अजय कुमार
चाटुकारों ने ऐसा भ्रम जाल फैला रखा है, जिससे यही अहसास होता है कि गांधी परिवार के हाथ से नेतृत्व किसी दूसरे नेता के हाथ में गया तो कांग्रेस का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। इसीलिए कांग्रेस में गांधी परिवार के आगे की बात कोई नेता नहीं सोचता है।
गांधी नाम केवलम्। कांग्रेस की बस इतनी ही पहचान है। नेहरू के बाद इंदिरा गांधी से लेकर आज तक कांग्रेस में ‘गांधी नाम केवलम्’ मूलमंत्र हुआ बना हुआ है। अगर ऐसा न होता तो 75 वर्षीय सोनिया गांधी के कंधों पर पार्टी की बागडोर सौंप कर कांग्रेसी अपने आप को सुरक्षित महसूस नहीं करते। जो सोनिया गांधी स्वास्थ्य कारणों से अपने संसदीय क्षेत्र तक नहीं जाती हैं, वह कमजोर होती कांग्रेस में कैसे नई जान फूंक कर उसे मोदी के सामने दमखम दिखाने के लिए तैयार कर सकती हैं। दरअसल, गांधी परिवार कुछ भी कहे और चाहे जितना भी दिखावा करे लेकिन हकीकत यही है कि वह अपने हाथ से कांग्रेस के बागडोर गैर गांधी परिवार के किसी नेता के हाथ में नहीं जाने देना चाहती हैं। इसी के लिए गांधी परिवार हर समय पार्टी का नेतृत्व अपने हाथ में बचाये रखने के लिए ताल-तिकड़म करता रहता है।
गांधी परिवार के चाटुकारों ने ऐसा भ्रम जाल फैला रखा है, जिससे यही अहसास होता है कि गांधी परिवार के हाथ से नेतृत्व किसी दूसरे नेता के हाथ में गया तो कांग्रेस का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। इसीलिए कांग्रेस में गांधी परिवार के आगे की बात कोई नेता नहीं सोचता है। अगर कोई हिम्मत करके गांधी परिवार से इतर नई राह पकड़ने की कोशिश करता है तो उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। ऐसे नेताओं की लम्बी-चौड़ी लिस्ट है। यह और बात है कि इसमें से कई दिग्गज नेताओं ने कांग्रेस का दामन छोड़ने के बाद भी अपना अस्तित्व बचाये रखा। कुछ अपने दम पर मुख्यमंत्री बने तो चार कांग्रेसी नेता अलग दल से चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने में सफल रहे। पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह, मोरारजी देसाई, विश्वनाथ प्रताप सिंह से लेकर पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर तक ने लम्बा समय कांग्रेस में बिताया था, लेकिन गांधी परिवार के सामने घुटने नहीं टेकने के कारण इन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था।
उक्त के अलावा पिछले कुछ दशकों में कांग्रेस छोड़ने वालों की लिस्ट में अन्य जो बड़े नाम शामिल हुए उसमें दलित नेता बाबू जगजीवन राम, देवी लाल, ममता बनर्जी, के. चंद्र शेखर राव, शरद पवार, बंशी लाल, चन्द्रबाबू नायडू, जगन मोहन रेड्डी, ज्योतिरादित्य सिंधिया, रीता बहुगुणा जोशी, जगदंबिका पाल, चौधरी वीरेन्द्र सिंह, राम कृष्ण विखे पाटिल, नारायण राणे और एस.एम कृष्णा आदि हैं। दरअसल, जब भी कांग्रेस पार्टी में गांधी परिवार के खिलाफ कोई उठापटक होती है तो नेतृत्व का बिखराव, भ्रम की स्थिति, वरिष्ठ बनाम युवा नेताओं का संघर्ष, ठोस फैसलों का अभाव जैसे आसान जुमले सियासी मंच पर उभरने लगते हैं। आज भी कांग्रेस के लिए केंद्र की सत्ता में हाशिये पर खिसक जाना और उसके चलते कांग्रेस को बचाना चुनौती बना हुआ है।
खासकर 2014 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की धमाकेदार जीत के बाद से कांग्रेस पार्टी को अलविदा कहने वालों की लाइन लगातार लम्बी होती जा रही है। करीब आधा दर्जन पूर्व केंद्रीय मंत्री, तीन पूर्व मुख्यमंत्री और कई नए-पुराने प्रदेश अध्यक्ष पार्टी छोड़ चुके हैं। कांग्रेस छोड़ने वाले पूर्व मुख्यमंत्रियों की लिस्ट में उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा, झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री अजित जोगी, ओडिशा के पूर्व मुख्यमंत्री गिरिधर गमांग का नाम शामिल है तो कांग्रेस छोड़ने वाले पूर्व केंद्रीय मंत्रियों की लिस्ट में जीके वासन (तमिलनाडु), किशोर