यक्तित्व को पूर्ण नहीं माना जा सकता।
यह जरूरी नहीं कि पढ़ा-लिखा आदमी ही पूर्ण हो, अकूत धन-दौलत के स्वामी ही सर्वस्व हों अथवा किसी भाग्य से बड़ा बन जाने वाले लोग ही पूर्णता प्राप्त कर चुके हों। व्यक्तित्व की पूर्णता के लिए यह जरूरी है कि आदमी में अपने व्यक्तित्व के अनुकूल विलक्षणताएं, मेधा और समानुपाती व्यवहारिकता व संस्कारों का समावेश हो।
कोई खूब पढ़-लिख जाए, ऊँचे पद पर कुण्डली मारकर बैठ जाए, महान और लोकप्रिय कहलाना शुरू कर दे अथवा अपने आपको प्रतिष्ठित मान बैठे मगर उसकी कल्पित ऊँचाई के अनुरूप प्रतिभाओं और संस्कारों की कमी होने पर उसकी कथित प्रतिष्ठा का कोई वजूद नहीं। प्रतिष्ठा का यह भ्रामक अंधकार कभी न कभी खत्म होने वाला ही है।
आजकल यह जरूरी नहीं रहा कि जो आदमी जिस काम में लगा हुआ हो, वह उसमें माहिर हो ही। आजकल आदमी का लक्ष्य नौकरी करना और पैसा कमाना रह गया है। ऎसे में जो काम मिल जाए, उसी में हाथ आजमाने लगता है और जैसे-तैसे ‘‘करत-करत अभ्यास के …..’’ की तर्ज पर चल निकलता है।
स्थितियाँ आजकल सभी जगह कमोबेश ऎसी ही हैं। समाज और देश के लिए कर्मयोग के जो-जो माध्यम रहे हैं उन सभी में हर विशिष्ट कार्य के लिए दक्षता प्राप्त व्यक्तियों को लगाए जाने का विधान प्राचीनकाल में रहा है। इस वजह से समाज और सृष्टि के लिए खूब आविष्कारों, प्रयोगों और उपकरणों ने अपना जादू दिखाया। पर अब वे स्थितियां समाप्त होती जा रही हैं। अब न लक्ष्य रहे हैं न समाज और देश को कुछ नया देने की भावना। वैश्विक कल्याण की जो कल्पना हमारे ऋषि-मुनियों ने की थी, उसका चीरहरण हो चला है।
बिरले लोगों को छोड़ दें तो अब आदमी के लिए दुनिया उसके घर-परिवार तक सिमट कर रह गई है। उसकी सोच का दायरा सिर्फ चंद लोगों और कुछ मीटर तक सिमट चुका है जहाँ उसे कुछेक लोग ही अपने लगते हैं, बाकी सारे के सारे पराये या अपने उपयोग के लिए पैदा हुए। समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में ऎसे खूब सारे लोग हुआ करते हैं जिनकी समाज और क्षेत्र के लिए उपयोगिता हुआ करती है।
इसी प्रकार हर क्षेत्र में ऎसे लोगों भी होते हैं जो अच्छे और गुणी लोगों को प्रोत्साहित करते हैं और संरक्षण भी प्रदान करते हैं। लेकिन ये सारी बातें तभी तक लागू होती हैं जब तक इंसान में समाज और क्षेत्र के लिए कुछ करने की भावना हो। जब यह भावना रूपान्तरित होकर नाम पिपासा और छपास, पद-मद और कद पा जाने के गोरखधंधों, मुद्रार्चन और स्वार्थपूत्रि्त में लग जाती है तब सामाजिक सरोकारों से भरे सारे मिथक ध्वस्त हो जाते हैं। लक्ष्य कहीं खो जाता है और इंसान भटक जाता है चकाचौंध से भरी भूलभुलैया में।
अब सबको अपनी ही पड़ी हुई है, हर कोई सिर्फ अपने ही बारे में सोचना और जीना चाहता है। इन हालातों में न गुणवान रहे हैं, न गुणग्राही। हम अब जुगाड़ संस्कृति के संवाहक और कामचलाऊ होते जा रहे हैं जहाँ हमें अपने कर्मों से कहीं ज्यादा खुद की लाभ-हानि से मतलब है। तब हमें न समाज दिखता है, न अपने कुटुम्बी, और न ही हमारी मातृभूमि। यही कारण है कि लोग अब बहुत पुराने अतीत के व्यक्तित्वों का स्मरण करते हैं, क्योंकि न वर्तमान और न ही हाल के वर्षों में कोई ऎसा हो पाया है जिससे प्रेरणा प्राप्त कर दशा और दिशा तय की जा सके।