आइए जाने – तेजी से उभरती आर्थिकताकत वाला देश, सफाई एवं स्वच्छता में दूसरे विकासशील देशों से पीछे क्यों
ललित गर्ग
इंदौर एवं सूरत के बारे में सबसे बड़ी बात जो कही जा सकती है, वह यह है कि ”उन्होंने अपने शहर के चरित्र पर गन्दगी, प्रदूषण एवं अस्वच्छता की कालिख नहीं लगने दी।” अपने स्वच्छता दीप को दोनों हाथों से सुरक्षित रखकर प्रज्ज्वलित रखा।
देशभर के शहरों में साफ-सफाई से संबंधित ‘स्वच्छ सर्वेक्षण 2020’ के परिणामों ने एक बार फिर चौंकाया है, स्वच्छता की त्रासद एवं चिन्ताजनक स्थितियों का खुलासा किया है। सर्वे में देश के 4,242 शहरों के 1.9 करोड़ लोगों की राय को उजागर किया गया है। दस लाख से अधिक आबादी वाले 47 शहरों की श्रेणी में दस सबसे गंदे शहरों में पूर्वी दिल्ली का तीसरे एवं उत्तरी दिल्ली का पांचवें पायदान पर होना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के स्वच्छता अभियान की धज्जियां उड़ा रहा है। इस वर्ष के स्वच्छता सर्वेक्षण में शीर्ष स्थान पर इन्दौर ने चौथी बार बाजी मारी है। जबकि दूसरे स्थान पर सूरत रहा है। इन शहरों के शासकों और प्रशासकों के साथ वहां के नागरिक भी प्रशंसा के पात्र हैं। स्वच्छता अभियान को सफलता तभी मिलती है जब सभी मिलकर अपने शहर को साफ-सुथरा बनाने में योगदान देने के लिये संकल्पित होते हैं।
इन्दौर एवं सूरत के बारे में सबसे बड़ी बात जो कही जा सकती है, वह यह है कि ”उन्होंने अपने शहर के चरित्र पर गन्दगी, प्रदूषण एवं अस्वच्छता की कालिख नहीं लगने दी।” अपने स्वच्छता दीप को दोनों हाथों से सुरक्षित रखकर प्रज्ज्वलित रखा। दूसरी ओर पूर्वी एवं उत्तरी दिल्ली का प्रदूषण, गन्दगी एवं अस्वच्छता का साम्राज्य ज्यादा चिल्लाकर सबकुछ कह रहा है। प्रदूषण, गंदगी एवं अस्वच्छता से ठीक उसी प्रकार लड़ना होगा जैसे एक नन्हा-सा दीपक गहन अंधेरे से लड़ता है। छोटी औकात, पर अंधेरे को पास नहीं आने देता। क्षण-क्षण अग्नि-परीक्षा देता है। पर हां ! अग्नि परीक्षा से कोई अपने शरीर पर फूस लपेट कर नहीं निकल सकता। देश की राजधानी से जुड़े पूर्वी एवं उत्तरी दिल्ली गंदे शहरों में सिरमौर बने रहकर स्वच्छता की अग्नि परीक्षा में सफल नहीं हो सकते। जबकि अगर सफाई की बेहतर कार्ययोजना पर अमल करने की इच्छाशक्ति का परिचय दिया जाए और लोगों को अपने साथ जोड़ा जाए तो उदाहरण पेश किए जा सकते हैं। मुश्किल यह है कि ऐसे उदाहरण अनुकरणीय नहीं बन रहे हैं। इसी कारण यह देखने को मिल रहा है कि जो शहर स्वच्छता सर्वेक्षण की सूची में शीर्ष पर हैं उनके पड़ोसी और कुछ मामलों में तो उनसे सटे शहर कहीं अधिक पीछे दिख रहे हैं। बतौर उदाहरण नई दिल्ली ने स्वच्छ सर्वेक्षण में बेहतर स्थान हासिल किया, लेकिन पड़ोसी शहर उसके आसपास भी नहीं दिखे। आखिर सफाई के मामले में जैसा काम नई दिल्ली ने किया वैसा दक्षिणी, पूर्वी और उत्तरी दिल्ली क्यों नहीं कर सकीं? यही बात नवी मुंबई से सटे इलाकों पर लागू होती है। यदि नवी मुंबई खुद को साफ-सुथरा रखने की इच्छाशक्ति दिखा सकती है तो उससे सटे शहर क्यों नहीं? आखिर पूरी दिल्ली और पूरी मुंबई बेहतर साफ-सफाई का उदाहरण कब पेश करेंगी? क्या कारण है कि स्वच्छता के मामले में प्रतिस्पर्धा का भाव जोर नहीं पकड़ा रहा है?
