अमरसिंह राठौर अप्रतिम बलिदान
इसी प्रकार शाहजहाँ के दरबार में सलावत खां को दिनदहाड़े मारने वाले अमरसिंह राठौर की वीरता और बलिदानी भावना को भी कोई छद्मवेशी ही भूल सकता है। जिसने अपने सम्मान के लिए अपने प्राण गंवा दिये थे। इसके बाद सरदार बल्लू और उसके घोड़े चम्पावत के बलिदान को भी कोई देशभक्त भारतीय नहीं भुला सकता । जिन्होंने अपना अप्रतिम बलिदान अमरसिंह राठौर का शव लाने की एवज में दिया था।
भारत का भाल छत्रसाल
मुगल काल में ही भारत का भाल शत्रुसाल अर्थात छत्रसाल का बलिदान हुआ । जिसका जन्म 4 मई 1649 को हुआ था। भारत के स्वतन्त्रता संग्राम का यह हीरा बुन्देलखण्ड की वीर भूमि से जन्मा था।
मां भारती की स्वतन्त्रता के इस महान सपूत ने अपने वीर बुन्देलों को सम्बोधित करते हुए जो शब्द कहे थे उनको पथिक जी ने इन शब्दों में पिरोया है :- “बुन्देल भूमि के वीरों ! अपनी वीर प्रस्विनी मातृभूमि आज पराधीन है । उस पर परकीयों की सत्ता है । वह पदाक्रांत है । हमारी भीरुता के कारण हमारी मातृभूमि आज अपने मुँह पर आंचल डाले अपमान के आंसुओं से नहा रही है । हम उसके रणबांकुरे पुत्र परस्पर कलह करते हुए एक दूसरे के रक्त को निरर्थक बहा रहे हैं । अपने पुत्रों की इस आत्मविस्मृति और पारस्परिक द्वेष ज्वाला से माँ का शरीर झुलस रहा है। ऊपर से मुगल सत्ता उसके घावों पर नमक छिड़क रही है ।क्या यह मातृभूमि का मस्तक हम सबके रहते हुए लज्जा से यूँ ही झुका रहेगा ? हम अपनी मातृभूमि को संसार में सबसे अधिक प्रसन्न रखने में समर्थ होते हुए भी असमर्थ ही बने रहेंगे ?”
मातृभूमि के प्रति ऐसी असीम भक्ति भावना से भरे हुए हृदय को लेकर छत्रसाल और उसके वीर हिन्दू योद्धाओं ने औरंगजेब जैसे क्रूर बादशाह को भी युद्ध में पराजित किया था। उसकी वीरता के सामने निढाल हुए औरंगजेब के लिए 1703 ई0 में एक समय वह आ गया था जब उसने छत्रसाल को ‘राजा’ स्वीकार कर लिया था।
इस वीर योद्धा ने माँ भारती की स्वतन्त्रता के लिए राष्ट्रव्यापी योजना तैयार की थी । जिसके अन्तर्गत उसने दक्षिण के शेर और माँ भारती के वीर सपूत छत्रपति शिवाजी से भी सम्पर्क साधा था। इसके अतिरिक्त पंजाब में गुरु गोविंद सिंह के साथ भी उन्होंने देश के लिए काम करने पर सहमति बनाई थी । इस प्रकार छत्रसाल , छत्रपति शिवाजी और गुरु गोविंद सिंह जी का एक ऐसा त्रिभुज बन गया था जो माँ भारती की स्वतन्त्रता के लिए बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ ।
तीनों बड़ी सधी हुई नीति के अन्तर्गत देश के लिए काम करने पर सहमत हुए थे। इन तीनों के द्वारा तत्कालीन मुगल सत्ता के विरुद्ध रचा गया चक्रव्यूह इस क्रूर सत्ता को तत्काल तो नहीं पर आगे चलकर अवश्य उखाड़ने में सफल हुआ। यह सब हिन्दू वीर योद्धाओं के बलिदानी इतिहास का एक गौरवपूर्ण भाग है।
