‘पटेल नेहरू से बेहतर पी.एम. सिद्घ होते’
राकेश कुमार आर्य
पिछले दिनों 31 अक्टूबर को पटेल जयंती के अवसर पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने (विश्व में अब तक की सबसे ऊंची प्रतिमा) उनकी प्रतिमा का अनावरण करते समय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की उपस्थिति में कह दिया कि सरदार पटेल यदि देश के पहले प्रधानमंत्री होते तो देश का इतिहास ही कुछ और होता। मोदी के इस वक्तव्य से कांग्रेस बौखला गई। वास्तव में 1947 में देश की पंद्रह स्टेट्स में सेे 12 स्टेट्स सरदार पटेल को देश का पहला प्रधानमंत्री बनाना चाहती थीं। दो स्टेट्स नेहरू के पक्ष में थीं तो एक सी. राजगोपालाचार्य के पक्ष में थी । आज कांग्रेस ने इतिहास के इस तथ्य को कूड़ेदान में डालकर सारे देश को गांधी, नेहरू परिवार की जायदाद बनाकर रख दिया है। आंकड़े बताते हैं कि सारे देश में महात्मा गांधी के नाम पर 9,85,475, नेहरू के नाम पर 7,46,185, इंदिरा गांधी के नाम पर 6,52,264, तथा राजीव गांधी के नाम पर 6,95,824, स्मारक, अस्पताल, सड़क, सरकारी संस्थान अथवा परियोजनाएं हैं। जबकि देश के सात लाख क्रांतिकारियों के नाम कुछ भी नही। सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस, लालबहादुर शास्त्री जैसे लोग कांग्रेसी थे, परंतु उनका देश में हर ‘नेहरू और गांधी’ से अधिक सम्मान है। क्योंकि महापुरूष किसी पार्टी की धरोहर नही होते अपितु वे राष्ट्र की धरोहर होते हैं। सरदार पटेल की ऐसी प्रतिमा स्थापित कर मोदी ने राष्ट्र के प्रति पटेल के देशभक्ति पूर्ण कार्यों को देर से ही सही परंतु राष्ट्र की भावपूर्ण श्रद्घांजलि अर्पित की है। पटेल के विषय में उनका यह कहना बिल्कुल सही है कि पटेल यदि देश के पहले प्रधानमंत्री होते तो देश का इतिहास ही कुछ और होता। सरदार बल्लभ भाई पटेल भारतीय स्वातन्त्रय समर के कोहेनूर हैं। यदि उन्हें भारतीय स्वतन्त्रता-समर से निकाल दिया जाये तो भारत की स्वतन्त्रता का ‘ताज’ आभाहीन हो जायेगा। सरदार जी के नाम से प्रसिद्घ और इतिहास में ‘लौहपुरुष’ की ख्याति प्राप्त इस महापुरुष की एक बात सभी ने मुक्तकण्ठ से सराही है कि ये स्पष्टवादी और व्यावहारिक बुद्घि के धनी थे। कितने ही अवसर ऐसे आये जब नेहरू और गाँधी ने या तो अस्पष्ट बातें की या दोगलेपन से काम करने का प्रयास किया। पर सरदार पटेल ने हर स्थान पर और हर अवसर पर स्पष्ट वादिता का परिचय दिया। यही कारण है कि उनके व्यक्तित्व के इस गुण की प्रशंसा उनके विरोधियों ने भी की।
मुस्लिमों के विषय में सरदार पटेल का दृष्टिकोण बड़ा ही अच्छा था।
उन्होंने कभी भी और कहीं भी मुस्लिमों के मौलिक अधिकारों के हनन की बात नहीं की। हाँ, यदि अवसर आया तो मुस्लिमों के नेतृत्व को या समाज को खरी-खरी सुनाकर या लताड़कर सही रास्ते पर लाने में भी कभी- चूक नहीं की। उनका ऐसा ही दृष्टिकोण हिन्दुओं के प्रति भी था। 1921 में उन्होंने भड़ौच में एक भाषण में कहा था? ”हिन्दू-मूस्लिम एकता अभी एक कोमल पौधे की तरह है। एक लम्बे अर्से तक इसे हमें बहुत सावधानी से पालना पोसना होगा। हमारे दिल अभी उतने साफ नहीं है, जितने होने चाहिए थे।’’
सरदार पटेल के अतिरिक्त हर कांग्रेसी प्रारम्भ से ही हिन्दू मुस्लिम एकता की बातें करते समय सदियों पुराने अच्छे सम्बन्धें की बात करते थे। परन्तु सरदार पटेल ने ऐसा नहीं कहा। उन्होंने दोनों सम्प्रदायों से कहा कि हमारे दिल अभी उतने साफ नहीं है, जितने कि होने चाहिए थे। उनकी हार्दिक इच्छा थी कि पहले दिलों की सफ ाई की जाये, तभी एकता की बातें की जायें।