चंद्र देब-आंध्र प्रदेश, जयंती नटराजन-तमिलनाडु, बेनी प्रसाद वर्मा-उत्तर प्रदेश, श्रीकांत जेना-ओडिशा, शंकर सिंह वाघेला-गुजरात का भी नाम शामिल है। कांग्रेस छोड़ने वाले पूर्व प्रदेश अध्यक्षों में हरियाणा के अशोक तंवर, उत्तर प्रदेश की रीता बहुगुणा, आंध्र प्रदेश के बोचा सत्यनारायण, असम के भुवनेश्वर कलीता, उत्तराखंड के यशपाल आर्या और बिहार के अशोक चौधरी शामिल हैं। नॉर्थ-ईस्ट में कांग्रेस छोड़ने वालों की लंबी फेहरिस्त है। इसमें से तकरीबन सभी बीजेपी में शामिल हो गए। असम के हेमंत बिस्वा सरमा, अरुणाचल प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री पेमा खांडू, त्रिपुरा के सुदीप रॉय बर्मन और मणिपुर के सीएम एन. बीरेन सिंह इसी श्रेणी में आते हैं। ये वो राज्य हैं जहां कुछ साल पहले तक बीजेपी का नाम बमुश्किल ही सुनाई पड़ता था।
इसी तरह से आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की लगभग पूरी की पूरी लीडरशिप जगन मोहन रेड्डी, टीडीपी या बीजेपी के पाले में जा चुकी है। हरियाणा से लेकर गोवा और महाराष्ट्र की तरफ देखने से कांग्रेस छोड़ने वालों की लिस्ट और लंबी हो जाती है। आज कांग्रेस में जिस तरह की छोड़ा-छाड़ी की बेला चल रही है। कांग्रेस पार्टी में कुछ ऐसी ही भगदड़ 90 के दशक में भी मची थी। साल 1996 में नरसिंह राव की सरकार जाने के बाद पार्टी केंद्र की सत्ता से बाहर थी। नेतृत्व का संकट था। सीताराम केसरी यानी गांधी परिवार से बाहर का शख्स अध्यक्ष बना था और पुराने कांग्रेसियों का असंतोष ‘अलविदा’ की शक्ल में बाहर आ रहा था। साल 1996 से 1999 के बीच कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एस. बंगारप्पा, ज्योतिरादित्य के पिता माधवराव सिंधिया, तमिलनाडु के जीके मूपनार, पश्चिम बंगाल की मौजूदा मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, हिमाचल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सुखराम, राजस्थान के शीशराम ओला, महाराष्ट्र के शरद पवार और सुरेश कलमाड़ी, बिहार के जगन्नाथ मिश्रा, जम्मू-कश्मीर में मुफ्ती मोहम्मद सईद सरीखे नेताओं ने कांग्रेस का हाथ छोड़कर अलग रास्ते चुने थे।
इसी तरह से प्रणब मुखर्जी, नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह और पी. चिदंबरम सरीखे नेता भी हैं जिन्होंने अलग-अलग हालात में कांग्रेस छोड़ी और फिर कांग्रेस में वापस भी आ गए। बात आज की कि जाए तो हाल फिलहाल कांग्रेस से ज्योतिरादित्य सिंधिया के इस्तीफे के बाद फिर से पार्टी के 45 से 55 साल के बीच की उम्र के कई तथाकथित युवा नेताओं को कांग्रेस में अपना भविष्य स्याह नजर आ रहा है और वो पार्टी को ‘बाय-बाय’ कहने की कगार पर हैं।
बात कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक की कि जाए तो इस बार भी बैठक के नाम पर ढ़िंढ़ोरा तो खूब पीटा गया, लेकिन कांग्रेस को उबारने का फार्मूला कोई नहीं पेश हुआ। बड़े फैसलों के लिए छह महीने में ऑल इंडिया कांग्रेस कमिटी की बैठक बुलाई जाएगी। तब तक सोनिया गांधी बतौर अंतरिम अध्यक्ष पार्टी चलाती रहेंगी। जाहिर है, सारे जरूरी सवाल ज्यों के त्यों अपनी जगह पड़े हैं, हालांकि कांग्रेस में सार्वजनिक रूप से सवाल उठाना भी कोई कम बड़ी बात नहीं है। इस सवाल का कोई जवाब ढूंढ़ना आज भी पहले जितना ही मुश्किल है कि क्या राहुल गांधी साल भर पहले अध्यक्ष पद से दिए गए अपने इस्तीफे पर पुनर्विचार करने को राजी होंगे और हो भी गए तो क्या पूरी पार्टी उन्हें मन से स्वीकार कर पाएगी? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि अगर मान-मनव्वल का कार्यक्रम सफल नहीं हुआ और बात गांधी परिवार से बाहर के किसी व्यक्ति को ही अध्यक्ष बनाने की ओर बढ़ी तो क्या हर राज्य में कम से कम दो गुटों में बंटे इन नेताओं के बीच से पार्टी के शीर्ष पद के लिए कोई एक सर्वमान्य नाम निकालना संभव होगा?
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