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बड़े पैमाने पर चलाये गये स्वच्छता अभियान का क्या हश्र हो रहा है, पूर्वी-उत्तरी दिल्ली में स्वच्छता की स्थिति को देखते हुए सहज अनुमान लगाया जा सकता है। बात पूर्वी एवं उत्तरी दिल्ली ही नहीं बल्कि इस श्रेणी के सभी शहरों की हैं जो कूड़े के ढेर में तब्दील हो चुके हैं। गली-मोहल्लों में सड़ांध मार रहा कूड़ा, इन शहरों के लोगों के जीवन पर संकट बनता जा रहा है। कूड़े की वजह से सड़कों पर जाम लगना, सांस लेने में दिक्कत होना, बीमारियों का प्रकोप बढ़ना ऐसी खौफनाक स्थितियां हैं, जिन पर राजनैतिक दल अपने स्वार्थ की रोटियां सेंक रहे हैं। दुखद है लोगों के जीवन से खिलवाड़ करते राजनीतिक मनसूबे। इन गंदे शहरों के हालात न केवल सरकारी एजेंसियों को बल्कि केन्द्र सरकार एवं स्थानीय सरकार के स्वच्छता अभियान के दावों को भी खोखला साबित करते हैं। बात चाहे भाजपा की हो या आप सरकार की या अन्य राजनीतिक दलों की सरकारों की- जब समूचे देश में स्वच्छता अभियान का ढिंढोरा पीटा जा रहा है, उसी दौरान यह भी एक कड़वी सच्चाई ही है कि अनेक शहरों में स्वच्छता की स्थिति त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण बनी हुई है। क्यों हो रहा है यह सब? देश किधर जा रहा है? राजनीतिक मूल्यों की गिरावट गंभीर समस्या बनी हुई है।
ज्यादा आबादी वाले शहरों को साफ रखना कठिन काम हो सकता है, लेकिन आबादी से अधिक महत्वपूर्ण है स्वच्छता को लेकर दिखाई जाने वाली संकल्पशक्ति। निःसंदेह साफ-सफाई के मामले में संसाधनों की एक बड़ी भूमिका है, लेकिन वे तभी कारगर साबित हो सकते हैं जब इस इरादे का परिचय दिया जाएगा कि हमें अपने शहर को स्वच्छ बनाना है। यह परिचय केवल इसलिए नहीं दिया जाना चाहिए कि स्वच्छता सेहत के साथ पर्यावरण की भी रक्षा करती है, बल्कि इसलिए भी कि उससे देश की छवि निखरती है। स्वच्छता का संकल्प अमिट सौन्दर्य होता है, मौसम उसे छूता नहीं, माहौल उसे नजर नहीं लगाता। स्वच्छता की संस्कृति विकसित करने के लिए व्यापक जन-आन्दोलन की जरूरत है।
जिन शहरों पर गंदे होने की कालिख लगी है उन शहरों में स्वच्छता पर राजनीति करने वाले राजनेताओं एवं प्रशासनिक अधिकारियों ने लापरवाही, गैरजिम्मेदारना नजरिया और अपने कर्तव्यों के संकुचित दृष्टिकोण को ही दर्शाया है, जिसका परिणाम यह देखने को मिल रहा है कि प्रधानमंत्री के तमाम प्रयासों एवं प्रोत्साहन के बावजूद अनेक शहर प्रदूषित एवं गंदे हो रहे हैं। यह सही है कि प्रधानमंत्री के आह्वान के बाद देश में स्वच्छता के लिए जिम्मेदार सरकारी एजेंसियों द्वारा कुछ प्रयास अवश्य किए गए थे। सच्चाई यह भी है कि गंदगी में शुमार शहरों में कूड़े के सड़ने से स्वास्थ्य के लिये हानिकारक गैसें निकलती हैं, जो जानलेवा है। यहां से निकलने वाली खतरनाक गैसें सांस से जुड़ी अनेक बीमारियों का कारण बनती है। कचरा सड़कों पर फैला होता है जो आम जनजीवन के लिये बीमारियों का खुला निमंत्रण है। ‘स्वच्छता ईश्वरत्व के निकट है’ के संदेश को फैलाने वाली सरकारें क्या सोचकर विभिन्न शहरों को सड़ता हुआ देख रही हैं।
आज जरूरी हो गया है कि देश के सामने वे सपने रखे जायें, जो होते हुए दिखें भी। राष्ट्रीय राजधानी होने के कारण दिल्ली को निश्चित ही विश्वस्तरीय शहर के रूप में विकसित किया जाना चाहिए, लेकिन यहां विश्वस्तर की स्वच्छता होना भी उतना ही आवश्यक है। यह निराशाजनक ही है कि दिल्ली में सफाई के नाम पर बार-बार राजनीति हो रही है। ऐसा भी देखने में आ रहा है कि आम जनजीवन से जुड़ा यह मुद्दा भी राजनीति का शिकार है। दिल्ली सरकार केन्द्र को दोषी मानती है तो केन्द्र दिल्ली सरकार की अक्षमता को उजागर करती है, पिसती है दिल्ली की जनता। लेकिन कब तक? यही वजह है कि दिल्ली हाई कोर्ट को स्वयं इस मामले में कई बार हस्तक्षेप करना पड़ा है। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि स्वच्छता और स्वास्थ्य एक-दूसरे से सीधे जुड़े हुए हैं। ऐसे में न केवल दिल्ली बल्कि अन्य देशवासियों के स्वास्थ्य की चिंता करते हुए भी पूरी इच्छाशक्ति के साथ स्वच्छता सुनिश्चित करने के लिए काम किया जाना चाहिए। फेसबुक के संस्थापक मार्क जकरबर्ग ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ‘स्वच्छ भारत’ अभियान की तारीफ की। इसके पहले भी बिल गेट्स समेत कई विश्वस्तर पर सक्रिय कई अंतरराष्ट्रीय हस्तियां देश में अचानक चर्चा में आए सफाई के मुद्दे पर खुशी से हाथ बंटाने का प्रस्ताव देती आ रही हैं लेकिन सफाई एवं स्वच्छता का यह मुद्दा कितना खोखला है, यह बात उन्हें पता लगे तो क्या स्थिति होगी?
नरेन्द्र मोदी ने धूल-मिट्टी को साफ करने के लिए झाडू उठाकर स्वच्छ भारत अभियान को पूरे राष्ट्र के लिए एक जन-आंदोलन का रूप दिया और कहा कि लोगों को न तो स्वयं गंदगी फैलानी चाहिए और न ही किसी और को फैलाने देना चाहिए। उन्होंने “न गंदगी करेंगे, न करने देंगे।” का मंत्र भी दिया। लेकिन ताजा सर्वे में लगातार गंदगी के पहाड़ खड़े वाले शहर क्यों मौन बने रहे हैं? कचरा बने देश के प्रमुख शहरों में लोग टूटती सांसों की गिरफ्त में कब तक जीते रहे हैं? सुधार की, नैतिकता की बात कोई सुनता नहीं है। दूर-दूर तक कहीं रोशनी नहीं दिख रही है। बड़ी अंधेरी रात है। ‘मेरा देश महान्’ के बहुचर्चित नारे को स्वच्छता के सन्दर्भ में इस प्रकार पढ़ा जाए ‘मेरा देश परेशान’। जहां लोग गंदगी से परेशान हैं। भारत जैसी पुरानी सभ्यता, समृद्ध संस्कृति और अब तेजी से उभरती आर्थिकताकत वाला देश अगर आज भी सफाई एवं स्वच्छता के मामले में दूसरे विकासशील देशों से भी पीछे है तो इसका कारण कहीं ना कहीं राजनीतिक दलों का स्वार्थी नजरिया एवं लोगों का ढीला रवैया ही है।