ललित गर्ग
हमारा चरित्र देश के समक्ष गम्भीर समस्या बन चुका है। हमारी बन चुकी मानसिकता में आचरण की पैदा हुई बुराइयों ने पूरे तंत्र और पूरी व्यवस्था को प्रदूषित कर दिया है। स्वहित और स्वयं की प्रशंसा में ही लोकहित है, यह सोच हमारे समाज में घर कर चुकी है। यह रोग मानव की वृत्ति को इस तरह जकड़ रहा है कि हर व्यक्ति लोकहित के बजाए स्वयं के लिए सब कुछ कर रहा है। इसका एक त्रासद एवं भयावह उदाहरण है उत्तर प्रदेश में नकली किताबों के तंत्र का पर्दाफाश होना। नकली पुस्तकें एवं उनका बड़ा तंत्र विकसित होना मुनाफाखोरी एवं भ्रष्टाचार का सबसे आसान जरिया बन गई है। जीवन कितना विषम और विषभरा बन गया है कि सभी कुछ मिलावटी, सब नकली, धोखा, गोलमाल ऊपर से सरकार एवं संबंधित विभाग कुंभकरणी निद्रा में है।
अवैध तरीके से छापी जा रही एनसीईआरटी की किताबों की भारी संख्या में बरामदगी और कुछ लोगों की गिरफ्तारी से शुरुआती तौर पर जो कुछ सामने आया है वह बेहद गंभीर, त्रासद और चैंकाने वाला है। येन-केन-प्रकारेण एवं गैरकानूनी तरीकों से धन को जितना अधिक अपने लिए निचोड़ा जा सके, निचोड़ लो, वाली मानसिकता ने अनेक शक्लों में भ्रष्टाचार एवं अनैतिकता को पनपाया है। देश के सौ रुपये का नुकसान हो रहा है और हमें एक रुपया प्राप्त हो रहा है तो बिना एक पल रुके ऐसा हम कर रहे हैं। भ्रष्ट आचरण और व्यवहार अब हमें पीड़ा नहीं देता। सबने अपने-अपने निजी सिद्धांत बना रखे हैं, भ्रष्टाचार की परिभाषा नई बना रखी है। भ्रष्ट तरीकों ने स्कूलों में पढाई जाने वाली पुस्तकों को भी नहीं बख्शा है। नकली पुस्तकों का एक पूरा माफिया तंत्र विकसित हो गया है, जिसे राजनीतिक संरक्षण मिलना अधिक भयावह एवं विडम्बनापूर्ण है।
यूपी बोर्ड मंे एनसीईआरटी की किताबें चलती हैं। पर उत्तर प्रदेश में फुटकर प्रकाशकों को कमीशन न मिलने के कारण कुछ प्रकाशक अवैध तरीके से ये किताबें छापने के धंधे में कूद पड़े हैं। ये लोग हल्के एवं सस्ते कागज पर एनसीईआटी की किताबें छापते हैं और फर्जी बिल तैयार कर बड़े कमीशन पर एनसीईआरटी के अधिकृत विक्रेताओं को नकद दाम में नकली किताबे बेच देते हैं। जहां असली प्रकाशकों को सिक्योरिटी मनी देकर कागज और प्रिटिंग की गुणवत्ता का ध्यान रखना पड़ता है, वहीं नकली प्रकाशक कम लागत में वैसी ही किताब बाजार में उतार देते हैं। इस धंधे में सालाना 100 करोड़ के टर्न ओवर में करीब 40 करोड़ की काली कमाई थी तो पुस्तक विक्रेताओं को भारी कमीशन मिल रहा था, जिस कारण वे असली किताब खरीदने में रूचि ही नहीं दिखाते थे। उत्तर प्रदेश में ही एनसीईआरटी की किताबों के करीब 300 अधिकृत विक्रेताओं द्वारा फर्जी किताबें खरीदने की चैंकाने वाली जानकारी सामने आयी है।
वैसे हर क्षेत्र में लगे लोगों ने ढलान की ओर अपना मुंह कर लिया है चाहे वह क्षेत्र चिकित्सा का हो या शिक्षा का, सिनेमा का हो या व्यापार का हो, बात पुस्तकों की हो या दवाइयों की, खाद्य सामग्री हो या अन्य जरूरत का सामान- मिलावट, नकली एवं गुणवत्ताहीन चीजों के रूप में भ्रष्टाचार चारों ओर पसरा है। राष्ट्रद्रोही स्वभाव हमारे लहू में रच चुका है। यही कारण है कि हमें कोई भी कार्य राष्ट्र के विरुद्ध नहीं लगता और न ही ऐसा कोई कार्य हमें विचलित करता है। एनसीईआरटी की किताबें अपनी स्तरीय सामग्री, गुणवत्ता के लिए जानी जाती है, क्योंकि इनमें शोध पर काफी निवेश किया जाता है, लेखकों को भारी पारिश्रमिक दिया जाता है। ऐसे में सिर्फ कागज और छपाई में खर्च कर एनसीईआरटी की किताबों का नकल करने वाले प्रकाशकों के लिए पुस्तक विक्रेताओं को मोटा कमीशन देना, जाहिर है, आसान था। उससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि फर्जी तरीके से छापी जा रही ये किताबें उत्तर प्रदेश से निकलकर दिल्ली और उत्तराखंड और शायद देश के अन्य हिस्सों तक पहुंच चुकी है। चूंकि ये किताबें भारी पैमाने पर छापी जा रही थीं और साफ-सुथरी थीं, इससे संदेह जताया जा रहा है कि स्कैन करने के बजाय कहीं सीधे एनसीईआरटी प्रेस से ही इन किताबों की साॅफ्ट काॅपी न ली जा रही हो! सिर्फ यही नहीं कि अवैध तरीके से किताबें छापने का यह धंधा लंबे समय से चल रहा था, बल्कि इस धंधे को मिल रहे राजनीतिक संरक्षण का आरोप मामले को और गंभीर बनाता है। ऐसे में इस मामलें की न केवल गहराई से जांच होनी चाहिए, बल्कि सुनियोजित ढंग से सरकारी खजाने को चूना लगाने वाले इस समूचे तंत्र की शिनाख्त भी आवश्यक है। दोषियों को कड़ी सजा भी दी जानी चाहिए ताकि इस तरह के भ्रष्ट आचरण का फिर कोई साहस न कर सके।
नकली एवं अवैध पाठ्य-पुस्तकों जैसे राष्ट्रीय जीवन में कितने ही भ्रष्ट एवं अनैतिक तरीके पनप रहे हैं जिनसे मूल्यहीनता एवं भ्रष्टाचार की जहरीली गैसें निकलती रहती हैं। वे जीवन समाप्त नहीं करतीं पर जीवन मूल्य समाप्त कर रही हैं। हमारे राष्ट्रीय चरित्र इस तरह के कई प्रकार के जहरीले, भ्रष्ट दबावों से प्रभावित है। अगर राष्ट्रीय चरित्र निर्माण की कहीं कोई आवाज उठाता है तो लगता है यह कोई विजातीय तत्व है जो हमार जीवन में घुसाया जा रहा है। जिस मर्यादा, सद्चरित्र और सत्य आचरण पर हमारी संस्कृति जीती रही है, सामाजिक व्यवस्था बनी रही है, जीवन व्यवहार चलता रहा है उनका लुप्त होना गंभीर चिन्ता का विषय है। नैतिकता, ईमानदारी एवं सद्चरित्र का जो वस्त्र राष्ट्रीय जीवन को ढके हुए था, हमने उसको उतार कर खूंटी पर टांग दिया है। मानो वह हमारे पुरखों की चीज थी, जो अब काम की नहीं रही। राष्ट्रीय चरित्र न तो आयात होता है और न निर्यात और न ही इसकी परिभाषा किसी शास्त्र में लिखी हुई है। इसे देश, काल, स्थिति व राष्ट्रीय हित को देखकर बनाया जाता है, जिसमें हमारी संस्कृति एवं सभ्यता शुद्ध सांस ले सके। लेकिन जितना अधिक प्रयत्न देश को पवित्र, शुद्ध एवं नैतिक करने का होता है, उससे अधिक प्रयत्न अनैतिकता, मूल्यहीनता एवं भ्रष्टाचार को पनपाने के देश में हो रहे हैं। भले ही हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ का संकल्प बार-बार दोहराते हो, लेकिन वो डाल-डाल तो भ्रष्ट आचरण वाले पात-पात की उक्ति को चरितार्थ करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। अब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सामने भी यह एक चुनौती है कि वो इस भ्रष्ट एवं नकली पुस्तक तंत्र से कैसे निबटते हैं।
पिछले कई वर्षों से राजनैतिक एवं सामाजिक स्वार्थों ने हमारे इतिहास एवं संस्कृति को एक विपरीत दिशा में मोड़ दिया है और प्रबुद्ध वर्ग भी दिशाहीन मोड़ देख रहा है। अपनी मूल पवित्रता एवं नैतिकता की संस्कृति को रौंदकर किसी भी भ्रष्टसंस्कृति को बड़ा नहीं किया जा सकता। जीवन को समाप्त करना हिंसा है, तो जीवन मूल्यों को समाप्त करना भी हिंसा है। यों तो गिरावट हर स्तर पर है। समस्याएं भी अनेक मुखरित हैं पर राष्ट्रीय चरित्र को विघटित करने वाली यह नकली पाठ्य पुस्तक का प्रकरण अधिक चिन्ताजनक है। भरपूर बल देकर इन भ्रष्ट पुस्तक प्रकाशकों के खिलाफ एक सशक्त अभियान चलाया जाए ताकि जीवन के हर पक्ष पर हावी हो रही भ्रष्टाचार एवं अवैध तौर-तरीकों की कालिमा को हटाया जा सके, ताकि अनैतिकता व मूल्यहीनता का दंश एवं दाग हमारे राष्ट्रीय चरित्र के लिए खतरा नहीं बन सके। नैतिकता की मांग है कि धन के लालच अथवा राजनीतिक स्वार्थ के लिए हकदार का, गुणवंत का, श्रेष्ठता का हक नहीं छीना जाए।