यह छत्रसाल ही था जिसने स्वयं को अपमानित ‘राजद्रोही’ कहलवाकर भी ‘राजद्रोही’ कहने वालों से ही अपने आप को राजा के रूप में प्रतिष्ठित कराया। उसकी युद्ध शैली को कोई भी मुगल कभी निष्फल नहीं कर पाया और न ही समझ पाया था।
वीर पुत्र पृथ्वीसिंह का शौर्य
औरंगजेब के शासनकाल में महाराजा जसवंत सिंह जोधपुर के वीरपुत्र पृथ्वीसिंह की वीरता का वह किस्सा भी इतिहास के गौरवशाली पृष्ठों का एक अटूट भाग है , जिसमें उस वीर पुत्र ने शेर को निहत्थे ही मार दिया था। पृथ्वी सिंह अत्यन्त वीर था । उसने औरंगजेब के सामने भरे दरबार में शेर से द्वन्द्व युद्ध किया और निःशस्त्र रहकर शेर को बीच से चीर दिया था । उस समय पृथ्वीसिंह की माँ भी उसके साथ उपस्थित थी। माँ ने कहा : “शेर से निहत्थे ही लड़ना होगा । वत्स ! देखो तो सही , शेर पर कोई हथियार नहीं है । इसलिए नि:शस्त्र पर नि:शस्त्र रहकर हमला करो । यह वीरों के लिए उचित नहीं है कि निःशस्त्र के साथ शस्त्र लेकर युद्ध करो ।”
ऐसी वीरांगना माँ और ऐसे सपूत की कहानी को यथार्थ में अपने सामने घटित होते देखकर औरंगजेब ने पिता और पुत्र दोनों का ही अन्त करा दिया था। उस समय महाराजा की महारानी गर्भवती थी । जो अपने पति के साथ सती होना चाहती थी । तब देश धर्म की रक्षा के लिए दुर्गादास राठौर नाम का हिन्दू योद्धा सामने आया और उसने रानी को ऐसा करने से रोक दिया । रानी के गर्भ से बाद में एक पुत्र पैदा हुआ। जिसका नाम अजीत सिंह रखा गया । अजीत सिंह की रक्षा के लिए दुर्गादास राठौर ने अपने आपको समर्पित कर दिया और फिर ऐसा इतिहास रचा कि मुगल सत्ता के लिए सबसे बड़ा संकट और सबसे बड़ा शत्रु उस समय दुर्गादास राठौर ही बन गया।
जोधपुर के वीर हिन्दुओं ने अपने राजा और राजकुमार की इस प्रकार की गई हत्या को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था। उन्होंने औरंगजेब जैसे क्रूर बादशाह को जो चुनौती दी उससे औरंगजेब भी अचम्भित रह गया था। बादशाह ने जोधपुर के रणबांकुरों को शान्त करने के लिए एक पत्र भेजा था। कहते हैं कि बादशाह के इस हुकुमनामा को पढ़कर हंसते हुए लवेरा के ठाकुर रघुनाथ भाटी ने धरती पर फेंक दिया । इस हिन्दू वीर ने पढ़ते हुए उस समय अपने समक्ष खड़े बादशाही लोगों से कहा कि आज तक बादशाह का आदेश हमें शिरोधार्य था । पर आज उसका स्थान हमारे सिर पर न होकर हमारे पैरों में है। यह कहकर उसने उस हुक्मनामा को अपने पैरों से कुचल दिया था । इस प्रकार बादशाह को यह सन्देश मिल गया कि जो तूने कुछ किया है उसे हिन्दू शक्ति सहज स्वीकार नहीं करने वाली।
दुर्गादास राठौर की सफल रणनीति
इसी समय दुर्गादास राठौर ने अपनी राजनीतिक सूझबूझ और राष्ट्रवादी चिन्तन का परिचय देते हुए मराठा शक्ति के साथ ऐसा समन्वय स्थापित किया जिससे देश – धर्म की रक्षा करने में बड़ी सफलता मिली। दोनों शक्तियों ने यह निश्चित कर लिया कि तुम दक्षिण में रहकर देश के लिए काम करो तो हम उत्तर में रहकर देश की आजादी की राह आसान करें। अन्त में दुर्गादास राठौर की योजना और उसकी वीरता के सामने सिर झुकाते हुए बादशाह औरंगजेब को अजीत सिंह को महाराजा जसवन्त सिंह का उत्तराधिकारी स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा । उन परिस्थितियों में दुर्गादास राठौर की राजनीति और रणनीति की यह बहुत बड़ी सफलता थी।