भारत में कांग्रेस और कांग्रेसी मानसिकता के लोगों ने हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए एक नारा गढा है-गंगा-जमुनी संस्कृति का। यह बात दीखने में अच्छी लगती है। एकता की बातें होनी भी चाहिएं। यह राष्ट्रहित में है। लेकिन गंगा जमुनी संस्कृति का अभिप्राय क्या है? इनकी व्याख्या करते हुए इस प्रकार की संस्कृति के मानने वालों का कथन है कि एक धारा गंगोत्री हिन्दुत्व से निकली और एक धारा जमुनोत्री इस्लाम से निकली। दूर-दूर बहकर भी ये दोनों गंगा और जमुना की धाराऐं जैसे मानव कल्याण में लगी रहती हैं, वैसे ही हिन्दुत्व और इस्लाम हैं।
जिनका अन्तिम उददेश्य मानव कल्याण है। बात सही है। परन्तु एक बात ध्यान देने की है कि गंगा-जमुना सदा और हर स्थान पर अलग-अलग नहीं बहतीं। उनका संगम इलाहाबाद में होता है। जहाँ संगम होता है, वहाँ से एक धारा रह जाती है? जिसे फि र गंगा-जमुना नहीं, अपितु केवल गंगा कहा जाता है। इसी प्रकार हिन्दुत्व और इस्लाम के विषय में माना जाना चाहिए। इनका संगम हिन्दुस्तान में यदि हो गया है तो यहाँ से यह दोनों एक हो गये। अब जो धारा बनी वह केवल हिन्दुत्व है। इसमें साम्प्र्रदायिकता कुछ भी नहीं। इस देश को अपना मानो, इसकी संस्कृति को अपना मानो। इसके इतिहास पुरूषों को अपना मानो और अपनी मजहबी परम्पराओं का स्वतन्त्रता से पालन करो।
सरदार पटेल ऐसी ही हिन्दू मुस्लिम एकता के पक्षधर थे। मोदी ने अपने भाषण में सरदार पटेल के व्यक्तित्व के इसी पक्ष को स्पष्ट करने का प्रयास किया। जबकि कांग्रेस पटेल के व्यक्तित्व के इस गुण से मुंह फेरती रही है। हालांकि राष्ट्रहित में पटेल का चिंतन ही उपयुक्त है, परंतु कांग्रेस उसे उपयुक्त नही मानती है। मोदी पटेल के व्यक्तित्व के इस गुण को देश की राजनीति की आत्मा बना देना चाहते हैं। राष्ट्रवादी मुसलमान भी इस राष्ट्रधर्म में कोई अनौचित्यता नही देखते।
मुसलमानों पर किसी प्रकार की बंदिशें लगाना सरदार पटेल उचित नहीं मानते थे। परन्तु वह राजनीतिज्ञों की भाँति किसी भी प्रकार के तुष्टिकरण के भी कट्टर विरोधी थे।
1931 में करांची कांग्रेस के वह अध्यक्ष थे। उन्होंने अपने भाषण में वहाँ कहा था-”पर सबसे पहले हिन्दू मुस्लिम एकता या साम्प्रदायिक एकता का सवाल आता है।”
पिछले अधिवेशन में नेहरू जी की अध्यक्षता में जो प्रस्ताव हिन्दू-मुस्लिम एकता के विषय में पारित किया गया था, उसमें आया था कि ‘मुसलमानों को पूर्णतया सन्तुष्ट किये बिना’ भारत के भावी संविधान में कुछ भी सम्मिलित नहीं किया जायेगा। सरदार पटेल ऐसे शब्दों को तुष्टिकरण मानते थे। इसलिए उन्होंने अपने करांची अधिवेशन के भाषण में कहा था- ”एक हिन्दू के नाते मैं अपने पूर्ववर्त्ती अध्यक्ष का फ ार्मला स्वीकार करते हुए अल्पसंख्यकों को स्वदेशी कलम और कागज देता हूँ। ताकि वे अपनी माँगें लिख सकें। मैं उनका अनुमोदन करूंगा। मैं जानता हूँ यही सबसे तेज तरीका है। पर इसके लिए हिन्दुओं में साहस होना चाहिए। हम दिलों की एकता चाहते हैं। कागज के टुकड़ों पर जोड़कर बनी वह एकता नहीं जो जरा से तनाव से टूट जाये। वैसी एकता तभी आ सकती है, जब बहुमत अपना सारा साहस जुटाकार अल्पमत की जगह लेने को तैयार हो। यही सबसे समझदारी की बात होगी।”
जब जिन्नाह ने मुस्लिम लीग का कार्य देखना प्रारम्भ किया तो उस समय
1935 के एक्ट के अंतर्गत भारत में चुनाव होने जा रहे थे। पटेल की मेहनत से कांग्रेस पाँच प्रान्तों में अपनी सरकार बनाने में सफ ल हो गयी। पटेल उस
समय कांग्रेस के अध्यक्ष थे। इन चुनावों में मुस्लिम लीग का कोई अच्छा प्रदर्शन
नहीं रहा था। कांग्रेस और लीग में सांझा सरकारें बनाने की बातें चलीं। कांग्रेस
की ओर से नेहरू और मौलाना आजाद जिन्ना से यह बातचीत कर रहे थे।
इस बातचीत में नेहरू जी ने लीग के सामने प्रस्ताव रखा कि उन्हें मुस्लिम
लीग का विलय कांग्रेस में कर देना चाहिए। यह शर्त निश्चित रूप से अव्यावहारिक
थी। जिसके कारण वार्त्ता असफ ल रही। पटेल को इस वार्त्ता की जानकारी नही
थी। लीग के मुख्य वार्त्ताकार खलिकुज्जमान के विषय में अधिकांश इतिहासकारों का मानना
है कि यदि उस समय पटेल कांग्रेस के मुख्य वार्त्ताकार होते तो निश्चित रूप
से कोई समाधान निकाल लेते और देश का विभाजन टल जाता।
गाँधी जी के सचिव प्यारेलाल ने नेहरू जी की इस शर्त को ”पहले
दर्जे की नीतिगत गलती”माना है। ‘दि टाइम्स’ अखबार के संवाददाता को
बाद में जिन्ना ने बताया था-”विभाजन के लिए नेहरू जिम्मेदार थे। यदि 1937
में वह यू.पी. की कांग्रेस सरकार में लीग को सम्मिलित करना स्वीकार कर
लेते, तो पाकिस्तान बनता ही नहीं।”
पटेल साहब गाँधी जी के अंधे मुस्लिम प्रेम से असहमत थे। गाँधी जी के
प्रेम का प्रभाव मुस्लिमों पर उतना नही पड़ रहा था, जितना राष्ट्रहित में वाँछित
और अपेक्षित था। देश का मुसलमान जिन्ना की विघटनकारी बातों पर जल्दी
प्रसन्न होता था, तालियाँ बजाता था। जबकि गाँधी जी के प्रेम को वह ‘बेचारा’
मानता था। एक दिन यरवदा जेल में पटेल साहब ने गाँधी जी से पूछा-”कोई
ऐसा मुसलमान भी है जो आपकी बात सुनता हो?”
सरदार पटेल ने ऐसा इसलिए पूछा कि वह समाज में देख रहे थे कि
मुस्लिम लोग किस प्रकार जिन्ना की बातों को पकड़ रहे थे, और देश तेजी
से विभाजन की ओर बढ़ रहा था। इसलिए वह दु:खी थे। वह गाँधी जी से चीजें
स्पष्ट करना चाहते थे कि यदि आपकी बातों का प्रभाव मुस्लिम समाज पर
नहीं पड़ रहा है, तो फि र इस प्रेम-प्रेम की रट क्यों लगाये जा रहे हो? कोई
अन्य रास्ता खोजो जिससे विभाजन रूके। इस प्रश्न से वह गाँधी जी को समझाना
चाहते थे, कि आपका आदर्शवाद हमें वांछित और अपेक्षित परिणाम दिलाने वाला
नहीं है।
सरदार पटेल इस बात से भी खिन्न थे कि अंग्रेज हमारे देश में हिन्दू
मुस्लिम के मध्य मतभेद बढ़ाकर उनका लाभ उठाना चाहते हैं। अंग्रेजों का
तर्क था कि भारतीय लोग स्वतन्त्रता के योग्य नहीं है। क्योंकि उनमें आपसी
मतभेद इतने हैं कि वह शासन नहीं कर पायेंगे। सरदार पटेल ने नेहरू और
गाँधी जी की नीतियों के सर्वथा विपरीत रास्ता अपनाया और अंग्रेजों को लताड़ा।
दूसरा विश्व युद्घ छिड़ने के कारण गाँधी जी और वायसराय वार्त्ता टूटने पर
प्रैस को दिये गये अपने बयान मे सरदार पटेल ने कहा-”अंग्रेजों द्वारा बार-बार
की जा रही इस घोषणा से कांग्रेस को दु:ख होता है कि भारत स्वशासन के
काबिल नहीं है। सरदार ने कहा कि इस बात को पूर्व शर्त की तरह भारतीयों
के समक्ष रखा जा रहा है कि पहले कांग्रेस को मुसलमानों के साथ अर्थात
लीग के साथ सुलह करनी होगी। यदि कांग्रेस लीग के साथ समझौता करने
में सफ ल हो गयी तो संभवत: उसे राजाओं के साथ समझौता करने के लिए
कहा जायेगा। यूरोपियनों के साथ फि र किसी और के साथ। पटेल ने कहा-“इस
तरह वे देश में मतभेद बढ़ाये रखना चाहते हैं।…हम यह मानते है कि हिन्दुओं
और मुसलमानों में मतभेद हैं। हाँ, हम यह भी स्वीकार कर सकते हैं कि इस
देश में सम्पत्ति की कमी नही। पर यह सब कुछ हमारा है या आपका? हमारे
झगड़ों का कारण आप हैं?”
इस प्रकार सरदार पटेल ने ब्रिटिश सरकार को एक सरदार की भाँति ही
सावधान किया। नेहरू ऐसी स्पष्ट बात कभी ब्रिटिश सरकार से नही कह पाए। जबकि गांधी और भी अधिक दब्बूपन की बात करते रहे। इसलिए विभाजन अवश्यम्भावी होता चला गया। यदि स्पष्ट बात कहने वाला और स्पष्ट नीति बनाने वाला पटेल देश का पहला प्रधानमंत्री होता तो सचमुच देश का इतिहास दूसरा ही होता। सब कुछ समझकर भी चुप रहना उन्हें पसन्द नहीं था। वह
समझते ही बोलना चाहते थे। जिससे कि अगले वाला समझे कि तू उसका
मूर्ख नहीं बाना पाया।
एक बार गाँधीजी ने पटेल साहब से उर्दू सीखने की बात कही। तब उन्होंने
गाँधी जी को उत्तर दिया-”सड़सठ साल बीत चुके, अब यह माटी का घड़ा
टूटने ही वाला है। बहुत देर हो चुकी उर्दू सीखने में, फि र भी मैं कोशिश करूँगा।
लेकिन आपके उर्दू सीखने का भी कुछ लाभ नहीं हुआ। आप जितना उनके
नजदीक जाने की कोशिश करते हैं, वे उतना ही दूर होते जाते हैं।”
ऐसे थे सरदार पटेल। इस लेख मे उनके व्यक्तित्व पर पूरा प्रकाश डाला
जाना असम्भव है। मौलाना आजाद सरदार पटेल से कितने ही मुद्दों पर भिन्न
राय रखते थे। आजाद के सहयोगी हुँमायू कबीर ने स्टेट्स मैन को बताया
था कि अपने आखिरी दिनों में आजाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि पटेल
के बारे में उनकी सोच गलत थी। उन्होंने कहा था कि 1946 में उन्हें कांग्रेस
अध्यक्ष पद के लिए नेहरू के बजाय पटेल का नाम प्रस्तावित करना चाहिए
था। मौलाना आजाद यद्यपि नेहरू के करीबी थे। परन्तु वह पटेल को व्यावहारिक
राजनीतिज्ञ मानते थे। उन्होंने हुँमायुं कबीर से कहा था-”पटेल नेहरू से बेहतर
प्रधनमंत्री सिद्घ होते।”
मौलाना आजाद कांग्रेस के थे और उन्हें अपने अंतिम दिनों में अपनी गलती का अहसास हो गया कि सरदार पटेल कैसे थे, और नेहरू कैसे हैं? कांग्रेस के इतिहास का ही यह एक तथ्य है, तो क्या मौलाना आजाद को कांग्रेस फांसी चढ़ाएगी? जो सत्य है वह तो सत्य ही है। देश की जनता उसे समझ चुकी है और पटेल को अपना सब कुछ मान चुकी है, इसीलिए सारे देश में पटेल की प्रतिमा पर प्रसन्नता व्यक्त की है।
किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व की समालोचना करने में यदि उसका विरोधी
या उसकी राय से सदा मतभेद रखने वाला व्यक्ति उसे पूरे अंक देता है या
अपने मतभेदों पर प्रायश्चित करता है तो यह उस व्यक्ति के लिए बहुत बड़ा
पुरस्कार है। पटेल को यदि यह पुरस्कार मौलाना आजाद से मिला तो इसका
अर्थ ये है कि उनके व्यक्तित्व के समक्ष विरोधी भी नतमस्तक होते थे। ऐसे
महान व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति को शब्द सीमा सें बाँधना असम्भव है। क्योंकि
ऐसा व्यक्तित्व वर्णनातीत होता है, कालातीत होता है। उस वर्णनातीत और
कालातीत महामानव को हमारा केाटिश: नमन।