दुर्गादास राठौर के व्यक्तित्व और कृतित्व को ‘गीत ठाकुर दुर्गादास जी रो का’ कवि कहता है :- हे वीर दुर्गादास ! तुमने कीर्ति रूपी लता रोपकर अपने विरुद रूपी जल से सींचकर हरी-भरी की है । यह वल्लरी चारों युगों में लहलहाती रहेगी । हे वीरवर ! तेरी कीर्ति रूपी वल्लरी की जड़ें पाताल लोक तक जा पहुँची हैं। तुमने इसे कर्तव्य रूपी जल से सींचा है। इसके तन्तु सप्तदीप और नव खण्डों में फैल गए हैं । इस बेल के तन्तु तुम्हारी गुणग्राहकता है । वचन पालन की भावना इसके पुष्प हैं । उदारता के भाव ही मञ्जरी हैं और कवि रूपी गुँजार कर पट भाषाओं में तुम्हारे यश का गान कर रहे हैं । हे नीवा के वंशधर दुर्गादास ! इस कीर्ति लता पर यश रूपी जो फल लगा है वह चारों युगों में लगा रहेगा ।” ( संदर्भ : देवी सिंह मंडावा की पुस्तक ‘देशभक्त दुर्गादास राठौड़’ के पृष्ठ 185 – 186 से)
हाड़ी रानी का बलिदान
हाड़ी रानी का बलिदान भी मुगल शासनकाल में ही हुआ था । जिसने अपने पति के भीतर वीरता के भाव भरने के लिए अपना सिर थाली में रखकर युद्ध भूमि के लिए जाते हुए अपने पति की सेवा में भेज दिया था। उसकी वीरता के ऐसे भावों को देखकर उसका पति युद्ध में जिस वीरता के साथ लड़ा , उससे अनेकों मुगल सैनिकों को उसने मौत के घाट उतार दिया था और एक रोमांचकारी इतिहास रचने में सफल हुआ था। उधर मेवाड़ के राणा जयसिंह और राजसिंह भी किसी न किसी प्रकार मुगलों के लिए शूल बने रहे और अपनी स्वतन्त्रता का आन्दोलन निरन्तर चलाते रहे।
राणा राज सिंह ने अपने राष्ट्रवादी चिन्तन का परिचय देते हुए बादशाह के लिए हिन्दुओं पर लगाए जाने वाले जजिया कर को हटाने की मांग की थी , जिसे उन्होंने अपने पत्र में सर्वथा अमानवीय बताया था।
जिन लोगों ने इतिहास से इन महत्वपूर्ण तथ्यों को हटाने का अपराध किया है उनके लिए किसी बड़े कांग्रेसी नेता के द्वारा किसी अंग्रेजी वायसराय को लिखा गया पत्र तो महत्वपूर्ण है, परन्तु किसी राणा राज सिंह के द्वारा लिखे गए ऐसे पत्र केवल भुला देने की चीजें हैं , ऐसा क्यों ?
उपरोक्त वर्णित सभी तथ्यों से प्रकट होता है कि जब शाहजहाँ इस देश पर शासन कर रहा था तब उसके शासनकाल में सर्वत्र क्रान्ति की ही गूंज थी । हिन्दू स्वाधीनता संग्राम पूर्ववत चलता रहा । कहीं पर भी ऐसी शान्ति देखने को नहीं मिलती जो यह स्पष्ट आभास करा सके कि हिन्दू इस बादशाह के शासनकाल में शान्त और प्रसन्न होकर रहने लगे थे और उन्होंने अपना स्वाधीनता संग्राम स्थगित कर दिया था ?
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष : इतिहास भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति